जिस देश का बचपन भूखा हो उसकी जवानी क्या होगी?

जिस देश का बचपन भूखा हो उसकी जवानी क्या होगी? 

भारत में हर साल 14 नवंबर को देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की स्मृति में उनकी जयंती को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। उन्हें बच्चों से बहुत लगाव था और बच्चे भी उन्हें प्यार से चाचा कहते थे। बाल दिवस पर यह जरूरी है कि हम स्वतंत्र भारत में बच्चों की स्थिति पर एक विहंगम दृष्टि डालें। जिन बच्चों को हम भगवान का रूप मानते हैं, वे देश में किस हालात में हैं, उसकी समीक्षा करें और फिर विचार करें कि बच्चे जो कल के नागरिक हैं, कैसा भारत बनाएंगे? 


देश में जो विकास हुआ है उस झरोखे से भी बच्चों को ढूंढने की कोशिश करें ताकि कल के भारत की हम तस्वीर देख सकें। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हर मां नेे सपना देखा कि जब देश आजाद होगा, उसका बच्चा स्कूल जाएगा। तन ढकने के कपड़े होंगे। पढ़ेंगे और परिवार की देखभाल करेंगे। आजादी का जब हम अमृत महोत्सव मना रहे हैं एवं देश की 5 ट्रिलियन इकोनामी की ओर अग्रसर हो रहे हैं, ऐसे में हमारा बचपन कहां खड़ा है जरा उसे भी देखते चलें। 

भारत में हर साल अकेले कुपोषण से 10 लाख से ज्यादा बच्चों की मौत होती है। कुपोषण का अर्थ है कि उसे जीने के लिए जो न्यूनतम न्यूट्रिशन (पालक तत्व) की जरूरत होती है, वह भी नसीब नहीं है। कोई 10 करोड़ बच्चों ने अब तक पाठशाला का मुंह भी नहीं देखा है। इसके साथ ही सामाजिक और नैतिक समर्थन के अभाव में स्कूली बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। इसके अलावा खासकर बढ़ते एकल परिवारों की वजह से ऐसे बच्चे साइबर बुलिंग का भी शिकार हो रहे हैं। सेव द चिल्ड्रन की ओर से विश्व के ऐसे देशों की एक सूची जारी की गई है जहां बचपन सबसे ज्यादा खतरे में है। भारत इस सूची में पड़ोसी देशों में म्यांमार, भूटान, श्रीलंका और मालदीव से भी पीछे 116 में स्थान पर है। यह सूचकांक बाल स्वास्थ्य शिक्षा, मजदूरी, शादी, जल और हिंसा समेत आठ पैमानों पर प्रदर्शन के आधार पर तैयार किया गया है। 'चोरी हो गया बचपनÓ (स्टोलेन चाइल्डहुड) शीर्षक का रिपोर्ट देश में बच्चों की स्थिति बताने के लिए काफी है। 

बहुत से बच्चों को गरीबी और गंभीर सामाजिक आर्थिक समस्याओं के चलते स्कूल की चौखट नसीब नहीं होती तो कईयों को मजबूरी में स्कूल छोडऩा पड़ता है। देश में फिलहाल एक करोड़ ऐसे बच्चे हैं जो पारिवारिक वजहों से स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ घर का काम करने पर भी मजबूर हैं। 

भारतीय संविधान में बाल श्रमिक यानी बच्चों से मजदूरी कराना कानूनन अपराध है। 2020 में बाल विकास के कार्य में जुटी एक संस्था का सर्वे था कि देश में बाल मजदूरी खत्म होने में कम से कम 100 साल लगेंगे। इससे परिस्थिति की गंभीरता का एहसास होता है। 2011 में हुई जनगणना रिपोर्ट बताती है कि 5 से 14 साल तक की उम्र के बाल मजदूरों की तादाद एक करोड़ से भी ज्यादा है। देश के कुछ हिस्सों में तो बच्चों की कुल आबादी का आधा मजदूरी के लिए मजबूर हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक देश में फिलहाल 5 से 18 साल तक की उम्र के 3 करोड़ से अधिक बच्चे मजदूरी करते हैं। यही नहीं बाल मजदूरों पर होने वाले अत्याचार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। कुछ विशेष कार्य हेतु बच्चों का इस्तेमाल किया जाता है। मसलन गलीचे के यानी कालीन बनाने वाले कारखानों में बच्चों की नरम अंगुलियां बड़ा काम करती है। भले ही काम एक उम्र के बाद वे अपाहिज क्यों ना हो जाए। शहरों में जहां ऊंचे मकान है, चाय नाश्ता बनाने वाले स्टॉल में बच्चों से सरपट  चढऩे और चाय देने का काम लिया जाता है। एक सर्वे के अनुसार टी स्टॉल में काम करने वाला एक बाल श्रमिक प्रतिदिन लगभग 400 फीट चढ़ता उतरता है। परिणाम स्वरूप जवानी में पहुंचने तक व टीवी या अन्य किसी बीमारी का शिकार हो जाता है। 

भारत जैसे विकासशील देश में बच्चों को कई तरह की मुसीबतों एवं जानलेवा जोखिमों का सामना करना पड़ता है। मिसाल के तौर पर बच्चे ही अपहरण एवं फिरौती का शिकार होते हैं। भारत में हर 8 मिनट पर एक बच्चे का अपहरण हो जाता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार बीते एक दशक के दौरान बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों में 5 गुनी वृद्धि हुई है। बच्चों से भीख मंगवाने वाले कई गिरोह सक्रिय हैं। वे इस कार्य के लिए बच्चों को अपाहिज करने एवं उनका चेहरा विभत्स  करने में भी नहीं हिचकते। स्लमडॉग मिलेनियर इसी समस्या को लेकर फिल्म बनी इससे यह मसला उजागर हुआ पर इसके समाधान के लिए कोई कोशिश सुनने में भी नहीं आई। बच्चों का यौन शोषण में भारत सबसे आगे नहीं तो अग्रणीय देशों में एक है। 

एक दूसरी तस्वीर भी है जो कम भयानक नहीं है। परीक्षा में फेल होना बच्चों में बढ़ती आत्महत्या की दूसरी सबसे बड़ी वजह है। ''मेरा बच्चा पढऩे में अव्वल हो की प्रतिस्पर्धा में निराश बच्चे अभिभावकों की आकांक्षापूर्ति ना करने के कारण मृत्यु वरण कर लेते हैं। धनी परिवार में बच्चे अभिभावकों की ममता और वात्सल्य से वंचित रहते हैं और बाद में उनमें कई पाश्विक प्रवृत्ति जागृत हो जाती है। जिसके कारण वे हिंसक हो जाते हैं।

आर्थिक गतिविधियों में तेजी के बावजूद देश में 5 साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर बढ़ी है। वर्ष 2017 के दौरान देश में पैदा होने वाले ढाई करोड़ में से लगभग 12 लाख बच्चों की मौत ऐसी बीमारियों के चलते हो गई जिनका इलाज संभव है। इस मामले में भारत की स्थिति, पड़ोसी, बांग्लादेश और नेपाल के मुकाबले भी बदतर है। 

एक संगठन होप कोलकाता फाउंडेशन की कोमल तरफदार कहती है यह सुनिश्चित करना होगा कि हर तबके के बच्चे को शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरी मूलभूत सुविधाएं मुहैया हो सके। मौजूदा तस्वीर को बदलने के लिए भारत को काफी कुछ करना है। बाल दिवस पर एक  दिन बच्चों के लिए कल्याणकारी काम करने या उसकी घोषणा से नहीं पूरे साल एतदर्थ काम करना होगा। 

Comments

  1. प्रसांगिक आलेख।

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  2. बेहद सटीक , देश की स्थिति हजारों साल से यही चली आ रही है

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