हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा : विचार शून्यता से लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हेतु संग्राम

 हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा
विचार शून्यता से लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हेतु संग्राम

रविवारीय चिन्तन पाठकों की सेवा में विगत साढ़े चार वर्षों से अनवरत लिख रहा हूं। अभी तक 245 आलेख हो चुके हैं। राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आदि सभी मुद्दों पर लिखने का प्रयास किया है। सबसे सुखद बात यह है कि सभी आलेखों पर प्रतिक्रियाएं मिलती हैं। कुछ लोग असहमति भी प्रकट करते हैं जो शिरोधार्य है। कई पाठकों से वैचारिक समर्थन भी मिलता है। 30 मई 1826 को हिन्दी का पहला समाचारपत्र उदन्त मार्तण्ड इसी कलकत्ता शहर से ही प्रकाशित हुआ था। इन 196 वर्षों की यात्रा में आज की हिन्दी पत्रकारिता में कई परिवर्तन हुए हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के समय हिन्दी पत्रों ने स्वाधीनता सेनानियों का हौसला बुलन्द किया एवं राष्ट्र के नायकों के आह्वान एवं उनके उद्गारों को जनता तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया। स्वतंत्रता आंदोलन के पीछे भी उन विचारों का प्रसार था जिसके माध्यम से लोग स्वतंत्रता के लिये जागरुक हुए। ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध एवं देश को स्वतंत्र कराने हेतु अगर कई युवा शहीद हुए तो समाचारपत्र एवं उनके पत्रकारों ने भी इस संग्राम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। कई पत्रकारों ने भी शहादत दी। अखबारों की प्रेस जब्त कर ली जाती थी इसलिए अखबार तो एक के बाद एक निकले किन्तु अधिकांश की आयु दो-तीन साल से ज्यादा नहीं थी। अखबारों के निकलने का सिलसिला भी चलता रहा, अंग्रेजों का जुल्म भी। आज फिर ऐसा महसूस हो रहा है कि लोगों में वैचारिक शून्यता आ रही है और जिनके पास विचार हैं वे भटक रहे हैं।

विचारों में भिन्नता या वैचारिक मतभेद चिन्तनशील समाज का आभूषण हैं। लेकिन सबसे बड़ी त्रासदी तब महसूस होती है जब हमें विचार शून्यता का सामना करना पड़ता है।

150 चिन्तन का गुलदस्ता जिसका लोकार्पण शनिवार को सांसद और सुविख्यात फिल्म कलाकार शत्रुघ्न सिन्हा द्वारा सम्पन्न हुआ।

150 चिन्तन का गुलदस्ता जिसका लोकार्पण शनिवार को सांसद और सुविख्यात फिल्म कलाकार शत्रुघ्न सिन्हा द्वारा सम्पन्न हुआ।

हमारे देश में जनतांत्रिक या लोकतांत्रिक व्यवस्था है पर इसी विचार शून्यता के कारण लोकतंत्र का ताना बाना ठंडे बस्ते में सिसकियां लेता नजर आता है। स्वतंत्रता के पश्चात् जिन विचारों ने आजादी के जंग में ऊर्जा दी वह एकदम शिथिल पड़ गयी। समाचारपत्र एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विचारों पर बाजार भारी पड़ गया और यही कारण है कि मीडिया भी एक इण्डस्ट्री बनकर उभरने लगा है। हम अभिव्यक्ति की आजादी की लड़ाई तो लड़ रहे हैं किन्तु विचार के स्रोत सूखते जा रहे हैं, उसकी चिन्ता हमें नहीं है।

रविववारीय चिन्तन में मैंने बामुलायजा बेबाक टिप्पणी की है पर उसको आक्रमक नहीं बनाया क्योंकि आमतौर पर विनम्रतापूर्व बात कही जाये तो गले उतरती है। सोच और विचारों का निर्वाध संचार मनुष्य के अधिकारों में सबसे अधिक मूल्यवान है। अभिव्यक्ति की आजादी की अवधारणा बहुत पहले ही उत्पन्न हुई थी। भारत में पहला पत्र ही बंगाल गजट एक ब्रिटिश नागरिक ने अपनी ही हुकूमत के विरुद्ध निकाला था जिसके कारण उन्हें सजा भुगतनी पड़ी। हिन्दी पत्रों ने भी अंग्रेजों की खिलाफत की और उन्हें दण्ड भोगना पड़ा। इन्हीं सबकी परिणति स्वतंत्रता संग्राम के रूप में हुई।

स्वतंत्र भारत में देश को अंग्रेजियत से मुक्त कराने का संग्राम किसी भी तरह स्वतंत्रता पूर्व संग्राम से कम नहीं है। जनतंत्र के चार स्तम्भ में प्रेस एक प्रमुख स्तम्भ है। आज आजादी के अमृत काल में एक शब्द चल पड़ा है गोदी मीडिया। यह शब्द इसलिए इजाद किया गया क्योंकि सरकार एवं व्यवस्था की प्रशस्ति को विकास के साथ जोड़ दिया गया। यह समझाया गया कि जिस तरह से विकास हो रहा है उसे स्वीकार कर लिया जाय क्योंकि वैचारिक शान्ति के बिना विकास सम्भव नहीं है। आलोचना को बगावती तेवर के रूप में चिह्नित किया गया।

आधुनिक समाज में मीडिया वही काम करती है जो आदि काल में नारद की भूमिका थी। यानि इह लोक की खबर परलोक को एवं परलोक की सूचना इह लोक को देते थे। महर्षि मुनि नारद की सभी देवताओं के महल में इन्ट्री थी क्योंकि सूचना का वही एकमात्र स्रोत था। कुछ वर्ष पहले तक कई अखबारों में स्तम्भ का नाम ही था नारद जी खबर लाये हैं। नारद मुनि न होते तो बाल्मीकि का महाकाव्य न होता। रामायण के रचयिता बाल्मीकि को आदि कवि कहा गया है।

अकबर इलाहाबादी ने लिखा है-
खैंचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।

इसी प्रेरणा से छपते छपते का प्रकाशन शुरू किया था। सामाजिक परिवर्तन मेरा फोकस था। राजनीतिक गतिविधियों को स्थान दिये बिना आज कोई समाचारपत्र नहीं चल सकता पर मेरी प्राथमिकता सामाजिक सुधार था जिसे आगे बढ़ाने का मैंने एक कलम के सिपाही के रूप में काम किया। वैसे आजकल सम्पादकीय स्तम्भ को विरले ही पढ़ते हैं क्योंकि उसमें सम्पादक किसी सामयिक मुद्दे पर अपना विचार लिखता है। इस स्तम्भ में तटस्थ भाव नहीं चलता। सम्पादकीय को नजरन्दाज करना पाठकों का स्वभाव बन गया है क्योंकि उसमें सनसनी नहीं होती और न ही वह मसालेदार होता है। आजादी के संग्राम के समय इसी स्तम्भ को पढ़कर लोग अपनी जान की बाजी लगाते थे पर आज वह निर्जीव एवं ऊर्जाहीन माना जाता है।

खैर परिवर्तन समय एवं काल का अभिन्न अंग है। परिवर्तन न हो तो हम अतीत के कूपमंडूक में रमते रहेंगे। जनमानस को उद्वेलित करने के लिए वैचारिक स्पष्टता एवं उसमें स्पन्दन होना बहुत जरूरी है। हम इस कसौटी पर कितना खरा उतरे हैं यह तो पाठकों को तय करना है। हमारा प्रयास जारी रहेगा, अपनी कलम को प्रशस्त रखने का एवं आपके विचारों की मशाल को आगे बढ़ाने का। पहले भी समर्पित थे आज भी समर्पित हैं। पाठकों का समर्थन और उनके साथ जुड़ाव हमारा सबसे बड़ा सम्बल है।


Comments

  1. आज की नई पीढ़ी के नवयुवकों के लिए यह जानकारी बहुत ही जरूरी है।

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  3. नेवर ज का हार्दिक अभिनंदन । इस संकलन का इंतजार है।

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  4. छपते छपते अपने आप में गुलदस्ता है,भांति-भांति के समाचार पुष्पों से
    सुशोभित ,सुरभित है।घर बैठे समाचारों
    की सुगंध लेते,उर्जा लेते।भाई नेवर जी
    के आभारी है ह

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  5. आप कलम के सिपाही हैं, आपकी निष्पक्ष पत्रकारिता हम पाठकों को भी उर्जावान बनाने के साथ-साथ समसामयिक विषयों पर सोच विचार करने का अवसर प्रदान करती है।

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  6. अद्भुत अभिव्यक्ति। 🌹

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