शायद अब हमें नहीं रही जरूरत पर दुनिया को आज भी चाहिये गांधी

 शायद अब हमें नहीं रही जरूरत पर दुनिया को आज भी चाहिये गांधी

महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने कहा था कि सौ साल बाद कोई विश्वास नहीं करेगा कि एक हाड़-मांस का पुतला इस धरती पर आया था, जिसने बिना हिंसा के ऐसे साम्राज्य का अवसान कर दिया जिसके राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता था।

आज महात्मा गांधी की 71वीं पुण्यतिथि है। लेकिन हमारे ही देश में गांधी के विचारों पर प्रश्न उठने लगे हैं। गांधी के नाम पर योजनायें बनती हैं, स्वच्छता अभियान जैसे मुहिम चलाये जा रहे हैं, राजघाट पर बामुलायजा पुष्पांजलि दी जाती है। पर यह कटु सत्य है कि गांधी को हम रस्मी तौर पर याद करते हैं किंतु जिन विचारों के लिए गांधी जी जीये और मरे भी उनको हाशिये पर धकेल दिया जा रहा है। पाकिस्तान का बनना गांधीजी के जीवन काल की सबसे अधिक वेदनापूर्ण घटना थी। हिन्दू, मुसलमान के बीच की खाई जिसे वे पाटना चाहते थे और बढ़ गई और इस सीमा तक बढ़ी कि एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये। पर इस खाई को पाटने की उन्होंने अंतिम सांस तक चेष्टा की। पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के प्रस्ताव का समर्थन किया, यही नहीं उन्होंने पाकिस्तान जाने की योजना बनाई और दो पारसियों को इस कार्य का भार दिया। 6-7 फरवरी 1948 की तारीख भी तय हो गई थी किन्तु इसी बीच गांधी की हत्या कर दी गई।

आज भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव से भी अधिक गहरी समस्या हिन्दू-मुसलमानों के बीच वह गुत्थी है जो सुलझने की बजाय उलझती जा रही है। छोटी-छोटी बात पर इन दो कौमों में फसाद भारतीय जीवन का दुर्भाग्यपूर्ण हिस्सा बन गया है। 

गांधी, भारत का विकास एवं गरीबी का उन्मूलन चाहते थे। इसी के मद्देनजर उन्होंने चरखा कातना शुरू किया। ग्रामीण कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने स्वयं एक पहल की। गांवों से पलायन रुके एवं ग्रामीण अपने यहां ही रोजगार पैदा करें, ऐसी उनकी ख्वाइश थी। गांधीजी पोरबन्दर में पैदा हुए, कुछ समय साबरमती में और बाद में सेवाग्राम (विदर्भ) में रहे। 


गांधी जी के बाद किस प्रकार ग्रामीण उद्यम को बढ़ावा मिले, इसके लिए लिज्जत पापड़ एक आदर्श उदाहरण है। जसवन्ती बेन द्वारा संचालित इस उद्योग में 35 हजार महिलायें लगी हुई हैं। वे पापड़ बेलते हुए लोकगीत भी गाती हैं। लिज्जत पापड़ उद्योग ने महिलाओं की सामाजिक स्थिति में जो परिवर्तन किया है वह स्तुत्य है। इसी प्रकार अमूल उद्योग जिसमें कूरियन ने दुग्ध क्रान्ति की मिसाल रखी एवं गो सेवा का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है। वह उन गो सेवकों में नहीं था जिसके बारे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बरसे थे पर गाय की स्थिति एवं गाय की उपयोगिता की कूरियन ने मिसाल रखी। मुम्बई का डब्बावाला उद्योग भी इसी कड़ी में एक जीता-जागता उदाहरण है। इस तरह शहर एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था का जो ढंाचा गांधी ने तैयार किया था, उसका रूपायन हुआ किन्तु वह महाराष्ट्र एवं गुजरात तक सीमित रह गया। उसके बाद जो गुजरात मॉडल तैयार किया गया जिसका प्रधानमंत्री मोदी कई बार बखान कर चके हैं। उसके परिणामों पर गहरे मतान्तर हैं। सामुदायिक योजना एवं सहकारिता के आधार पर गांव की स्थिति को सुधारने की गांधी परिकल्पना को जहां भी सार्थक किया गया वहां आज भी काया पलट है।

अपनी संस्कृति को बचाये रखने के लिए व्यक्ति को अडिग होना पड़ता है। दक्षिण अफ्रीका में गांधी जब वहां के कोर्ट में गये तो काठियावाड़ी पगड़ी पहने हुए थे। काठियावाड़ी पगड़ी पांच मीटर लम्बी होती है। जज की आपत्ति के बाद भी अपने आत्म सम्मान के लिए वे उसे पहने रहे एवं कोर्ट में जिरह करते रहे। अब हमने समय के साथ सब कुछ बदल दिया और कभी कभी अपनी पगड़ी को ऑन बॉन शान की बात कहकर दो मिनट बाद ही उतार देते हैं और क्या विडम्बना है कि हम संस्कृति के चैम्पियन बनने की ताल ठोकते हैं।

हाल की महामारी ने हमारी आंखों को वास्तविकताओं से परिचित कराया है। शहर और शहरी क्षेत्र, ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक असुरक्षित हैं। हमारा विकास मॉडल मौलिक रूप से कैसे गलत है। इस संदर्भ में, हम गांधी द्वारा प्रस्तावित विकास के विचारों पर फिर से विचार करने के लिए मजबूर हैं। उनका आर्थिक दर्शन स्थिर नहीं, बल्कि जीवंत और व्यापक रहा है। यह तकनीक केंद्रित नहीं है, बल्कि जन केंद्रित है। मु_ी भर शहरों का विकास हमारी आर्थिक समस्याओं को हल नहीं कर सकता है। वास्तव में यह हमारी समस्याओं को और बढ़ाएगा। इसलिए गांधी ने गांवों के आर्थिक विकास पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। बड़े पैमाने पर उत्पादन की बजाय, उन्होंने छोटे पैमाने पर उत्पादन का सुझाव दिया। केंद्रीकृत उद्योगों के बजाय, उन्होंने विकेंद्रीकृत छोटे उद्योगों का सुझाव दिया। बड़े पैमाने पर उत्पादन केवल उत्पाद से संबंधित होता है, जबकि जनता द्वारा उत्पादन का संबंध उत्पाद के साथ-साथ उत्पादकों से भी है और इसमें शामिल प्रक्रिया से भी है। उनका एक आदर्श गांव का सपना था। बड़े पैमाने पर उत्पादन से लोग अपने गांव, अपनी जमीन, अपने शिल्प को छोड़कर कारखानों में काम करने पर मजबूर हो जाते हैं। गरिमामय जिंदगी और एक स्वाभिमानी ग्राम समुदाय के सदस्यों के बजाय, लोग मशीन के चक्रव्यू में फंस कर रह जाते हैं और मालिकों की दया पर जिंदगी गुजर बसर करने लगते हैं। हमने यह भी देखा है कि इस दौरान प्रवासी श्रमिक के साथ कैसा व्यवहार किया गया। कैसा अमानवीय व्यवहार। हमें अपने महानगरों, पुलों और अट्टालिकाओं के निर्माण के लिए उनकी आवश्यकता थी लेकिन अब उनकी आवश्यकता नहीं हैं। उन्होंने हमारे जीवन को आसान बना दिया लेकिन हमने उन्हें क्या दिया। यह विनाशकारी विकासात्मक मॉडल प्रवासी लोगों को बेरोजगार करता है। आज, जब हमारे सार्वजनिक जीवन के साथ-साथ हमारे निजी जीवन में नैतिक मूल्यों का गहरा क्षरण हुआ है और जब नैतिक सिद्धांत राजनीति से लगभग गायब हो गए हैं, तो गांधीवादी मूल्य एक प्रभावी विकल्प के रूप में दिखाई देते हैं। अपने समय में गांधी जी ने न केवल राजनीतिक बल्कि देश को नैतिक नेतृत्व भी प्रदान किया, जो कि अब दुनिया से गायब हो चुका है। जैसा कि मार्टिन लूथर किंग ने सही कहा, गांधी अपरिहार्य थे। अगर मानवता की प्रगति करनी है, तो गांधी अपरिहार्य हैं। उन्होंने शांति और सद्भाव की दुनिया विकसित करने की ओर प्रेरित किया। हम अपने जोखिम पर गांधी की उपेक्षा कर सकते हैं।Ó

आज के तनावपूर्ण विश्व में जहां विनाश के बटन से अंगुलियां कुछ ही दूर पर है: गांधी की विचारधारा ही इस महाकाल से विश्व को बचा सकती है।

Comments

  1. अति से लबालब आलेख, गांधी इंसान थे भगवान नहीं। गलतियां उन्होंने भी की पर भगवान मान कर गलतियों को उल्लेखित न करना हम चाटुकारिता मानते हैं।

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  2. गांधी शब्द एवं विचार धारा दोनों अग्निपरीक्षा से गुजर रहें हैं. राजनीतिक दलों द्वारा अलग अलग व्याख्या की जाती है लेकिन गांधीजी की विचारधारा से कोई अलग भी नहीं होना चाहता.
    शीर्षक के अनुसार भले ही भारत मतभेद हो लेकिन विश्व में गांधी जी आज भी प्रासांगिक है. लोकतंत्र में सब कुछ जायज है इसलिए सामयिक विमर्श आवश्यक भी है

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  3. भारत अन्य देशों की अपेक्षा कम अशांत है. यहाँ वर्तमान संप्रदायों के बीच सहनशीलता और उदारता की आवश्यकता है..

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  4. बहुत सुँदर एवं मार्मिक

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  5. गांधी आज भी खरे

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