92 वर्ष की उम्र में भी सजग और चिन्ताशील वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण चन्द्र छावड़ा

 92 वर्ष की उम्र में भी सजग और चिन्ताशील 

वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण चन्द्र छावड़ा

काफी लम्बे अंतराल के बाद जयपुर आया हूं। यह गुलाबी शहर में बहुत कुछ बदल गया। गुलाबी छटा जयपुर का एक मोहल्ला बनकर रह गया है। गाल पर छोटे से तिल का सौन्दर्य भी कम नहीं होता पर शेष जयपुर का तेजी से विकास हो रहा है। होटलें पहले भी बहुत थी अब पांच सितारा होटलों में इजाफा हो रहा है। स्कूटरों की तो भरमार थी पर अब चार पहियों वाली गाडिय़ां सड़क पर पहले से कहीं अधिक मचलती हुई दिखाई देती है। चोपड़ या पांचबत्ती के आसपास रहने वाले अब सुदूर कालोनियों में जा बसे हैं। मेट्रो ने भी जयपुर में अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है, हालांकि यह भूतल ट्रेन जयपुरवासियों को बहुत रास नहीं आई। इन सारे बदलावों के बीच मैं जब अपने पुराने श्रद्धाभाजन भाई साहब प्रवीण चन्द्र छावड़ा से मिला तो पाया कि इनमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। उम्र 92 साल की पर बड़ी सफेद भौं वाली तर्रार आंखें, बात करने का वही लहजा, वही ऊर्जा। प्रवीण जी ने जिस तरह मुझ पर अपना स्नेह उड़ेला मैं अभिभूत हो गया। भाभी जी के हाथ का बना खाना उनके पांचबत्ती वाले घर पर कई बार खाया है पर अब वे नहीं रही, 6 मास पूर्व चल बसी। फिर भी खाने की राजस्थानी खुशबू वैसी की वैसी। लगता है अपना पाक-हुनर विरासत में बहुओं को दे गयी।

जयपुर में अपने निवास स्थान पर प्रवीण छाबड़ा के साथ विश्वभर नेवर।

प्रवीण जी के इस नये घर पर एक बार पहले भी गया हूं। उनसे बातचीत में इतिहास के पन्ने खुलने लगे और प्रवीण जी के व्यक्तित्व एवं पत्रकारिता में उनके लम्बे संघर्ष को एक घंटे के अड्डे में उनके साथ साझा किया। प्रवीण जी समाचार भारती, न्यूज एजेन्सी के प्रभारी के रूप में 1972 में कलकत्ता आये थे। उसी दौरान मेरा उनसे परिचय हुआ। लेकिन कलकत्ता में यह उनका पहला प्रवास नहीं था। 1954 में वे दैनिक विश्वमित्र से जुड़े और बाद में लोकमान्य के संपादकीय विभाग में उन्होंने काम किया था। उनका मन नहीं लगा तो फिर जयपुर चले गये। समाचार भारती को प्रवीण जी ने ही कलकत्ता में स्थापित किया था। इस दौरान महानगर के कई नामचीन व्यक्तियों एवं उद्योगपतियों से उनके सम्बन्ध बने। प्रवीण जी की कलम और वाक्शैली दोनों ने ही उस वक्त आनन्दीलाल पोद्दार, सीताराम सेक्सरिया, ओंकारमल सराफ, भागीरथ कानोडिय़ा जैसे दिग्गजों को प्रवीण जी का मुरीद बना दिया। वे सभी उन दिनों मारवाड़ी समाज की शीर्ष संस्थाओं के संचालक थे। प्रवीण जी से जैन समाज भी उपकृत होता था। सत्ता के राजनेताओं में उनकी नजदीकियों के कारण जैन समाज तथा अन्य समुदायों के लोग छावड़ा जी से आत्मीयता बढ़ाने लगे। प्रवीण जी ने रचनात्मक सामाजिक कार्यों के लिए भरपूर रुचि से काम किया। अपने समय के कुछ लक्ष्मीपुत्र समाजसेवियों ने प्रवीण जी पर डोरे डालने शुरू किये।

एक सेठ ने छाबड़ा की प्रतिभा को देखकर उन्हें कहा था- ''जिण ने बोलणो अर लिखणो आवै, वो दुनिया माथे हकूमत कर सकै" (जिसे बोलना और लिखना आता है, वह दुनिया पर राज कर सकता है)। कई उद्योगपतियों ने अपने लिये प्रवीण जी को काम करने का प्रलोभन दिया पर प्रवीण जी विचलित नहीं हुए। उनकी कलम और सिद्धान्तपरक समाज सेवा चलती रही। सर्वप्रिय होने के बावजूद प्रवीण छावड़ा को राजस्थानियों का गढ़ कहा जाने वाला कलकत्ता रास नहीं आया। उन्होंने फिर जयपुर की ओर अपना रुख कर लिया।

राजस्थान पत्रिका से सेवा निवृत्त हुए विजय भंडारी जी ने छाबड़ा जी के व्यक्तित्व का इस तरह आकलन किया - ''भाई साहब (प्रवीण छाबड़ा को प्यार और सम्मान से यही कहकर सम्बोधित किया जाता रहा) एक बहुमुखी व्यक्तित्व हैं। पहले जयपुरी, दूसरे नम्बर पर जैनी, तीसरे पर कांग्रेसी तथा चौथे पर पत्रकार। लेकिन पत्रकारिता उनके चारों गुणों की पूर्ति का माध्यम है।" हरेक को यह चौमुखी मेल की गुत्थी समझ में नहीं आती, मगर अपने बारे में छाबड़ा जी किसी और से अधिक खुद जानते हैं और अपने इस बहुआयामी व्यक्तित्व को तटस्थ भाव से स्वीकार करने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। लेकिन उन्होंने अपनी पहचान पत्रकार के रूप में कराने को ही हमेशा श्रेयस्कर समझा। इसलिए उनकी हमेशा चेष्टा रही कि पत्रकार के रूप में छवि बनी रहे। यह भी सही है कि वे उन बिरले पत्रकारों में हैं जो अपने पत्रकारिता जीवन के उत्तराद्र्ध के सक्रिय काल में ही स्वयं में एक संस्था बन गये।

प्रवीण चन्द्र छाबड़ा उन पत्रकारों में हैं जो देश की आजादी और वर्तमान राजस्थान बनने के पहले से कलमजीवी संवाद प्रहरी हैं। राजस्थान पत्रिका के प्रारम्भिक दौर में काफी समय तक प्रबंध संपादक रहे और बाद में संपादक के रूप में सेवा निवृत्त हुए। सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार उनकी पत्रकारिता में प्रखरता की पहचान थी। 1947 में वीरवाणी में उन्होंने स्त्रियों में परदा प्रथा के खिलाफ लिखा था। 1948 में जयपुर में कांग्रेस अधिवेशन हुआ तो एक लेख स्वतंत्रता सेनानी अर्जुन लाल सेठी पर लिखा जो दैनिक जयभूमि में छपा। प्रवीण जी ने खुद अपना अखबार ''भारत" निकाला। लेकिन व्यवसायी और उद्यमी होना उनके बस की बात नहीं रही। अपने को श्रमजीवी पत्रकार बनाये रखना ही उचित समझा। श्रमजीवी पत्रकार के रूप में उन्होंने खूब पापड़ बेले। एक सम्भ्रांत जैन परिवार में पैदाइश के बावजूद बनियागिरी उनको छू नहीं सकी। सेठ-साहूकारों से मधुर सम्बन्धों को रखते हुए सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार करने से वे नहीं चूके। राजनीति और पत्रकारिता दोनों में एक साथ सक्रिय रहने पर उन्होंने निष्पक्ष एवं उद्देश्यपूर्ण पत्रकारिता के धर्म का निर्वाह किया। इससे पत्रकार जमात ही नहीं जैन समाज और जयपुर शहर को लाभ मिला। निष्पक्ष पत्रकार के रूप में सत्ता के गलियारे में उनका रुतबा हमेशा बना रहा। प्रवीण छाबड़ा जी के असाधारण व्यक्तित्व को मैंने नजदीक से देखा है। जयपुर की 'एम आई रोड" में एक पान की दुकान पर जब मैं उनके साथ खड़ा था, उसी वक्त धोती कुरता पहने हुए एक नौजवान आया और प्रवीण जी के साथ पान साझा करते हुए बातचीत करने लगा। प्रवीण जी ने मेरा भी उनसे परिचय कराया। वह व्यक्ति और कोई नहीं वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत थे जो आज राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के प्रमुख खेवनहार हैं। भैरोंसिंह शेखावत उपराष्ट्रपति बन गये थे। जयपुर में उनके घर मैं प्रवीण जी के साथ गया। वहां शेखावत साहब को यार दोस्तों की तरह प्रवीण जी के साथ व्यवहार करता देख मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। राजनीति में भी प्रवीण जी गुण-ग्राही थे। दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उनका व्यवहार सर्वप्रिय रहा। जयपुर में पिंक सीटी प्रेस क्लब बनवाने, वृन्दावन मंदिर का जीर्णोद्धार में उनकी सक्रिय भूमिका थी। केन्द्र सरकार से जयपुर को बी-2 का दर्जा दिलवाना हो या राज्य कर्मचारियों के जबर्दस्त आंदोलन में हड़ताली कर्मचारी नेताओं और सरकार के बीच सर्वसम्मत समझौते कराने हों, वे सफल रहे। राजनेताओं का भी उन पर भरोसा था। विपरीत ध्रुवों को साधकर चलने का उनमें सहज कौशल रहा है। कांग्रेसी होते हुए भी विपक्ष के साथ भी उनके मधुर सम्बन्ध उनका दुर्लभ गुण था। यह उनके पत्रकार होने का अवदान है।

अपने पांच दिन के जयपुर प्रवास में 26 जुलाई को 92 वर्ष की लम्बी किन्तु रोमांचकारी व सार्थक जीवन यात्रा पूरी करने पर प्रवीण जी को वैदिक युग के ऋषि चारवाक की इस उक्ति के साथ बधाई और शुभकामना- "यथोजीवेत सुखमजीवेत।"

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