बंगला नववर्ष(पोइला बैसाख)पर बंगभूमि को नमन्

 बंगला नववर्ष(पोइला बैसाख)पर

बंगभूमि को नमन्

इतिहास साक्षी है कि बंगाली समाज लगभग साढ़े तीन सौ वर्षों पुराना है। महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि बंगाली का जातिगत इतिहास कितना पुराना है बल्कि महत्वपूर्ण बात यह है कि बंगाल ने देश के सुदूर एवं आसपास के प्रान्तों को अपनी तरफ आकर्षित किया जिसका सुपरिणाम यह हुआ कि कम से कम उत्तर भारत के हर कोने से लोग आकर बंगाल के विभिन्न हिस्सों विशेषकर वृहत्तर कोलकाता में आकर बस गये। बंगाल की उर्वरा, शस्य श्यामला भूमि, यहां गंगा नदी का अविकल प्रवाहहै, धान के खेतों में वाली लहलहाती है, सोने की फसल (पाट) एवं अद्भुत प्राकृतिक छटा के साथ उत्तर में हिमालय की शृंखला एवं दक्षिण में सागर की हिलोरें। बंगाली भद्र लोग, शिक्षा एवं विज्ञान के प्रति अनुराग, कला-संगीत संस्कृति की हर विधा में बंगाली का ढलता जीवन। आज कोलकाता मेट्रोपोलिटन शहर में 67 प्रतिशत गैर बंगाली रहते हैं। कहते हैं कोलकाता ने कभी किसी को खाली हाथ नहीं लौटाया। कोलकाता शहर के बारे में एक बार मिर्जा गालिब ने कहा था-

कलकत्ते का जो जिक्र किया, तुमने हम नशीं

एक तीर मेरे सीने में मारा, कि हाय हाय।

कोलकाता ने भी चचा गालिब को प्रेम और सम्मान दिया। कोलकाता ही देश का एक ऐसा शहर है जिसके बीचोबीच मिर्जा गालिब नाम से एक बड़ा रास्ता है।


बंगाली समाज के हिन्दी के प्रति सम्मान एवं हिन्दी के विकास उसके प्रचार-प्रसार में अहम् योगदान है। आजादी के बाद जब राजभाषा का सवाल आया तो बंगाल से ही आवाज उठी कि हिन्दी को राजभाषा बनाया जाये। संविधान के आठवें अनुच्छेद में हिन्दी को सेतु भाषा यानि राजभाषा का दर्जा दिलाने में बंगाली मनीषियों की बड़ी भूमिका थी। केशवचन्द्र सेन, कवि गुरु रवीन्द्र नाथ ठाकुर, देशबन्धु चित्तरंजन दास, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जैसे महापुरुषों ने हिन्दी को राजभाषा बनाने की वकालत की। हिन्दी फिल्मों में बंगाली शिल्पियों का अवदान भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। कई फिल्ेमी हस्तियां जिसमें अदाकार ही नहीं, गायक, संगीत निदेशक, पटकथा लेखक के साथ प्रचार प्रभारी आदि बंगाल से गये थे।

हिन्दी और बंगला की जुगलबन्दी बेजोड़ है। कोलकाता विश्वविद्यालय में हिन्दी में पहला एम ए पास करने वाले एक बंगाली सज्जन थे जिनका नाम था डा. नलिनी मोहन सान्याल। हिन्दी के साधक सान्याल हमारे लिये पूजनीय हैं। हिन्दी समाज उनके प्रति कृतज्ञ है। उनके जन्मस्थान शांतिपुर में उनकी मूर्ति लगायी गयी जिसे बंगला के अखबारों ने सुर्खियां दी। उतना ही सुखद आश्चर्य यह है कि इसी कलकत्ता विश्वविद्यालय से बंगला में सबसे पहले एम.ए. पास करने वाले एक हिन्दी भाषी मारवाड़ी सज्जन थे - भगवान दास हरलालका। कलकत्ता विश्वविद्यालय में दरभंगा हॉल भारत के इस पहले विश्वविद्यालय का अभिन्न अंग बन गया है जहां आये दिन कई महत्वपूर्ण सारस्वत गोष्ठियां एवं परिचर्चा होती है। दरभंगा महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह ने कलकत्ता विश्वविद्यालय को अपनी प्रॉपर्टी भेंट कर बंगाल और मिथिला संस्कृति को नया आयाम प्रदान किया। यही नहीं बीबीडी बाग में दरभंगा महाराज की मूर्ति इसलिये लगी हुई है कि लाल डिग्गी (तालाब) की सारी सम्पत्ति दरभंगा महाराज की थी। दरभंगा को बंगाल का द्वार बंग कहा गया था।


हिन्दी समाज को बंगला के सभी साहित्यकारों की कृतियों को आत्मसात करने का सुअवसर इसी हिन्दी-बंगला समन्वय एवं सरोकार का सबसे बड़ा उपहार है। बंगला का ऐसा कोई लेखक, उपन्यासकार नहीं जिसका अनुवाद हिन्दी में नहीं हुआ हो। शरत चन्द्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर से लेकर बिमल मित्र, सुभाष मुखोपाध्याय सभी को इसी अनुवाद के जरिये हिन्दी पाठकों ने पढ़ा और हिन्दी की साहित्य सम्पदा में श्रीवृद्धि की।

30 मई सन् 1826 में कानपुर से जुगल किशोर शुक्ल ने कलकत्ता आकर कोलूटोला में कहीं से हिन्दी के पहले अखबार का सूत्रपात किया। यानि कलकत्ता शहर बंगला के अलावा हिन्दी पत्रकारिता की भी जन्मस्थली है। बाद में एक के बाद एक हिन्दी के कई पत्र-पत्रिकायें यहीं से प्रकाशित हुये जिनमें कई के सम्पादक कोई बंगाली महाशय होते थे। राजा राममोहन राय ने भी हिन्दी समेत बहुभाषीय समाचार पत्र का प्रकाशन किया। मजे की बात यह है कि यहीं से उर्दू, गुरुमुखी का भी पहला परचा भी प्रकाशित हुआ। कलकत्ता महानगर से एक चीनी भाषा का भी पत्र प्रकाशित होता है।

बंगाल में हिन्दी भाषियों का इतिहास लगभग बंगाली जाति जितना ही पुराना है। कहते हैं कि बंगाली समाज का उद्भव उत्तर प्रदेश में हुआ था अत: यूपी में उपाध्याय है तो बंद्योपाध्याय, गंगोपाध्याय, चट्टोपाध्याय बंगाल की मुख्य जातियां हैं।

राजस्थान का वणिक समाज मरुभूमि से बाहर निकला तो उसका सबसे पहला और सबसे बड़ा पड़ाव कलकत्ता ही था। यहां की सुनहरी फसल कच्चा पाट ने व्यापारियों को आकर्षित किया। प्राय: सभी राजस्थानी जो कलकत्ता आये बंगाल में पटसन की खेती के इलाकों में बसे जहां से वे कच्चे जूट के डिपो (मुकाम) बनाकर जूट मिलों में पूर्ति करते थे। वैसे ही कई मारवाड़ी उत्तर बंगाल, दार्जिलिंग के पहाड़ों में जा बसे और चाय बगानों में रसत की आपूर्ति से उन्होंने अपना रोजगार शुरू किया। आज के मारवाड़ी अधिकांश जूट मिलों एवं चाय बगानों के मालिक हैं। उनकी सप्लायर से मालिक तक का सफर बड़ा रोमांचकारी है। मारवाड़ी शाकाहारी हैं एवं उनकी भाषा का बंगला से कोई सामंजस्य नहीं है। इसके बावजूद यहां बसने एवं जीवन यापन करने में कोई असुविधा नहीं हुई क्योंकि बंगाली के पास बौद्धिक सम्पदा थी, मां सरस्वती का वरदहस्त था तो मारवाड़ी में उद्यम कौशल और श्रम के प्रति सम्मान था। इस तरह बंगाली की बुद्धि, राजस्थानी का उद्यम और बिहारी का श्रम इन तीनों की त्रिवेणी ने बंगाल के विकास को सिंचित किया जिसमें पुष्पित पल्लवित होने से पूरे देश को लाभ मिला है।

कलकत्ता देश की सांस्कृतिक राजधानी है। संस्कृति, साहित्य में अग्रसर यह प्रदेश हमलोगों के लिये तीर्थस्थल है। बंगाल किसी को निराश नहीं करता। बंगाल की धरती ममतामयी है इसका हृदय विशाल है। यहां जो भी आया यहीं का हो गया। जिसने भी आकर श्रम किया, मु_ी भर कर वापस लौटा। बिहार में तो एक कहावत घर-घर में है-

लगा झुलनवा का धक्का, बलम कलकत्ता।


Comments

  1. सांस्कृतिक एकता, सद्भाव व भाईचारे को बढ़ावा देने वाला आलेख 👌👍🙏💐

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