खा मो श! अदालत जारी है

 खा मो श!


अदालत जारी है

हिन्दुओं की मान्यता है कि जीवन में अच्छे और बुरे कर्मों का फैसला अंततोगत्वा ऊपर वाला करता है। कर्मों की गुणवत्ता के अनुसार स्वर्ग या नर्क या फिर कुम्भीपाक। हमारे यहां ही नहीं सभी धर्मों में इससे मिलती-जुलती व्यवस्थायें हैं। इसलिए न्यायिक व्यवस्था किसी न किसी रूप में हमेशा हर युग में विद्यमान रही है। कोई भी इससे बचा नहीं है। यह तो हुई आलौकिक न्याय व्यवस्था यानि ऊपर वाले का बनाया हुआ कानून। लेकिन नीचे वालों ने भी अपने ढंग से न्याय प्रणाली बना रखी है। इस व्यवस्था में काफी विरोधाभास है। इसलिए नीचे वाली विधि व्यवस्था हमेशा विवादों के घेरे में रही है। हर व्यवस्था में विधि-विधान की अलग-अलग राय रही है। आधुनिक न्याय प्रणाली में विश्वास रखना हमारा राष्ट्रीय दायित्व है लेकिन वह भी अन्याय मुक्त नहीं है। मसलन एक ही अपराध या विवाद में निचली अदालत का फैसले को ऊपर वाली कचहरी खारिज कर देती है। ऊपर वाले फैसले को पड़ोस की समकक्ष अदालत नकार कर अपना अलग फरमान जारी कर सकती है, यह सर्वविदित है। अदालतों पर भी ''मुंडे मुंडे मतर्भिन्न:ÓÓ यानि जितने मुंह उतने मत वाली बात लागू होती है। खैर हमारी न्याय व्यवस्था जैसी भी है वह हमें मंजूर है भले ही उसमें अंतर्विरोध हो। इन सब विरोधाभास के बावजूद कटघरे का कोई विकल्प नहीं है। न्याय व्यवस्था एवं उसके प्रावधानों में समय-समय पर परिवर्तन भी होते हैं जिसके लिए विधि आयोग यानि लॉ कमीशन भी बना हुआ है जो समय-समय पर कानून के शेर को सर्कस के मास्टर की तरह घुमाता रहता है।
जनतंत्र के चार स्तम्भ माने गये हैं। उमें संसद व विधानसभायें एक स्तम्भ है जो कानून बनाती है, दूसरा स्तम्भ है न्याय प्रणाली जिसका हम अभी जिक्र कर रहे हैं, तीसरा प्रशासन और चौथा प्रेस है। इन चार पांवों पर हमारा जनतंत्र मजबूती से टिका रहता है। इनमें अगर एक भी कमजोर हो तो उसका खामियाजा जनतांत्रिक व्यवस्था को भुगतना पड़ता है और अगर चारों चरमरा रहे हों तो समझिये जनतंत्र खतरे में है। इतिहास गवाह है ऐसी स्थिति में अधिनायकवाद (डिक्टेटरशिप) या सैनिक शासन विकल्प के रूप में उभरने लगता है।
हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था कुल मिलाकर मजबूत है। इसमें छिद्र तो बहुत हैं पर कोई चिन्ता वाली बात नहीं है। इसके साथ-साथ प्रशासन यानि शासन व्यवस्था की मजबूती आधुनिक विश्व में अहमियत रखती है क्योंकि चार स्तम्भों के बावजूद अगर प्रशासनिक व्यवस्था दुरुस्त न हो तो देश में अराजकता का माहौल पनप सकता है।
प्रशासन ठीक काम कर रहा है या नहीं उसका मापदंड क्या है? इस पर बहुत लम्बा आलेख लिखा जा सकता है। पर मैं सूक्ष्म रूप में बता रहा हूं कि इसके लक्षण कैसे हो सकते हैं। जब हमारे कामों पर विवाद हो और प्रशासन या तो तटस्थ हो जाय या तमाशबीन बनकर तमाशा देखने लगे तो लोग फिर न्यायालय का दरवाजा खटखटाने लगते हैं। हम आज इसी परिस्थिति के आसपास से गुजर रहे हैं। इसके प्रमाण में मैं देश के दो महत्वपूर्ण अंग्रेजी समाचारपत्रों की हेड लाइन यानि सुर्खियां नीचे लिख रहा हूं-
दिल्ली से प्रकाशित होने वाले हिन्दुस्तान टाइम्स के दिनांक 20 मई Ó22 सिर्फ एक दिन की कुछ सुर्खियां- 1. HC sets aside Delhi govt’s doorstep ration scheem, 2. SC to hear Gyanvapi case today restrains local court, 3. GST Council’s suggestions are not binding: SC. 4. Court allows plea against Mathura Mosque. 5. SC lifts ban on feeding stray dogs, 6. HC stops tree felling in Delhi till June 2.
इसी दिन यानि 20 मई को कोलकाता से प्रकाशित टाइम्स ऑफ इंडिया के मुख पृष्ठ पर ऊपर की सुर्खियों के साथ कुछ अतिरिक्त हेडलाइंस-1. For the first time in history Calcutta H.C. has six woomen Judges on bench, 2. HC orders CBI probe into Tripura House Heritage Tag downgrade, 3. Setup 25 special courts to resolve 33,00,00 cheeks by cheque bounce cases says Supreme Court. 4. SC. Sex Worker must be issued Adhar Cards, 5. SC. dismisses plea seeking review of Tata-Mistry verdict.

इससे यह जाहिर है कि हर विवाद को अब कोर्ट में घसीटा जाता है। आपसी सुलह की घटनाएं बहुत कम होती जा रही है। प्रशासन जब अनिर्णय की स्थिति में होता है तो न्याय या हक के लिए कोर्ट की चौखट पर जाना नीयति बन गयी है। ऐसा प्रतीत होता है कि अदालती आदेश के बिना कोई जनहित का मामला नहीं निपटता। हाल ही में लखनऊ की हाईकोर्ट बेंच ने जनहित याचकों को फटकार लगाते हुए कहा था कि बात-बात पर कोर्ट-कचहरी करना चिन्ता का विषय है।
कलकत्ता हाईकोर्ट की वेबसाइट से मिले कुछ आंकड़े पूरी कहानी बयां कर देते हैं। 28 फरवरी 2022 तक कुल विचाराधीन मामले (सिविल) 178559 हैं जबकि 37717 क्रिमिनल मामले भी झूल रहे हैं। यानि कुल मिलाकर 2 लाख 16 हजार 276 मामले हाकिम के पास है जिन पर फैसले का लोगों को इन्तजार है। यह संख्या कम होने की बजाय बढ़ती ही जायेगी क्योंकि जजों की नियुक्तियां भी लम्बे अर्से से अधर में है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार हाईकोर्ट में 42 प्रतिशत जजों के पोस्ट खाली पड़े हैं। हाईकोर्ट में कुल जजों की संख्या 72 होनी चाहिए। कुल मिलाकर मुद्दा यह है कि तमाम शिक्षा प्रसार एवं जागरुकता के बावजूद पारिवारिक मामलों से लेकर जीवन के हर कदम कानूनी पेंच में फंस गये हैं और कई केस में तो फैसले का इन्तचार करते-करते पीढिय़ां गुजर जाती है। अब तो आस्था और धार्मिक महत्व के मुद्दे, समरसता और सौहाद्र्र की बजाय समाज में तनाव एवं आपसी कलह बढ़ रही है जिसकी परिणति कहां जाकर होगी कहना मुश्किल है।
महानगर की सुप्रसिद्ध एडवोकेट आशा गुटगुटिया कई समाचारपत्रों में लोगों की कानूनी जिज्ञासाओं एवं पेचीदियों का जवाब देती हैं। इसी कड़ी में मेरे द्वारा बढ़ते हुए विवादों को निपटाने अदालत के माध्यम के प्रश्न का उन्होंने जो संतुलित जवाब दिया उसे हू-बहू प्रकाशित कर रहा हूं-




सुचारू रूप से व्यवस्था चलने के लिए महत्वपूर्ण चार खंबे  बनाए गए हैं अब इसमें है कि कभी किसी पर ज्यादा दबाव पढ़ रहा है। लोग अब ज्यादा जागरूक हो गए हैं, सही और गलत कुछ भी हुआ मुद्दा हो लोगों को लगता है कि अदालतों का दरवाजा खटखटाना न केवल समाधान देगा बल्कि मीडिया में भी वाहवाही मिलेगी। वैसे शुरुआत से जब भी कोई क्रिटिकल मुद्दा आया है अदालत का निर्णय सही समाधान दे पाता है भले ही वह मौलिक अधिकारों की व्याख्या हो राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला हो। मुझे इस ट्रेंड में कुछ गलत नहीं लगता। प्रशासन द्वारा किया गया हर कार्य, हर फैसला अगर कहा जाए तो संविधान के अनुसार अदालत के निरीक्षण में सर्वदा से ही है। वहीं हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ज्यादा उत्साह में में अगर बेबुनियाद मसले उठाएं जाएं तो अदालत द्वारा भारी जुर्माना भी लगाया जाता है अभी कल ही आठ लाख का जुर्माना एक तथाकथित पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन में सुप्रीम कोर्ट ने लगाया। दिल्ली हाईकोर्ट ने 5 प्रतिशत के मामले में इसी तरह के एक एक्शन में चावला पर जुर्माना लगाया था।
आशा गुटगुटिया
 

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