बंगाल : बारो मासे तेरो परब

 बंगाल : बारो मासे तेरो परब

प. बंगाल और पूजा एक सिक्के के दो पहलू हैं। दुर्गापूजा बंगाल का और बंगालियों का सबसे बड़ा त्यौहार है। दुनिया के किसी हिस्से में बंगाली हो वह दुर्गापूजा के आगोश में डूब जाता है। प. बंगाल में 34 वर्षों तक बामपंथियों की सरकार थी। सीपीएम एवं उसके सहयोगी दलों ने चुनाव जीत कर बड़ी मजबूती के साथ सरकार चलायी। ज्योति बसु जैसा कट्टर माक्र्सवादी ने सरकार का नेतृत्व किया। उसके बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य  विशुद्ध बुद्धिजीवी ने बंगाल पर शासन किया। माक्र्सवाद अनिश्वरवादी है। वे ईश्वर की सत्ता को नहीं मानते। लेकिन उनके लम्बे कार्यकाल में बंगाल में पूजा की चमक दमक एवं बंगालियों के समर्पण भाव को रत्ती भर भी कम नहीं कर सके। यह अलग बात है कि दुर्गापूजा में उमड़ी भीड़ का लाभ उठाने पंडाल के बाहर वे अपने माक्र्सवादी साहित्य की धड़ल्ले से बिक्री करते थे। मां दुर्गा के प्रति गहरी आस्था और माक्र्सवादी साहित्य की रेकार्ड बिक्री का अजीब सा अस्तित्व देखा गया। जिस आस्था को माक्र्सवाद की अनिश्वरवादी हुकूमत नहीं छू सकी उसकी जड़ें कितनी गहरी है इसी से अन्दाज लगाया जा सकता है। बामपंथियों के 34 वर्ष के शासन को उखाड़ फेंकने वाली ममता बनर्जी सन् 2009 में भारी मतों से जीतकर बंगाल की सत्ता पर काबिज हुई। ममता कांग्रेस से निकली हुई  एक चिंगारी थी। उसने आराध्य काली या दुर्गा के प्रति बंगालियों के विश्वास को और मजबूत किया। नवरात्र पर अपने घर में अनवरत 9 दिन पूजा करने वाली ममता ने बंगाल की दुर्गापूजा को नया आयाम दिया। वह था पूजा भसान का कार्निवल जो बड़े ही भव्य तरीके से दशमी के बाद अब रेड रोड से निकाला जाता है। उसी रेड रोड से जहां से 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर राज्य की ऐतिहासिक झांकी निकाली जाती है। बंगाल एवं बाहर के शैलानियों को यह ममता का श्रेष्ठ उपहार है। इस वर्ष 94 विशिष्ट पूजा का कार्निवल और भी नयानिभराम था जिसे देखने के लिए बड़ी संख्या में बंगाल के लोगों का जमावड़ा हुआ। दर्शक दीर्घा में देशी विदेशी मेहमानों की संख्या हर वर्ष बढ़ रही है। दुर्गापूजा बंगाल की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन गया है। इस वर्ष सरकारी आंकड़ों के अनुसार पूजा में 50 हजार करोड़ का कारोबार हुआ। बहुतेरे उद्यमियों के लिये साल भर की बड़ी कमाई इसी दुर्गापूजा के दौरान होती है। इसलिए धार्मिक ²ष्टि से ही नहीं व्यवसायिक ²ष्टि से भी दुर्गापूजा बंगाल की ''लाइफ लाइन" यानि जीवन रेखा बन चुकी है। पर दुर्गापूजा तक बंगाल के लोगों की आस्था सीमित नहीं है। पूजा का बंगाल में अर्थ अब व्यापक हो गया है।


पश्चिम बंगाल त्यौहारों की भूमि है। बंगाली ''बारो मासे तेरो परब" एक लोकप्रिय कहावत है। इसका शाब्दिक अर्थ है बाहर महीनों में तेरह त्यौहार होते हैं। सभी धर्मों के सभी त्यौहार यहां समान धार्मिक भावना और उत्साह के साथ मनते हैं। नवरात्र या दुर्गापूजा से यह शृंखला शुरू होती है। चार दिन देवी आगमन पर पूरा बंगाल कुम्भ का मेला बन जाता है। कुछ दिन पश्चात काली पूजा पर भी बंगाल और बंगाली की व्यस्तता बनी रहती है। वैसे मां काली बंगाल की कुल देवी है। दुर्गा के मंदिर नहीं हैं, दशमी के बाद गंगा में मूर्तियों का भसान हो जाता है। लेकिन काली के मंदिर बंगाल के गली-मोहल्ले में हैं। काली के विभिन्न रूपों के विभिन्न मंदिर हैं। कालीघाट वाला काली मंदिर तो हर बंगाली का डेस्टिनेशन है। कालीपूजा के बाद जगद्धात्री पूजा राज्य में बढ़-चढ़कर मनायी जाती है। वही पंडाल और पूजा अर्चना एवं दर्शनार्थियों की भीड़। इसी शृंखला में एक छोटे अंतराल के बाद सरस्वती पूजा। शिक्षार्थियों की देवी सरस्वती या वीणापाणी की छटा अपूर्व होती है। बंगाली लड़कियां पीत परिधान में सज धज कर झुंड में निकलती हैं। ज्ञान एवं शिक्षा की अधिष्ठाता मां सरस्वती की पूजा पर बंगाल में अवकाश होता है। सम्भवत: बंगाल ही ऐसा प्रदेश हैं जहां सरस्वती पूजा की छुट्टी होती है। इन सबसे पहले गणपति या गणपति बप्पा मोरिया अब बंगाल में भी पूरी धूमधाम से मनाया जाता है। आज से पच्चीस-तीस वर्ष पहले तक कलकत्ता शहर में दो स्थानों पर गणपति की सार्वजनिक पूजा होती थी। एक तो हाजरा रोड स्थित महाराष्ट्र भवन में और दूसरी बऊबाजार में जहां कुछ महाराष्ट्र प्रवासी परिवार रहते हैं। लेकिन अब कुछ वर्षों से सिद्धि विनायक बंगाल पूजा की मुख्यधारा में शामिल हो गये हैं। महाराष्ट्र का यह त्यौहार बंगाल में भी अपना पांव जमा चुका है। गणपति पूजा के भी सहस्त्रों पंडाल की भव्यता देखते ही बनती है। रथयात्रा फिर उल्टो रथ अगर उड़ीसा का प्रमुख त्यौहार है तो बंगाल में भी रथयात्रा पर कई रास्तों पर रथ के खिलौने हांकते हुए लोग नजर आयेंगे। क्रिसमस में कोलकाता का पार्क स्ट्रीट इलाका रोशनी में नहाता हुआ नजर आता है। फिर इसी पर्व के कारण कोलकाता को सिटी ऑफ ज्वाय कहा जाता है। कोलकाता में ईसाइयों के कई चर्च हैं पर पार्क स्ट्रीट एवं न्यू मार्केट के आसपास की रौनक देखने लोग दूर दूर से आते हैं। उस वक्त रुमानी मौसम से आनन्द चौगुना हो जाता है। ब्रिटिश राज में तो इंग्लैंड की बजाय अंग्रेज शैलानी कलकत्ता में क्रिसमस मनाते थे। इसके अलावा महावीर जयंती, बुद्ध जयंती, ईद, मुहर्रम आदि आदि के मौके बंगाल की उत्सव धर्मिता समरसता से सराबोर हो जाती है। इन प्रमुख त्यौहारों के अलावा कई स्थानीय ईस्ट, देवी-देवताओं एवं संतों के अनुयायी जुलूस में परिवार के साथ नजर आयेंगे वे चाहें लोकनाथ बाबा हों या गौड़ीय मठ एवं चैतन्य महाप्रभु के भक्तगण हों। बिहार का छठ पर्व उतने ही शोर-शराबे एवं गाजे बाजे के साथ बंगाल में मनता है। गंगा तटों पर छठव्रतियों का डूबते सूरज को अघ्र्य देना उनके अपने प्रान्त से कम गरिमामय नहीं होता। छठ पर्व पर बिहार के बाद बंगाल ही ऐसा प्रदेश है जहां दो दिन की सरकारी छुट्टी रहती है।

गंगासागर या मकर संक्रांति के वक्त देशभर में लाखों लोगों को गंगासागर में पुण्य डुबकी कोलकाता शहर को झकझोर कर रख देती है। श्रावण माह में ताड़केश्वर के रास्ते बोल बम के नारों से बंगाल का माहौल श्रावणी उत्सव से रम जाता है। रवीन्द्र जयंती, श्री रामकृष्ण ठाकुर जन्मदिन या फिर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जयंती पर बंगाल की आध्यात्म एवं राष्ट्रवादी चिन्तन प्रवाहित होता दिखाई देता है। नववर्ष यानि 15 अप्रैल को बंगाली मोशाय अपने बंगालियानी मिजाज में दिखाई पड़ता है। भाई फोटा पर भी बंगाली महिलायें पूरी गरिमा से भाइयों को तिलक करती हैं। इस त्यौहार का बंगाली बड़ी आत्मीयता से पालन करता है। जमाई षष्ठी संभवत: बंगाल की परम्परा में बेजोड़ है। जंवाई बाबू सजधज कर ससुराल जाता है जहां उसकी विशेष खातिर होती है। मिठाइयों के दाम आसमान छूने लगता है। हमारी होली की तरह बंगाली का दोल पर्व रंगदार होता है। पश्चिम बंगाल के त्यौहारों में इस पूर्वी भारतीय राज्य में प्रचलित विविध संस्कृतियों और परम्परायें शामिल हैं। विभिन्न क्षेत्रीय समुदायों में अपनी संस्कृति और परम्पराओं के अनुसार अलग-अलग त्यौहार होते हैं। विशेष बात यह है कि सभी त्यौहारों पर व्यवस्था चुस्त रहती है। दुर्गापूजा के दौरान भीड़ नियंत्रण के लिए कोलकाता पुलिस की व्यवस्था गोल्ड मेडलिस्ट स्तर की होती है।

बंगाल में औद्योगिकीकरण गाड़ी बैक गीयर में चल रही है जो किसी बंगाली को खलती नहीं है न ही बंगाल के युवाओं में कोई असंतोष या आक्रोश देखा जाता है। यह सही है कि उद्यमी बंगाल छोड़कर कहीं और जा बसा है। 1980-82 तक कोलकाता में दो लाख गुजराती वास करते थे जो अब घटकर पच्चीस-तीस हजार रह गये हैं। उच्च एवं तकनीकी शिक्षा प्राप्त कर बंगाली भी अपने प्रान्त से सुदूर जा बसता है। पर बंगाल की बंगालियाने स्वभाव में कोई फर्क नहीं पड़ा। पूजा, त्यौहार बंगाल का बड़ा उद्योग भी है जो इस प्रान्त के फेफड़ों में ऑक्सीजन का संचार करता रहता है।

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