गांधी जी राष्ट्रपिता थे तो
सुभाष बाबू थे 'राष्ट्र नायक'
सुभाष चंद्र बोस राष्ट्र के ऐसे नायक (हीरो) हैं जिनकी मृत्यु पर विवाद है, किंतु वे हीरो के रूप में आज भी हर भारतवासी के हृदय में जिंदा है। सुभाष का स्थान अभी तक किसी ने नहीं लिया और शायद कोई दूसरा ले भी नहीं सकता। देश की आजादी के संघर्ष में कई तरह के पड़ाव आए। भगत सिंह फांसी पर चढ़ाए गए और शहीद-ए-आजम कहलाए। देश के युवाओं का आइकॉन हैं भगत सिंह। फूलों की सेज छोड़कर जवाहर लाल स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। लाला लाजपत राय को ब्रिटिश पुलिस ने इतनी बेरहमी से पीटा कि बाद में उनकी मृत्यु हो गई। महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश में अहिंसक जन आंदोलन हुआ। गांधी जी ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने देश के आम आदमी को अपने साथ लिया। गांधी बाबा आगे और देश का किसान, मजदूर, दुकानदार उनके पीछे। स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास में गांधी अकेले ही नहीं हैं पर देश के आवाम को आजादी के संघर्ष में जोडऩे की जो तरकीब गांधी में थी, वह और किसी में नहीं। अहिंसा से ही तोप का मुकाबला किया जा सकता है - यह प्रमाणित किया गांधी ने इसलिए उन्हें राष्ट्रपिता और महात्मा जैसे सम्मान से विभूषित किया गया।
नेताजी एक युवा सोच लेकर राजनीति में आए थे जिससे वह यूथ आइकॉन के रूप में चर्चित हो रहे थे। 1928 में गुवाहाटी में कांग्रेस की एक बैठक के दौरान नए व पुराने सदस्यों के बीच दृष्टि को लेकर मतभेद उत्पन्न हुआ। नेताजी सुभाष और गांधी जी के विचार बिल्कुल भिन्न थे। नेताजी, गांधीजी के अहिंसावादी विचारधारा से सहमत नहीं थे। उनकी सोच आक्रमक नौजवान वाली थी, जिन्हें हिंसा से परहेज नहीं था। दोनों की विचारधारा अलग थी, लेकिन मकसद एक था। दोनों ही भारत की आजादी जल्द से जल्द चाहते थे। 1939 में नेताजी राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए खड़े हुए। इनके खिलाफ गांधी जी ने पट्टाभि सीतारामैय्या को खड़ा किया था। गांधीजी ने ना सिर्फ सीतारामैय्या का समर्थन किया बल्कि यहां तक कह दिया कि पट्टाभि की हार मेरी हार होगी। इसके बावजूद पट्टाभि हार गए। सुभाष चंद्र बोस को मिली सफलता ने कांग्रेस के अंदर हड़कंप मचा दिया। गांधी जी के समर्थन से कांग्रेस अध्यक्ष पद हेतु चुनाव लडऩे वाला व्यक्ति हार जाए, यह उस वक्त किसी ने सोचा भी नहीं था। गांधीजी भी इस हार से दुखी हुए। नेताजी को जब यह पता चला कि गांधीजी पट्टाभि की हार से बहुत क्षुब्ध हैं तो उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। विचारों का मेल ना होने की वजह से नेताजी लोगों की नजर में गांधी विरोधी होते जा रहे थे। सुभाष बाबू ने अनुभव किया कि प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण उनका कांग्रेस अध्यक्ष पद पर रहना बेमतलब है। अत: उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। लोकतंत्र और क्रांति का प्रतीक बनाने के लिए मई 1939 में कांग्रेस के भीतर फॉरवर्ड ब्लॉक बनाने की घोषणा की। फॉरवर्ड ब्लॉक के प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन मुंबई में पूर्ण स्वतंत्रता और तत्पश्चात समाजवादी राज्य की स्थापना का उद्देश्य स्वीकार किया गया। 1939 अक्टूबर में ही नेताजी ने नागपुर में साम्राज्यवाद विरोधी सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें उन्होंने कांग्रेस तथा संपूर्ण राष्ट्र को साम्राज्य विरोधी शक्तियों के संगठन का तथा साम्राजवादियों के अस्तित्व के उन्मूलन के संकल्प का स्मरण दिलाया।
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था। तब नेताजी ने वहां अपना रुख किया है, वे पूरी दुनिया से मदद लेना चाहते थे ताकि अंग्रेजों को ऊपर से दबाव पड़े और वे देश छोड़कर चले जाएं। इसके बाद ही ब्रिटिश सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया। उन्होंने जेल में ही आमरण अनशन शुरू कर दिया। उनके शारीरिक हालत में गिरावट के बात फैल गई और देश का नौजवान उग्र हो गया। तब ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कोलकाता में नजरबंद कर रखा था। इस दौरान 1941 में अपने भतीजे शिशिर की मदद से वहां से भागकर पेशावर जा पहुंचे। इसके बाद सोवियत संघ होते हुए जर्मनी गए जहां तत्कालीन शासक एडोल्फ हिटलर से मिले। उन्हें पता था कि हिटलर और पूरा जर्मनी का दुश्मन इंग्लैंड था। ब्रिटिश सरकार से बदला लेने के लिए नेताजी ने चाणक्य नीति अपनाई जिसके अंतर्गत ''दुश्मन का दुश्मन दोस्तÓÓ बनाना उचित लगा। इसी दौरान सुभाष चंद्र ने ऑस्ट्रिया की एमिली से शादी कर ली थी जिसके साथ में बर्लिन में रहे (कुछ लोगों का कहना है कि उन्होंने महिला मित्र से औपचारिक विवाह नहीं किया था)। उनकी एक बेटी भी हुई-अनिता बोस। नेताजी इंग्लैंड भी गए जहां ब्रिटिश लेबर पार्टी के अध्यक्ष व अन्य नेताओं से मिले। ब्रिटिश सरकार को उन्होंने बहुत हद तक भारत छोडऩे के लिए मना भी लिया था।
इसके बाद 1945 में जापान जाते समय नेताजी का विमान ताइवान में क्रैश हो गया, लेकिन उनकी बॉडी नहीं मिली थी। कुछ समय बाद उन्हें मृत घोषित कर दिया गया था। भारत सरकार ने दुर्घटना पर बहुत सी जांच कमेटियां बैठाई लेकिन आज भी इस बात की औपचारिक पुष्टि नहीं हुई।
हमारे देश में कुछ लोग व राजनीतिक पार्टियां, सुभाष, बाबू और गांधीजी के मतभेद की चर्चा करते हैं। प्राय: इनमे भाव गांधीजी को नीचा दिखाने का रहता है। लेकिन उन्हें नहीं मालूम कि गांधीजी और सुभाष हमारे देश में स्वतंत्रता संग्राम के दो पहियों की तरह है जो अलग तो हैं किंतु उन दोनों के चले बिना स्वतंत्रता के संघर्ष के इतिहास की गाड़ी आगे नहीं बढ़ती। ऐसे लोगों को नहीं मालूम कि नेताजी ने ही महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कह कर संबोधित किया था। यही नहीं नेताजी ने जब आईएनए का गठन किया, उसमें बनाई गई ब्रिगेड में एक का नाम 'गांधी ब्रिगेडÓ था। दो अलग विचारधाराओं के बावजूद भारत के स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी और सुभाष में किसी के महत्व को कम आंका जाना बचकानी एक पहल होगी।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस सर्वकालीन नेता थे जिनकी जरूरत कल थी, आज है और आने वाले कल में भी होगी। वह ऐसे वीर सैनिक थे, इतिहास जिनकी गाथा गाता रहेगा। सुभाष स्वतंत्रता समर के अमर सेनानी, मां भारती के सच्चे सपूत थे। नेताजी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के उन योद्धाओं में एक थे जिनका नाम आज भी करोड़ों देशवासियों को मातृभूमि के लिए समर्पित होकर कार्य करने की प्रेरणा देता है। नेताजी मतभेद होने के बावजूद अपने साथियों का मान सम्मान रखते थे। उनकी व्यापक सोच आज की राजनीति का मार्ग दर्शक बन सकती है।
नेताजी पर बनी एक फिल्म की है ये लाइनें मुझे बेहद भावुक बना देती है।
एक दिन वह खो गया,
हमसे जुदा हो गया।
क्या महल क्या झोंपड़ी,
सबकी आंखें रो पड़ी।
सुनो रे बहन भाई सुनो
सुनो रे जवान
यह सुभाष की कथा।
किसी के रहने अथवा कहने से नहीं बल्कि नेताजी शुभाष चंद्र बोस वास्तव में राष्टनायक थे यदि जिंदा अथवा भारत में उपस्थित होते तो अलग ही अंदाज में देश का बंटवारा होता.नमन
ReplyDeleteWonderful article. Someone said that "Everyone pretends to be neta but neta is only one person, Netaji" His contribution in indian freedom struggle is unconditional and nobody can fulfill his contribution with any means. Jai Hind 🇮🇳
ReplyDeleteThanks for sharing this article!
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