एक विचारणीय मुद्दा
बिना बुलडोजर के ही ध्वस्त हो रही है समाज की रसूकदार संस्थायें
विगत रविवार को 108 वर्ष पुरानी संस्था माहेश्वरी सभा का निर्वाचन था। मैंने भी अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इसके पहले भी कई बार वोट दे चुका हूं। किन्तु इस रविवार को वह उत्साह देखने को नहीं मिला, जो पहले कभी होता था। 15 हजार से अधिक सदस्यों में मात्र 3406 सदस्यों ने ही वोट डाला। पिछले चुनाव में 5 हजार से अधिक वोट डाले गये थे। कुछ वर्षपहले तक चुनाव के दिन माहेश्वरी भवन के सामने वाली पट्टी में लोगों का हुजूम होता था, इस बार नहीं देखा गया। हां, कुछ लोग अपने उम्मीदवारों के समर्थन में प्रचार जरूर कर रहे थे। प्रचारकों में महिलायें भी काफी थी, हालांकि 67 उम्मीदवारों में मात्र एक महिला थी। इस प्राचीन संस्था का गौरवशाली इतिहास है। एक छत के नीचे एक दर्जन संस्थायें हैं- माहेश्वरी विद्यालय, माहेश्वरी बालिका विद्यालय, संगीतालय, समाज सुधार संगठन, व्यामालय आदि-आदि। माहेश्वरी भवन के सूत्रों का कहना है कि इस बार चुनाव में उम्मीदवार नहीं मिल रहे थे। कुछ पदों पर निर्विरोध चुनाव हो गया। माहेश्वरी भवन का चुनाव इस संस्था की शक्तिशाली जनतांत्रिक प्रणाली का द्योतक रहा है। लेकिन अब यह सारी बातें इतिहास के पन्नों में सिमट गयी है। माहेश्वरी विद्यालय, बालिका विद्यालय में छात्र-छात्राओं की संख्या घटती जा रही है। संगीतालय, व्यामालय व अन्य संस्थाओं में भी गतिविधियां शिथिल हो गयी है।
लम्बे समय से बंद पड़ा लोहिया मातृ सेवा सदन (अस्पताल)।
माहेश्वरी सभा ही एक मात्र संस्था नहीं है जहां वीरानगी छा गयी है। अन्य संस्थाओं की स्थिति उससे भी बदतर है। सुप्रसिद्ध संस्था श्री काशी विश्वनाथ सेवा समिति में गत 30 वर्षों से चुनाव ही नहीं हुआ। समिति की एक पदाधिकारी ने नाम नहीं उल्लेख करने की शर्त पर बताया कि वहां किसी को अध्यक्ष बनाया गया जो समिति के सदस्य ही नहीं थे। उन्होंने ऐन वक्त सदस्य बनाकर इतनी पुरानी संस्था की वरमाला उनके गले में डाल दी गयी। अभी समिति में तूफान के पहले की शांति बनी हुई है। मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी की भी लगभग यही स्थिति है। सोसाइटी की अस्पताल से बाहर की सेवायें तो बहुत पहले ही बन्द हो चुकी है। यहां भी विगत कई वर्षों से चुनाव नहीं हुआ। श्री गोविन्द राम अग्रवाल एक समर्पित कार्यकर्ता हैं एवं अस्वस्थता के बावजूद वे सोसाइटी के कार्यों को पूरा समय देते हैं। सोसाइटी की त्रासदी यह है कि उसके पास कार्यकर्ताओं की कमी है और जो कमिटी है उनमें अधिकांश लोगों की संस्था संचालन में कोई दिलचस्पी नहीं है। सक्रिय सदस्यों की शिकायत है कि एक सौ वर्ष की संस्था में न तो कोई विधिवत् बैठकें होती है और न ही चुनाव।
एक और बड़ा नाम है आनन्दलोक। यह सामाजिक संस्था है या कोई निजी सम्पत्ति है, कोई नहीं बता सकता। किसी भी संस्था की प्रचार सामग्री में यह अवश्य लिखा जाता है कि संस्था कम्पनी या सोसाइटीज एक्ट में पंजीकृत है। आनन्दलोक के महीने में दस विज्ञापन छपते हैं जिनमें श्री देव कुमार सराफ की बेहूदी और फूहड़ प्रशंसा और मारवाड़ी समाज के प्रति उनकी दुर्भावना तो रहती है पर आनन्दलोक सामाजिक संगठन है या कोई प्राइवेट कम्पनी, इसका जिक्र नहीं किया जाता। संस्था के चेयरमैन का फोटो विज्ञापनों में छपती है जिसमें अक्सर उनका नाम नदारद रहता है। इसके पीछे सराफ जी की क्या मनसा है, कहा नहीं जा सकता पर कुछ तो दाल में काला है। अधिकांश लोग सराफ जी की अति नाटकीयता एवं उनके प्रचार को स्टन्ट मानते हैं। आनन्दलोक में बड़े-बड़े दावे किये जाते हैं लेकिन इसकी चिकित्सा सेवा की असलियत तब खुली जब आनन्दलोक के सुप्रीमो देव कुमार सराफ ने कोविड से ग्रसित होने के बाद अपना इलाज किसी अन्य अस्पताल में कराया।
मैं यह पहले भी लिख चुका हूं फिर भी उसकी अहमियत को देखते हुए फिर लिख रहा हूं। मारवाड़ी समाज द्वारा स्थापित किये गये कई सेवा एवं ज्ञान के मन्दिर या तो बंद हो गये हैं या फिर बंद होने की कगार पर हैं। कई संस्थाओं पर प्रमोटर गिद्ध नजर लगाये हुए हैं।
आशाराम भिवानीवाला अस्पताल, लोहिया मातृ सेवा सदन, बंद पड़े हैं। आम हॉस अस्पताल, पोलक स्ट्रीट का गुजराती अस्पताल, हरीसन रोड का हरलालका अस्पताल, हावड़ा में हनुमान अस्पताल सभी इतिहास के पन्नों में सिमट गये हैं। स्कूलों में बालकृष्ण वि_लनाथ विद्यालय बंद सा ही है। मारवाड़ी समाज की प्रतिनिधि राष्ट्रीय संस्था मारवाड़ी सम्मेलन अब एक साइनबोर्ड में परिणत हो चुकी है जिसकी हर तीसरे माह बैठक जरूर होती है एवं यह बात दोहरायी जाती है कि संस्था ने अपना कार्यक्षेत्र काफी बढ़ाया है। सामाजिक सुधार के उद्देस्य से बनी इससंस्था का समाज सुधार से दूर का सम्बन्ध भी नहीं है। इस संस्था के पास बड़़ा कोष है किन्तु गतिविधियां नहीं के बराबर है। कई वर्षों तक इस संस्था को संचालन करने वाले एक सज्जन ने हाल ही में अखबारों में यह विज्ञप्ति सुर्खियों में छपायी थी कि उन्होंने सभी पदों से अपने को अलग कर लिया है।
मैंने कुछ बड़ी नामधारी संस्थाओं का जिक्र किया है। और भी कई मंच हैं जिन्होंने सामाजिक कार्यों में महारथ हासिल की थी पर वे सभी अब सुप्त अवस्था में है। इसका परिणाम यह है कि मारवाड़ी समाज जो परमार्थ एवं अपनी जन सेवाओं के लिये देश भर में जाना जाता था, अब अपने ही लोगों की आलोचना का पात्र हो रहा है। शादी, विवाह, अनुष्ठानों में दिखावे एवं धन का प्रदर्शन एक अलग मुद्दा है जिसका कभी बाद में जिक्र करूंगा। वर्षों की निष्ठा एवं शानदार परम्परा से प्रेरित होकर बनी समाज की छवि धूमिल हो रही है, इसलिए लिखना पड़ रहा है। अन्त में अमर कवि दुष्यंत की दो पंक्तियों के साथ अपनी भावनाओं को व्यक्त करना चाहूंगा-
सिर्फ हंगामा खड़ा करना, मेरा मकसद नहीं है
मेरी कोशिश है कि सूरत बदलनी चाहिये।

पत्रकार का धर्म है कि बंद पङी संस्थानों के ताले खुलवाये जाए.
ReplyDeleteयह मुद्दा अत्यंत गम्भीर है आपने सार्थक विषय पर ध्यानाकर्षण करवाया है.आभार आपका
ReplyDeleteपुरातन काल से ही सामाजिक सरोकारों के प्रति व्यक्तियों की भूमिका का निर्धारण हमारे धर्म ने किया है। प्रत्येक युग में धर्म परायण प्रजापालकों और प्रजा ने बढ़चढ़कर अपने योगदान द्वारा समाज और राष्ट्र के उत्थान में जो उपहार दिए वे सहस्त्र वर्षों पश्चात् भी विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति के रूप में भारतवर्ष सदैव प्रेरणास्रोत रहा है। कलयुग में भी इन विचारों को मूर्तरूप देने वाली संस्थाओं की दशा पर विमर्श को दिशा देने वाला आलेख। साधुवाद
ReplyDelete