राजनीति का अपराधीकरण
भारतीय लोकतंत्र का कैंसर
10 फरवरी को उत्तर प्रदेश की 58 विधानसभा सीटों पर मत डाले गए। वहां से कुल 623 प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा रहे थे। इसमें से 615 उम्मीदवारों के बारे में अधिकृत सूचनाएं मिली हैं। उनसे छन कर आते हुए तथ्यों के अनुसार 156 प्रार्थी यानी करीब एक चौथाई दागी, भ्रष्टाचारी एवं अपराधी हंै। 121 पर तो हत्या, अपहरण, बलात्कार आदि के गंभीर मुकदमे चल रहे हैं। यह मैंने एक टटका उदाहरण दिया है जो हमारे देश में लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती हैं। मिलती-जुलती तस्वीर सभी प्रांतों की है। हर बार सभी राजनीतिक दल अपराधी तत्वों को टिकट न देने पर सैद्धांतिक रूप से सहमति जताते हैं। पर टिकट देने के समय उनकी सारी दलीलें एवं आदर्श की बातें काफूर हो जाती है। कोई भी जन अदालत में जाने एवं जीत को सुनिश्चित करने के लिए जायज - नाजायज सभी तरीके प्रयोग में लाने से नहीं हिचकते। मौजूदा लोकसभा में सर्वाधिक 29 प्रतिशत सदस्यों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जबकि पिछली लोकसभा में यह आंकड़ा तुलनात्मक रूप से कम था। राजनीति का अपराधीकरण भारतीय लोकतंत्र का एक कलंक है जिसके मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय और निर्वाचन आयोग ने कई कदम उठाए हैं। किंतु इस संदर्भ में किए गए सभी नीतिगत प्रयास समस्या को पूर्णत: निपटाने में असफल रहे हैं।
वर्ष 1993 में बोहरा समिति की रिपोर्ट और वर्ष 2002 के कामकाज की समीक्षा करने के लिए राष्ट्रीय आयोग ने पुष्टि की है कि भारतीय राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की संख्या बढ़ रही है। वर्ष 2004 में 128 सांसदों पर आपराधिक मामले चलते थे। 2009 में इनकी संख्या 162, 2014 में 185 जो 2019 में बढ़कर 235 हो गई है। इस दुर्भाग्यजनक स्थिति पर माथा पीटने की भी बजाय उसके कारणों को समझना होगा।
अपराधियों का पैसा और बाहुबल दलों को वोट हासिल करने में मदद करता है जो कि भारत की चुनावी राजनीति अधिकांशत: जाति, उपजाति, धर्म, संप्रदाय जैसे कारकों पर निर्भर करती है जिसे आजकल हम वोट बैंक के नाम से पुकारते हैं। इसलिए उम्मीदवार आपराधिक आरोपों की स्थिति में भी चुनाव जीत जाते हैं। भारतीय न्याय व्यवस्था ने भी राजनीति में अपराधीकरण को बढ़ावा दिया है क्योंकि अपराधों के फैसले कई वर्षों तक लंबित रहते हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो ईमानदार एवं काम करने वाले प्रार्थी होते हैं, वे अक्सर चुनाव हार जाते हैं क्योंकि उन्हें जनसमर्थन नहीं मिलता जबकि धन बल एवं आक्रामक प्रचार तंत्र के माध्यम से दागी प्रार्थी चुनाव में सफल हो जाते हैं। इसमें कुछ अपवाद भी हैं। जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 दोषी राज नेताओं को चुनाव लडऩे से रोकती है। लेकिन ऐसा नेता जिस पर केवल मुकदमा चल रहा है, वह चुनाव लडऩे के लिए स्वतंत्र है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन पर लगा आरोप कितना गंभीर है।
आजादी के अमृत महोत्सव मनाते हुए राजनीति के शुद्धिकरण को लेकर देश के भीतर बहस हो रही है परंतु कभी भी राजनीतिक दलों ने इस दिशा में गंभीर पहल नहीं की। पहल की होती तो संसद और विभिन्न विधानसभाओं में दागी अपराधी सांसदों और विधायकों की तादाद बढ़ती नहीं। यह अच्छी बात है कि देश में चुनाव सुधार की दिशा में सोचने का रुझान बढ़ रहा है। चुनाव आयोग एवं सर्वोच्च न्यायालय इसमें पहल करते हुए दिखाई देते हैं। चुनाव एवं राजनीतिक शुद्धिकरण की यह स्वागत योग्य पहल उस समय हो रही है जब चुनाव आयोग द्वारा पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा का चुनाव शुरू हो गया है।
राजनीतिक दल भी मानो यह मानने लगे हैं कि दागी छवि जीत की गारंटी है। वैसे चुनावों में येन केन प्रकारेण जीत हासिल करना ही पार्टियों का मकसद होता है। इसके लिए वह हर जायज-नाजायज तरीका अपनाने को तैयार रहते हैं जिनसे उनकी मौजूदगी सदन में हो। कुछ जनप्रतिनिधि यह तर्क भी देते हैं कि राजनीति से प्रेरित मुकदमे उनपर जबरन लादे गए हैं। यह कुछ हद तक सही भी है मगर चुनाव आयोग और अदालत दोनों का यह मानना है कि जिन उम्मीदवारों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं उनको तो चुनाव लडऩे से रोका जाना चाहिए।
समय की दीर्घा जुल्मों को नए पंख देती है। यही वजह है कि राजनीति का अपराधीकरण और इस में व्याप्त भ्रष्टाचार लोकतंत्र को भीतर ही भीतर खोखला करता जा रहा है। एक आम आदमी चाहे कि वह चुनाव लड़कर संसद अथवा विधानसभा पहुंचकर देश की इमानदारी से सेवा करे तो यह आज के माहौल में संभव प्रतीत नहीं होता। पूरे कुएं में जहर घुला है। यही कारण है कि सभी पार्टियां के टिकट पर ये दागी चुनाव लड़ रहे हैं। एक समय था जब लोग अपने घर लुटा कर जन सेवा ही तो राजनीति में आते थे। अब हालात है कि गुंडे, चोर, डकैत सभी किसी न किसी पार्टी में जगह बनाने की फेर में है।
अपराधी तत्वों का हस्तक्षेप राजनीति में ही है, यह कहना ठीक नहीं है। ऐसा कौन सा क्षेत्र है जहां पर अपराधी, बाहुबली की तूती नहीं बोलती हो। शिक्षा, न्यायपालिका, व्यापार, उद्योग शायद ही कोई क्षेत्र इन दागदारों से बचा हुआ हो। फिल्मी दुनिया को डॉन चलाते हैं एवं धर्म की आड़ में भी इसी तरह के तत्वों को पोषण मिलता है। भारतीय मीडिया भी कम दोषी नहीं है। इन आपराधिक तत्वों के महिमामंडन में कई टीवी चैनल और अखबार पीछे नहीं रहते। इन दागी लोगों को इस तरह उछाला जाता है मानो समाज के हीरो हों।
आवश्यक है कि राजनीति में अपराधियों की बढ़ती संख्या पर रोक लगाने के लिए कानूनी ढांचे को मजबूत किया जाए। मुकदमों पर शीघ्र फैसला ले लिया जाए। राजनीतिक दलों को अपना नैतिक दायित्व निभाते हुए गंभीर अपराध के दोषी ठहराए गए लोगों को दल में शामिल करने और उन्हें चुनाव लड़ाने से बचना चाहिए।
भारतीय लोकतंत्र को अंदर से खोखला करने वाले राजनीति में रचे - बसे दागियों के विरुद्ध जनमत तैयार करना सबसे अधिक जरूरी है। बहुत से अपराधियों को जनता ने सबक भी सिखाया है। लेकिन अधिकांश अपराध जीवी जनप्रतिनिधि मूंछ पर ताव देकर घूमते नजर आते हैं। उनके पीछे काफिले चलते हैं। पुलिस आकाओं से उनकी मिलीभगत रहती है। सुप्रसिद्ध जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला ने कभी अपनी एक किताब में खुलासा किया था कि भारत में पुलिस सबसे अधिक संगठित अपराधियों का गैंग है।
कवि दुष्यंत की ये पंक्तियां ही मेरी भावना की अभिव्यक्ति है-
हंगामा करना मेरा मकसद नहीं है।
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
Beautiful article
ReplyDeleteअत्यंत सुंदर आलेख | राजनीति में अपराधियों का वर्चसव एक कोढ़ जैसा ह| इन पर नियंत्रण के बिना लोकतंत्र कमजोर होता चला जाएगा|
ReplyDeleteAapki sarahniya koshis ko pranam
ReplyDeleteAaena Andho ko nazar nahi aata
Bhai koi kuch bhi kar lay magar 1 baat such hai ki aaj ki Rajneet may Tassavur bhi nahi kiya ja sakta bina Crime record Kay neta ka
Aisa hua tub jub neta Greedy ho gaye Power Kay