मुफ्त की रेवड़ी
किसकी झोली में?
भारतीय राजनीति में मुफ्त का कार्ड अब चुनाव जीतने की गारंटी सा बन गया है। दक्षिण के राज्यों की सियासत में मुफ्त बांटने की प्रवृत्ति सबसे पहले पनपी। साड़ी, प्रेशर कुकर से लेकर टीवी, वाशिंग मशीन तक मुफ्त बांटी जाने लगी। तमिलनाडु में मुख्यमंत्री जयललिता के शासनकाल में अम्मा कैंटीन खूब फली-फूली लेकिन मुफ्त बांटने की सियासत परिणाम यह हुआ कि राज्यों की अर्थव्यवस्था कर्ज के बोझ तले दबने लगी।
देश में दक्षिण भारत की सियासत से अपनी एंट्री करने वाला मुफ्त बांटने का कार्ड अब उत्तर भारत के साथ-साथ पूरे देश में अपने पैर जमा चुका है। अगर कहा जाये कि आज भारत में मुफ्त बांटकर वोट पाना एक शॉर्टकट बन गया है तो यह गलत नहीं होगा। राजनीतिक दल अपने वोट बैंक को साधने के लिए मुफ्त को चुनावी टूल के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। वोटरों को रिझाने के लिए मुफ्त अनाज, मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त लैपटॉप, मुफ्त स्कूटी, मुफ्त स्मार्टफोन के साथ-साथ बेरोजगारी भत्ता भी केन्द्र और राज्य की सरकारें खुलकर दे रही है।
देश में चुनाव जीतने के लिए बढ़ता 'रेवड़ी कल्चरÓ और राजनीतिक दलों का 'मुफ्तखोरीÓ को बढ़ावा देने के मुद्दें पर अब सुप्रीम कोर्ट ने अपनी नजर टेढ़ी कर ली है। सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार को चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों को मुफ्त में उपहार देने से रोकने के लिए समाधान खोजने का निर्देश दिए है। सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश ऐसे वक्त आया है जब देश की सियासत में इन दिनों 'रेवड़ी' और 'मुफ्त' सबसे बड़ा हॉट सियासी मुद्दा बन गया है। गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले 'रेवड़ी' और 'मुफ्त' को लेकर भाजपा और आम आदमी पार्टी आमने-सामने है। गुजरात दौरे पर पहुंचे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मुफ्त की सियासत को लेकर भाजपा पर जमकर निशाना साधा। दरअसल गुजरात विधानसभा चुनाव को लेकर आम आदमी पार्टी ने सत्ता में आने पर मुफ्त बिजली देने का वादा किया है।
चुनाव जीतने के लिए मुफ्त में बिजली-पानी या अन्य वादा करने वाले राजनीतिक दलों के खिलाफ लगी जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई है। सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कहा यह बहुत ही गंभीर मुद्दा है। सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कोर्ट में मौजूद वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल से भी उनकी राय मांगी जिस पर कपिल सिब्बल ने कहा कि यह बहुत गंभीर मामला है। राजनीतिक मुद्दों के कारण भारत सरकार से कोई फैसला लेने की उम्मीद नहीं कर सकता। हालांकि इस पर विचार करने के लिए वित्त आयोग को आंमत्रित कर सकते है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेवड़ी वाले बयान पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लगातार हमलावार है। गुजरात जाकर अरविंद केजरीवाल ने सवाल उठाते हुए कहा कि नेताओं को मुफ्त बिजली मिलती है तो जनता को क्यों नहीं मिलनी चाहिए? उसको फ्री रेवड़ी बोलना सही नहीं है। इस महंगाई से नेताओं को फर्क नहीं पड़ता. जनता को मुफ्त बिजली देने की बात करते हैं तो नेताओं को पता नहीं क्यों मिर्ची लगती है? ऐसे में जब इस साल के आखिर में गुजरात में विधानसभा चुनाव होने है तब अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी गुजरात की जनता से बड़ा वादा करते हुए एलान किया है कि उनकी पार्टी के गुजरात में सत्ता में आने पर प्रति माह 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली देगी। गौरतलब है कि दिल्ली में जहां आम आदमी पार्टी सत्ता में है वहां 200 यूनिट और आप शासित पंजाब में लोगों को 300 यूनिट मुफ्त में बिजली मिल रही है।
चुनाव के पहले मुफ्तखोरी में वैसे सभी पार्टियां लिप्त हैं। किन्तु शासक दल के पास साधन और सम्पत्ति का बाहुल्य है अत: वह मुफ्तखोरी से चुनाव प्रभावित करने में अग्रसर रहती है। कौन नहीं जानता कि उत्तर प्रदेश चुनाव में मुफ्त राशन बांटा गया। जब गरीब नमक खा लेता है तो वह वफादारी निभाता है। शहर के लोग भले ही मुकर जायें पर गांव में अभी भी नैतिकता कुछ बची हुई है।
फिर ज्यादा गम्भीर सवाल यह है कि कुछ बड़े उद्योगपतियों को बैंकों के 11 लाख करोड़ रुपये माफ कर दिये गये। इनमें अकेले अडानी समूह के 70 हजार करोड़ रुपये का ऋण माफ कर दिया गया। अब सवाल उठता है कि जब किसानों के 80 हजार करोड़ रुपये ऋण माफ किये गये तो कुछ राजनीतिक नेताओं ने सवाल उठाया कि किसानों को दिये गये इस दान का भुगतान देश को करना पड़ता है। कुछ देशप्रेमियों ने एमपी, एमएलए को दी जा रही मोटी तनख्वाह एवं दुनिया भर की सुविधाओं पर सवाल उठाते हुए कहा कि इन 'मुस्टण्डोंÓ को जो कुछ काम नहीं करते और देश का बड़ा धन गटक कर जाते हैं। दरअसल राजनीति इतनी मैली हो गयी है कि आम आदमी विधानसभा या सांसदों के दिये जा रहे न्यायोचित सुविधाओं को भी पचा नहीं पा रहा। किन्तु लाखों करोड़ों रुपये का ऋण माफ कर देश की अर्थव्यवस्था में जो सेंधमारी है, उस पर कुछ भी बोलने में क्यों हिचकिचाते हैं।
एक गम्भीर प्रश्न है कि मुफ्त में राशन देने या लंगर में बैठाकर खाने का किसी को शौक नहीं होता। यह मजबूरी है कि भिखारियों की तरह लंगर में खाना खाने के लिये लोग बाध्य हैं। सबसे खस्ता हालत तो मध्यम श्रेणी के करोड़ों लोगों की होती है जो मुफ्त कुछ भी लेने से अपना मुंह छिपाते हैं। इसी शर्म से कुछ लोग तो आत्महत्या भी कर लेते हैं एवं बहुत से लोग टूट जाते हैं। एक तरफ आमदनी को ग्रहण लग गया, लोग बेरोजगार हो गये, दूसरी तरफ खाद्य सामग्री से लेकर शिक्षा एवं चिकित्सा में आयी कमरतोड़ महंगाई ने ऐसे हालात पैदा कर दिये हैं जिसका इससे पहले कोई उदाहरण नहीं है।
मुफ्त बंटन से राज्यों का दिवाला निकल गया है। अपने विकास कार्यों की बात तो छोडिय़े, कर्मचारियों को वेतन देने का भी पैसा नहीं है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या श्रीलंका जैसे हालात पैदा हो जायेंगे? 70 लाख करोड़ रुपये का कर्ज पहले से है ऐसे में सरकार मुफ्त सुविधा देती है तो यह कर्ज बढ़ जायेगा। श्रीलंका में भी इसी तरह से देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी है और भारत भी उसी रास्ते पर जा रहा है।
देश की वर्तमान दुरावस्था पर इन आंकड़ों के बाद सोचिये भारत किस तरफ बढ़ रहा है। 2004 से 2014 के बीच भारत के 27 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से निकाल कर ऊपर किया गया किन्तु 2021 में फिर 23 करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे चले गये। देश का 77 प्रतिशत धन सिर्फ एक फीसदी लोगों के हाथ में चला गया है। 92 भारतीय धनकुबेरों के पास 55 करोड़ भारतीयों जितना धन है। 2017 में बेरोजगारी दर 4.77 फीसदी थी जो 2018 में 7, 2019 में 7.6, 2020 में 9.1, 2021 में 7.9 और 2022 में 7.8 फीसदी है। 2014 से 2021-22 तक पेट्रोल-डीजल पर एक्साईज ड्यूटी से सरकार ने 27 लाख करोड़ रुपये कमाये। महंगाई 15.8' पहुंच गयी है।

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