घरेलू हिंंसा यूं ही क्या कम थी कि कोविड-काल ने उसे सुरसा के बदन की तरह बढ़ा दिया

घरेलू हिंंसा यूं ही क्या कम थी कि कोविड-काल ने उसे सुरसा के बदन की तरह बढ़ा दिया

जिन्दगी अपने रफ्तार से दौड़ रही थी और रिश्तों को करीब आने का समय नहीं था। जीवन की जद्दोजहद में लगे थे। अचानक ब्रेक लग गया और सब कुछ थम गया। सब एक साथ घर की चार दिवारी में रहने को बाध्य हो गये। लॉकडाउन में सड़कें सुनसान हो गई पर घर के अन्दर बुराई, लत और आदतों ने भी घर पर ही डेरा जमाया और परिणाम यह निकला कि लगातार साथ रहने पर बातें बढ़कर बहस में बदली, बहस आगे बढ़ी तो हाथापाई की नौबत आ गई और हिंसा में तब्दिल हो गई। इस पर कभी लॉकडाउन नहीं लगा बल्कि छिपे और ढके हुए कई विकारों और प्रवृत्तियों का फ्लड गेट खुल गया। इसका शिकार हुई महिलाएं और उनसे भी ज्यादा शिकार हुए मासूम बच्चे। कोराना के डर से अस्त व्यस्त हुए लोगों को फिर नौकरी के जाने और रोजगार के रास्ते बंद होने और धन का आगमन रुकने के साथ अवसाद और विषाद ने मन पर कब्जा कर लिया। नतीजतन घरेलू हिंसा ने विकराल रूप धारण करना श्ुारू कर दिया। भारत में यह स्थिति अधिक भयावह होने लगी। लगातार आती खबरों ने सबको विचलित कर दिया।


एक प्राइवेट कंपनी में काम करनेवाली सुलोचना (काल्पनिक नाम) है जो 12 साल से विवाहित हैं, दो बच्चों की मां है। शादी के बाद वह लगातार पति की हिंसक प्रवृत्ति की शिकार रही। इस पर महामारी के कहर ने एक तरफ उनके पति की नौकरी छीन ली तो दूसरी तरफ मारपीट का दर्दनाक सिलसिला शुरू हुआ। पति के मुंह से गालियां तो  'सुलोचनाÓ सुनती आई थी मगर घरेलू हिंसा पिछले दो सालों से सुलोचना की जिंदगी का दर्दनाक हिस्सा बन गया है। आज भले कोरोना के कहर के कम होने के बाद चीजें नॉर्मल हो रही हैं, मगर सुलोचना जैसी अनगिनत महिलाएं हैं, जिनके साथ घरेलू हिंसा पीड़ादायक सिलसिला कम होने की बजाये बढ़ता जा रहा है।

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में 73 करोड़ महिलाएं अपने जीवन में कभी न कभी घरेलू हिंसा का शिकार जरूर हुई हैं मगर महामारी में घरेलू हिंसा की घटनाएं बढ़ी। आज ही समाचारपत्रों में पढ़ा कि प्रसिद्ध खिलाड़ी लिएंडर पेज की पूर्व पत्नी रिया ने उनपर घरेलू हिंसा का गंभीर आरोप लगाया था। कोर्ट ने उनपर क्षति पूर्ण करने की सजा दी है। ऐसे आरोप राजनीति नेताओं, खिलाडिय़ों एवं यहां तक पुलिस अधिकारियों पर लगते रहे हैं। नौकरियों का जाना, सोशल नेटवर्क और सपोर्ट सिस्टम का टूटना और सामाजिक रूप से आवाजाही कम होने जैसे कई कारण हैं जिनके चलते डोमेस्टिक वायलेंस में वृद्धि हुई।

सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक और वीमेन पावर कनेक्ट की अध्यक्षा रंजना कुमारी के अनुसार महामारी में महिलाओं की स्थिति बदतर हुई। पति-पत्नी के बीच स्पेस कम होना घरेलू हिंसा का अहम् कारण साबित हुआ। हमारे समाज में मर्दों से डोमिनेट करना सिखाया  गया है, मगर जब उनपर घरेलू जिम्मेदारी शेयर करने की बारी आई  तो झगड़े बढऩे लगे। उसके पुरुषत्व की कुंठा को ठेस लगने लगी। सपोर्ट सिस्टम भी पूरी तरह से ध्वस्त हुआ। पहले वे अपने माता-पिता, पुलिस थाना या काउंसिलिंग जैसी व्यवस्थाओं से मदद ले सकती थीं पर महामारी में यह सब रास्ते भी बंद हो गये। एक और बड़ा कारण ये भी रहा कि नौकरियां जाने एवं स्व रोजगार पर विराम लग जाने से आर्थिक साधन सिकुड़ गये जिससे पैदा हुए तनाव का भड़ांस भी महिलाओं पर निकला।

कोविड-19 में बढ़ती हिंसा का असर बच्चों पर भी पड़ा क्योंकि उनकी माता की प्राथमिकताएं लॉकडाउन काल में बदल गई। अब बच्चों को उनकी माता सहज में उपलब्ध नहीं थी क्योंकि उसके लिये पति और परिवार की गुत्थियों एवं उलझनों को झेलने की मजबूरी सामने थी। घरेलू हिंसा के दौरान माता-पिता के बीच में जो विवाद या झगड़े होते हैं, उनका असर बच्चों की मानसिकता पर पड़े बिना नहीं रहता। कभी कभी तो ये शारीरिक भी हो जाता है। लेकिन ये चीजें बाहर नहीं आ पातीं। बच्चे अपने घर की बातें बाहर नहीं करते हैं। ऐसी परिस्थियां अधिकतर निचली बस्तियों में आमतौर पर देखी जाती हैं। मां-बाप की लड़ाई के बीच में बच्चे पिस जाते हैं। उनपर जो असर पड़ता है उसके परिणामस्वरूप उनमें अपराध प्रवृत्ति पनपती है और कभी  कभी तो उसके चलते वे घर छोड़कर लापता हो जाते हैं एवं किसी गैंग के हिस्से बन जाते हैं।

इस तरह की परिस्थितियां बस्तियों के बच्चे में ही नहीं, हाई सोसाइटी में भी बनती है। बल्कि मीडियम क्लास के लोग इस बात को समझते हैं और वे कंट्रोल करने की कोशिश करते हैं।

यदि आपके बच्चे बड़े हैं तो आप उनसे अपनी बातें साझा कर सकते हैं। अगर बच्चे छोटे हैं तो अपने विवादों से उन्हें दूर रखें। सभी परिस्थितियों में अपने बच्चे की देखभाल से कोई समझौता नहीं करें।

महिलाओं के अधिकार एवं विकास हेतु कई संगठन सक्रिय हैं। उन सबका यही कहना है कि समाज में ऐसा माहौल बनाने की जरूरत है कि महिला विशेषकर पीडि़त नारी यह न समझे कि वह असहाय है एवं कोई भी उसके साथ नहीं है। अक्सर यह बात उनके दिमाग में तब आती है जब उनके पीहर से कोई मदद नहीं मिलती या पीहर वाले यह सीख देते हैं कि बेटी डोली पर जाती है और चार कंधों पर ही लौटती है। यह सोच बहुत ही शर्मनाक है। पीहर वाले बेटी के घरेलू जीवन में हस्तक्षेप नहीं करें किन्तु उसे यह हमेशा भरोसा रहे कि मेरा परिवार मेरे साथ है ताकि वह अन्दर से न टूटे। सामाजिक संस्थाओं की दोहरी जिम्मेवारी है। वे महिलाओं के सशक्तिकरण को बढ़ावा दें दूसरी तरफ महिलाओं के मनोबल को कमजोर न होने दें। पुलिस का बड़ा दायित्व है कि वह महिलाओं को सिर्फ यह मशविरा न देंं कि शांति से रहें बल्कि उसे इस बात के लिये आश्वस्त कर दें कि आवश्यकतानुसार उन्हें मदद करने हेतु पुलिस प्रस्तुत है। अभी तक पुलिस का रवैया बहुत उदासीन रहा है। इसमें बदलाव की जरूरत है।


Comments

  1. इस मुद्दे पर बात करने से अक्सर महिलाएं कतराती हैं लेकिन यह समाज की एक गंभीर समस्या है जिसपर आपने गंभीरता से बात की है। बहुत बार छोटी-छोटी बातों पर भी महिलाएं हिंसा का शिकार होती हैं। मसलन लॉकडाउन के समय एक पत्नी की पिटाई पति ने महज इस कारण कर दी क्योंकि वह लूडो के खेल में पति से जीत गई। यह एक घटना पितृसत्ता की घातक अहंकारी मनोवृत्ति की ओर संकेत करती है। हालांकि हमारा देश उन्नति कर रहा है लेकिन मानसिक परिवर्तन आने में अभी लंबा वक्त लगेगा। पुलिस की उदासीनता तो इस हद तक है कि इसे घर का मामला मान घर में ही निपटा लेने की सलाह देकर वह अपनी जिम्मेदारियों से मचकमु हो लेते हैं। लेकिन स्थितियां बदल रही हैं और आगे और भी बदलेंगी, यह उम्मीद तो हम रख ही सकते हैं।
    साधुवाद, इस महत्वपूर्ण विषय पर कलम चलाने के लिए।

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  3. आदरणीय जी नमस्कार
    बाहरी हिंसा से भीतरी हिंसा बहुत खतरनाक होती है.
    बाहरी हिंसा एक आध घंटे में खत्म भी हो जाती है यदि मंसूबे खतरनाक ना हो लेकिन घरेलू हिंसा रोज रोज मरने के लिए मजबूर करती है जो घाव नासुर बन जाते हैं किन्हीं कारणों से छुपाई जाती है क्योंकि कष्ट झेलने से अधिक मूंह खोलने से पारावारिक एवं सामाजिक ढांचा चर्मरा जाता है.
    बादल का वर्षा करना है ऐसे ही लेखक का निर्भर तो दुसरों पर होता है.

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