'सुरसा के बदन' से कहीं नारी का अपमान न हो जाये - महंगाई को अब क्या नाम दें?

 'सुरसा के बदन' से कहीं नारी का अपमान न हो जाये 

महंगाई को अब क्या नाम दें?

महंगाई कोई नयी वारदात नहीं है। स्वतंत्र भारत कीबात करें तो 15 अगस्त 1947 या 26 जनवरी 1950 में भारत का संविधान लागू होने के दिन से आज तक जिनसों के दाम बढ़ रहे हैं। संसद और बाहर इसके चर्चे भी होते रहे। देश में 1952 के पहले चुनाव के बाद दो चुनावों को छोड़दें तो हर चुनाव में विपक्षी दलों ने महंगाई पर गला भांजा और कुछ वर्ष बीतने के बाद विपक्ष ने चुनाव में महंगाई को जम कर कोसा और उस बहाने सत्तापक्ष को घेरने की चेष्टा की। पर मामला चुनाव तकही सीमित रहा। चुनाव के बाद फिर सत्ता और विपक्ष अपने-अपने काम में लग गये। शासक दल महंगाई को नियंत्रित करने का प्रयास करता रहा और विपक्ष अगले चुनाव में महंगाई को जोरदार मुद्दा बनाने में जुट गया। लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है देश में जितने भी चुनाव हुए, महंगाई कभी गम्भीर मुद्दा नहीं रहा। बल्कि इससे ज्यादा भ्रष्टाचार या तत्कालिक समस्या को मुद्दा बनाया गया और सरकार को घेरने की चेष्टा की गयी।

महंगाई विलाप पर कई गाने बने। ''बाकी जो बचा तो महंगाई मार गईÓÓ से लेकर ''महंगाई डायनÓÓ को स्वर और लय के साथ अलापा गया। महंगाई पर ध्यान भी आकर्षित हुआ और लोगों का मनोरंजन भी। रोजमर्रा की जिनसों का दाम बढऩे पर कभी सरकार ने चाहे वह कांग्रेस की हो या विपक्ष की, कभी तख्ता पलट की आशंका नहीं हुई। सच बात तो यह है कि महंगाई हमारे देश में हमेशा सुख चैन से रही। कभी उसे यह अहसास नहीं हुआ कि मुझे लोग गुस्से में या आक्रामक होकर देश निकाला देंगे। क्योंकि देश का एक बड़ा वर्ग इसी महंगाई के चलते फलते-फूलते रहा। चाहे वह राशन वाला हो, चाहे अनाज का व्यापारी या फिर छोटा-बड़ा दुकानदार। महंगाई पर लक्ष्मी की कृपा बनी रही।

देश की अर्थ व्यवस्था जैसे जैसे विकसित हुई, हर वस्तु के दाम बढ़े। हर बजट में अटचकलें लगती थी कि किसके दामों पर सरकार की मेहरबानी होगी। आय भी बढ़ती गयी और आयकर सीमा की छत को भी ऊंचा किया जाता रहा। अर्थव्यवस्था परवान चढ़ती गयी, महंगाई भी बढ़ती रही और लोगों की हैसियत भी। यानि सभी ग्राफ उछलते गये। चार सौ रुपये महीने की नौकरी करने वाले को दस वर्ष बाद चार हजार मिलने लगे और इस तरह पॉकेट और पेट दोनों में तालमेल का मोटामोटी सिलसिला चलता रहा।

2014 में जब श्री नरेन्द्र मोदी की सत्ता हुई तो उन्होंने एक नारा दिया- अच्छे दिन आयेंगे। पहली बार इस नारे ने मान्यता दी कि बढ़ती महंगाई और पॉकेट कीबीच की खाई चौड़ी होती जा रही है। लोगों में आशा बंधी कि शायद दोनों के बीच कोई तालमेल बैठ जाये। कहते हैं उम्मीद पर ही दुनिया टिकी हुई है। तो साहब उम्मीद पर लोग टिके रहे और सरकार की ओर टकटकी लगाकर देखते गये। आंखों का पानी सूख गया लेकिन इन्तजार खत्म नहीं हुआ। महंगाई वास्तव में डायन बनती गयी और लोगों को डराती रही। तब महंगाई डायन वाला जुमला सार्थक हो गया। अब कुछ वर्षों में हमारी अर्थव्यवस्था को पता नहीं सांप सूंघ गया या क्या सांप डस गया, आम आदमी की आमदनी गिरती जा रही है और जीवन यापन के खर्च बेलगाम बढ़ते जा रहे हैं। तेल, दाल, चावल, आटा की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी के बाद पेट्रोल और रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि आम जनता को रुलाने लगी है। केन्द्र सरकार ने उज्ज्वला योजना के तहत रसोई गैस मुहैया करा कर पारंपरिक रसोई की सूरत बदल दी। हमारी पारंपरिक रसोई से जलावन के अन्यसाधन हटा दिये। देश के लोगों की जब प्रदूषण रहित वातावरण की आदत लग गयी तो केन्द्र के हाकिम उनके इस हालात को भंजाने लग गये। केन्द्र सरकार देश के मध्यवर्गीय आबादी को कहीं से राहत देने के मूड में नहीं है। नीतियां ऐसी लागू की गयी कि रुपया ''बरेली के बाजार में झुमके की तरहÓÓ गिर गया और गिरता ही जा रहा है। रसोई की गैस हर गृहिणी के गृहस्थ धर्म की रामायण-महाभारत, गीता, बाइबिल और कुरान है। क्या विडम्बना है कि विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमत दो दिन पहले 100 डालर प्रति बैरल नीचे पहुंच गयी। एक दिन में 10 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी। आसमान छूते पेट्रोल-डीजल के दामों के बीच राहत की उम्मीद बढ़ी किन्तु आकाओं को हमारी राहत बड़ी नागवार गुजरी और उन्होंने इस पर ''सर्जिकल स्ट्राइकÓÓ कर आशाओं पर पानी फेर दिया। रसोई गैस सिलेंडर की कीमत तत्काल 50 रुपये बढ़ा दी गयी। इससे पहले सरकार हर महीने-दो महीने रसोई गैस के दाम बढ़ाती रही है। पिछले एक वर्ष में ही गैस सिलेंडर की कीमत 244 रुपये बढ़ गये हैं। शुरू में कहा गया कि गैस सब्सिडी सीधे बैंक खाते में जायेगी, कुछ दिनों आई भी किन्तु अब आती भी है तो 18-19 रुपये। क्या करें ऐसी सब्सिडी का जिसमें एक किलो प्याज तक ना खरीदा जा सके। खाने का तेल भी मोदी सरकार के आने से पहले 80-85 रुपये लीटर था अब 200 रुपये लीटर कर दिया गया। हां अभी कुछ कम हुए हैं। नीबू जैसी मामूली चीज की कीमत 400 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गयी है। मसाले, हल्दी, नमक, मिर्च, गर्म मसाला के साथ आलू-प्याज टमाटर की कीमत भी कहर ढाने लगी। अच्छे दिन का वादा करने वाली सरकार में पहले सिलेंडर 410 रुपये का आता था जिसकी कीमत अब 1070 रुपये से पार हो गयी है। पेट्रोल-डीजल पहले से ही 120 रुपये के खतरे के निशान को पार कर चुकी है।

हर सरकार मुफ्त राशन दे रही है, खैराती भी बांट रही है। यानि अब लोगों के सामने विकल्प होता जा रहा है कि या तो भूखे सो जाइये या फिर किसी लंगर में बैठ जाइये। आजकल खैरात में खिलाने वाले दयालु लोगों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। मुझे लगता है अफ्रीकी देशों में अमेरिका की कई चैरिटी संस्थायें लोगों के जीवन बचाने हेतु खाना और दवाइयां बांटती है। यह नौबत हमारे देश में भी आ सकती है। लेकिन 'खुशीÓ की बात यह है कि हमारे देश में अरबपतियों और खरबपतियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। आने वाले वर्षों में हमारे भारत को दुनिया के सर्वाधिक अमीरों की संख्या का गौरव भी प्राप्त हो सकता है। दूसरी तरफ गरीबी के मामले में हम अपने पड़ोसी पाकिस्तान को भी पछाड़ सकते हैं।

इस स्थिति केबावजूद चुनाव जीतने में कोई बड़ी माथापच्ची की जरूरत नहीं पड़ेगी। देश में धर्म के नाम पर जो उन्माद फैल रहा है उसके शोरगुल में भुखों की आवाज शायत नक्कारखाने में तूती ही साबित हो।

पहले महंगाई फिर कमरतोड़ महंगाई और फिर सुरसा के बदन की तरह फैलती महंगाई का नाम देकर हम स्थिति का बयान करते थे लेकिन अभी जो ताजा माहौल है उसमें शायद सुरसा यानि नारी जाति का अपमान न हो। इसलिये अब इस अभूतपूर्व स्थिति के लिये हमें कोई नये नाम की तलाश करनी चाहिये।



Comments

  1. इस मंहगाई की मार का भुक्तभोगी मध्यवर्गीय समाज है, क्योंकि अमीर और ज्यादा अमीर होते जा रहे हैं और निम्नवर्गीय तबका वोट बैंक होने के कारण सभी सरकारी सुविधाओं के साथ मुफ्त बिजली, पानी और राशन पाता है, उसे क्या?

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