हिन्दी-उर्दू जुगलबन्दी

 हिन्दी-उर्दू जुगलबन्दी

हिन्दी-उर्दू दोनों भाषाओं के अंदर ''भारतीय हृदय'' की धड़कन समान रूप से सुनाई देती है। दोनों एक-दूसरे की पूरक हैं। हिन्दी-उर्दू का झगड़ा अंग्रेजों की देन है। हिन्दी-उर्दू मुस्तरका जबान है और भारत की साझा संस्कृति की देन है। बाद में मुसलमानों ने उर्दू में बलात अरबी-फारसी शब्दों को ठूंस-ठूंस कर ुसे हिन्दी से दूर देने का प्रयास किया। उर्दू का संबंध अरबी-फारसी से न होकर हिन्दुस्तान की सरजमीं से है। क्योंकि उसका जन्म भारत की धरती पर हुआ है। उर्दू अरब देशों या ईरान में नहीं बोली जाती। मिर्जा दाग ने कहा है-

''कहते हैं उसे जुबाने उर्दू, जिसमें न रंग हो फारसी का।''

अभी 24-25-26 मई को कोलकाता में तीन दिन का उर्दू पत्रकारिता के दो सौ वर्ष पूरे होने पर बड़ा जलसा किया गया। बंगाल सरकार की उर्दू अकादमी ने उर्दू के अवदान और भारतीय सांस्कृतिक विरासत में उर्दू के स्थान पर कई सेमिनार के जरिये फोकस किया। उर्दू का पहला अखबार कलकत्ता शहर से 1822 में निकला था। दो सौ वर्ष की इस यात्रा पर परिचर्चा हुई। यह इत्तफाक है कि 1826 में इसी कलकत्ता शहर से हिन्दी का भ पहला अखबार उदन्त मार्तण्ड प्रकाशित हुआ। बहुत कम लोगों को पता है कि उर्दू का पहला अखबार निकालने वाले कोई मुस्लिम सज्जन नहीं बल्कि 27 मार्च 1822 को श्रीमान् हरिहर दत्त ने उर्दू का पहला परचा निकाला। इस सप्ताहवार अखबार के सम्पादक थे सदासुख लाल। इसके पश्चात् 1850 की 14 जनवरी यानि मकर संक्रांति के दिन मुंशी हरसुख राय ने साप्ताहिक कोहिनूर का प्रकाशन शुरू किया। इसके बाद तीसरा अखबार मनबीर कबिरुद्दीन ने उर्दू गाईड के नाम से प्रकाशित किया। यही नहीं लखनऊ से भी पहला अखबार अवध अखबार निकाला एक हिन्दू भाई ने जिसका नाम था मुंशी नवल किशोर।

उर्दू अकादमी के जलसे में हिन्दी पत्रकारिता के लिये सम्मानित हुए सम्पादक विश्वम्भर नेवर।

हिन्दी और उर्दू दोनों भाषा के अखबारों ने आजादी के संघर्ष में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। कई पत्रकार शहीद हुए।

पूरे विश्व में हिन्दी और उर्दू संभवत: अकेली ऐसी भाषाएं हैं जिनके संज्ञा, सर्वनाम, क्रियापद और वाक्य रचना पूर्णत: समान होने के बावजूद दो अलग-अलग भाषाएं मानी जाती है। हिन्दी और उर्दू भारतीय उपमहाद्वीप में बोली जाने वाली दो प्रमुख भाषाएं हैं। दोनों की सामान्य शब्दावली भी बहुत सीमा तक समान है। प्रसिद्ध समालोचक रामबिलास शर्मा का मत है कि इतिहास में हम जितना पीछे की तरफ चलते हैं उतना ही हिन्दी-उर्दू का भेद कम दिखाई देता है।

हिन्दी और उर्दू के एक मिले-जुले रूप को हिन्दुस्तानी कहा गया है। ब्रिटिश शासकों की फूट डालो और राज करो नीति की के फलस्वरूप हिन्दी और उर्दू एक-दूसरे से दूर होती गयी। एक की संस्कृत निष्ठता बढ़ती गयी और दूसरे का फारसीपन।

आज स्थिति यह है कि हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में सभी स्तरों पर कबीर, रैदास, मालिक मुहम्मद जायसी, सूरदास, तुलसीदास, रहीम, रसखान और विद्यापति जैसे कवियों को शामिल किया जाता है जो खड़ी बोली के नहीं बल्कि अवधी, ब्रज, मैथिली आदि भाषाओं के कवि हैं, लेकिन उर्दू के पाठ्यक्रम में इस विरासत को स्वीकार नहीं किया जाता। अमीर खुसरो को हिन्दी/उर्दू का पहला कवि तो माना जाता है लेकिन उनके बाद के विकास का इतिहास दोनों भाषाओं में अलग-अलग है। विडम्बना यह है कि खड़ीबोली हिन्दी में भी उसी तरह की प्रवृत्ति ने जड़ जमा ली है जिसके कारण अठारहवीं सदी और उसके बाद के काल में उर्दू से संस्कृत और स्थानीय बोलियों के शब्दों को निकाला गया। हिन्दी में संस्कृत शब्दों को अनावश्यक ढंग से ठूंसने की परंपरा चल निकली है जिसके कारण भाषा और जनता के बीच दूरी लगातार बढ़ती जा रही है। एक दूसरा बदलाव यह हुआ है कि बहुत-सा उर्दू साहित्य देवनागरी लिपि में छप कर सामने आया है और हिन्दी पाठकों के बीच लोकप्रिय हुआ है। आज मीर, गालिब, इकबाल, फिराक, फैज, इंतजार हुसैन, अहमद फराज और फहमीदा रियाज को जितना हिन्दी के पाठक पढ़ रहे हैं, उतना शायद उन्हें उर्दू के पाठक भी न पढ़ रहे हों। नतीजा यह है कि एक ओर जहां हिन्दी और उर्दू के बीच तनावपूर्ण रिश्ते बरकारर हैं, वहीं दूसरी ओर वे अपने पाठकों के जरिये एक दूसरे के नजदीक भी आ रही हैं। हो सकता है कुछ लोग इसके पीछे भी हिन्दी का वर्चस्ववाद ढूंढ लें।

प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने अपने ''हिन्दी एवं उर्दू का अद्वैत'' शीर्षक आलेख में हिन्दी एवं उर्दू की भाषिक एकता का प्रतिपादन किया है साथ ही हिन्दी साहित्य एवं उर्दू साहित्य के अलगाव के कारणों को भी स्पष्ट किया है। प्रोफ़ेसर जैन के अनुसार हिन्दी-उर्दू के ग्रामर में कोई अन्तर नहीं है। अपवादस्वरूप सम्बन्धकारक चिन्ह तथा बहुवचन प्रत्यय को छोड़कर। हिन्दी की उपभाषाओं, बोलियों, व्यवहारिक हिन्दी, मानक हिन्दी में बोला जाता है- गालिब का दीवान। उर्दू की ठेठ स्टाइल में कहा जाएगा -दीवाने गालिब। (अब दैनिक हिन्दी समाचार पत्रों में इस प्रकार के प्रयोग धड़ल्ले से हो रहे हैं।) हिन्दी में ''मकान'' का अविकारी कारक बहुवचन वाक्य में ''मकान'' ही बोला जाएगा। ''उसके तीन मकान''। उर्दू में ''मकान'' में ''आत'' जोड़कर बहुवचन प्रयोग किया जाता है -''मकानात''। विकारी कारक बहुवचन वाक्य में प्रयोग होने पर हिन्दी-उर्दू में 'ओं'' जोड़कर 'मकानोंÓ ही बोला जाएगा। ''मकानों को गिरा दो'' - यह प्रयोग हिन्दी में भी होता है तथा उर्दू में भी। कुछ शब्दों का प्रयोग हिन्दी में स्त्रीलिंग में तथा उर्दू में पुल्लिंग में होता है। हिन्दी में ताजी ख़बरें तथा उर्दू में ताजा ख़बरें। इस प्रकार का अन्तर पश्चिमी-हिन्दी तथा पूर्वी-हिन्दी की उपभाषाओं में कई शब्दों के प्रयोग में मिलता है। इनको छोड़कर हिन्दी-उर्दू का ग्रामर एक है। चूँकि इनका ग्रामर एक है इस कारण हिन्दी-उर्दू भाषा की दृष्टि से एक है। इसलिए बोलचाल में दोनों में फर्क नहीं मालूम पड़ता।

आज की पीढ़ी की समस्या भी हिन्दी और उर्दू भाषियों की समान है। हिन्दी की नयी पीढ़ी शिक्षित होकर अंग्रेजी के अखबार पढऩा पसन्द करती है। पर पाठक के रूप में ऐसे लोग बहुत ''लोयल'' निष्ठावान नहीं है। डिजिटल युग में उन्होंने अब अंग्रेजी का अखबार पढऩा छोड़ िदया और वे ''ऑनलाईन'' पाठक बन गये। किन्तु आम आदमी अखबार पढ़ता है और अब डिजिटल युग में हिन्दी का अखबार मोबाइल पर ई-पेपर के जरिये या इन्टरएक्टिव पेपर पढऩे ओर बढ़ रहा है। उर्दू पाठकों की भी यही समस्या है। उनकी त्रासदी भी यही है कि पढ़ा-लिखा मुसलमान उर्दू पेपर छूता भी नहीं है और अंग्रेजी का अखबर पढऩे लगा है जिसके फलस्वरूप वह जड़ से अलग होता जा रहा है।

दोनों कौम के लोगों की समस्या एक है और इनका समाधान भी है कि उन्हें अपनी जड़ों से जोड़कर रखा जाय वर्ना कटी पतंग की तरह हम अनन्त आकाश में लक्षहीन, दिशाहीन भटकते रहेंगे।



Comments

  1. हिंदी उर्दू का चोली दामन के समान एक दुसरी भाषा की पुरक है आजकल उर्दू की जगह हिंदी को स्थापित किया जा रहा है . हिंदी में निश्चित रूप से देश विदेश की हर भाषा को समाहित करने की क्षमता है लेकिन उर्दू हमारे देश की ही भाषा है इसलिए दोनों ही अपनी है.

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