कभी घर-घर की शान समझे जाने वाले डायरी-कैलेण्डर अब इतिहास के पन्नों में सिमट रहे हैं
नया साल और कैलेण्डर एक ही सिक्के के दो पहलू रहे हैं। भले ही यह अंग्रेजी का नया साल हो पर तमाम दुनिया ने नये वर्ष के रूप में 1 जनवरी को ही मान लिया गया है। आपको बता दें कि हमारे देश में प्रांत और धर्मों के अनुसार हर कोई नया साल मनाता है। पंजाब के लोग 13 अप्रैल को बैसाखी के रूप में अपना नया साल मनाते हैं, जबकि बंगाली पोइला बैसाख 15 अप्रैल को नववर्ष मनाता है। इसके अलावा सिख धर्म को मानने वाले इसे नानकशाही कैलेण्डर के अनुसार मार्च में होली के दूसरे दिन अपना नया साल मानते हैं। जैन धर्म को मानने वाले लोग दिवाली के दूसरे दिन नया साल मानते हैं।
नये साल की शुरुआत पूरी दुनिया में पारंपरिक ग्रिगेरियन कैलेण्डर के अनुसार मानी जाती है। 1 जनवरी को नये साल के रूप में मनाने की शुरुआत 15 अक्टूबर 1582 में हुई थी। इस कैलेण्डर की शुरुआत करने वाले लोग ईसाई थे। इससे पहले पूरी दुनिया रूस का जूलियन कैलेण्डर फॉलो करती थी। इस कैलेण्डर में केवल 10 ही महीने थे। इस कैलेण्डर में क्रिसमस डे के दिन ही नये साल की शुरूुआत होती थी। इसके बाद अमेरिका के नेपल्स के फिजिशियन एलॉयसिस लिलिअस ने एक बेहद नया कैलेण्डर दुनिया के सामने पेश किया। यह ग्रिगोरियन कैलेण्डर था जिसमें 1 जनवरी को साल का पहला दिन माना गया। इसके बाद से ही पूरी दुनिया में 1 जनवरी को नया साल मनाने की प्रथा चली आ रही है।
कोई भी कैलेण्डर सूर्य चक्र या चंद्रमा चक्र की गणना पर आधारित होता है। सूर्य चक्र पर आधारित कैलेण्डर में 365 दिन होते हैं जबकि चन्द्रमा चक्र पर आधारित कैलेण्डर में 354 दिन होते हैं। ग्रिगोरियन कैलेण्डर सूर्य चक्र पर आधारित है। इस कैलेण्डर में हर महीने में बराबर दिन भी नहीं है। 4 महीनों में 30 और 6 महीनों में 31 तथा 1 महीने में 28 दिन होते हैं। हर 4 वर्ष में लीप ईयर आता है जिसमें फरवरी में 28 दिन के स्थान पर 29 दिन होते हैं।
जिस तरह नये साल के क्षेत्रीय इतिहास समय के साथ-साथ लुप्त हो रहे हैं वैसे ही नये साल पर अभिन्न समझे जाने वाले डायरी-कैलेण्डर का इतिहास भी अब ओझल होने के कगार पर है। मोबाइल फोन के विविध आयामों ने न सिर्फ दुनिया को मु_ी में कर लिया बल्कि कई पुरानी आवश्यकताओं से लोगों को मुक्त कर दिया है। हमारी दीवारों पर देवी-देवताओं के चित्र हो न हो एक कैलेण्डर तो होता ही था। अच्छी प्राकृतिक ²श्यों वाले चित्रों के साथ हर महीने की तारीखों वाले दो-तीन कैलेण्डर लटके रहते थे। कुछ गृहणियां इन कैलेण्डरों की तारीख पर दूध वाले का हिसाब लिख लेती थी। कैलेण्डरों पर छपी तारीखों को काटकर किताबों या दस्तावेजों के क्रमांक लगाने का काम लिया जाता था। जिसकी जो जरूरत हो कैलेण्डर उस काम आते थे। कैलेण्डर के लिये मारा-मारी हुआ करती थी। किसी को उपकृत करने के लिये कैलेण्डर भेजे जाते थे। वर्ष के अंत होने के पहले कैलेण्डर भेजने वालों से प्रेमपूर्वक सम्बन्ध बना लिये जाते थे ताकि दो-एक कैलेण्डर लेने में सुगमता हो। यही हाल डायरी का था। हर कोई न तो डायरी देता था न डायरी हर किसी को दी जाती थी। पर डायरी रखना एक हैसियत का प्रतीक था। बड़ी डायरियां, बड़े कहलाने का अधिकार देती थी। किसी बड़े ओहदे वालों के पास नये साल की डायरी या कैलेण्डर देने वाले लोगों का तांता लगा रहता था। जाहिर है वे फिर उन डायरी-कैलेण्डर दूसरों को देकर उन्हें उपकृत करते थे। नये साल के शुरू के कुछ दिन डायरी-कैलेण्डर लेने-देने में बीत जाते थे। कई लोग छिपा कर रखते थे कि कोई मांग न ले। बड़े प्रतिष्ठानों के वे अधिकारी जिनके पास कमाई करवाने के साधन थे, उनके पास डायरियों एवं कैलेण्डर देने वालों की लाईन देखी जाती थी।
विगत पांच वर्षों से नये साल की रुमानियत डायरी-कैलेण्डरों के अभाव में कम होती जा रही है। सन् 2015 में महंगाई और आमदनी पर ग्रहण लगना शुरू हो गया था। इस बदहाली की पहली गाज डायरी-कैलेण्डर की पूर्ति पर पड़ी। लोगों ने पहली कटौती इन दो जिनसों पर की। जहां दीवारों पर दो-तीन कैलेण्डर तैनात रहते थे उनकी संख्या एक पर आ गयी। डायरी कुछ लोगों को मिलती थी, कुछ को नहीं भी मिलती थी। अच्छी और मोटी डायरियों की संख्या कम हो गयी। वन डे वन पेज की जगह वन पेज टू डेज की डायरियों का प्रचलन तेज हो गया। यानि नये वर्ष के इन उपहारों को महंगाई सांप सूंघ गयी। फिर हर वर्ष इस बदहाली का आलम बढ़ता गया। महंगाई सुरसा के बदन की तरह बढ़ती गयी तो जाहिर है नये साल के रंग-बिरंगे कैलेण्डर और डायरियों की आमद सिकुड़ती चली गयी।
कागज बाजार के कुछ व्यापारियों से बात हुई तो उन्होंने भी इस बदहाली पर अपने आंसू बहाये। एक बड़े पेपर डीलर ने बताया कि सितम्बर-अक्टूबर में डायरियों के लिए पेपर की मांग तुंग पर होती थी। डायरियों के लिये मैपलिथो पेपर (अच्छे किस्म का सफेद कागज) की मांग जो 2013-14-15 तक सिर्फ कलकत्ता में एक सौ टन से अधिक होता था वह अब घट कर 8-10 टन से अधिक नहीं है। चार बड़े प्रतिष्ठानों से हमने बात की। इनमें एक ने तो डायरी छपानी बन्द कर दी और शेष तीन ने डायरियों का प्रचलन एक चौथाई कर दिया। पंखा बनाने वाली एक बड़ी कम्पनी प्रति वर्ष बीस हजार डायरियां छपाती थी जिसकी संख्या अब चार हजार मात्र है। कैलेण्डर दो वर्ष से नहीं छप रहा है। यही स्थिति उन प्रतिष्ठानों की है जो उपभोक्ता सामग्रियों का उत्पादन करते हैं।
कैलेण्डर-डायरी के अर्थशास्त्र में मची इस घनघोर मंदी में स्मार्ट मोबाइल ने बड़ी भूमिका निभायी है। अब मोबाइल पर सभी काम हो जाते हैं जिनके लिये पहले डायरी जरूरी होती थी। आपको कुछ भी सनद करना हो मोबाइल की सेवायें उपलब्ध हैं। हजारों फोन नम्बर आप एक मोबाइल पर सुरक्षित रख सकते हैं। आप आका से कुछ भी मांगिये, अलाउद्दीन के चिराग की तरह सब कुछ हाजिर है। फिर आप डायरियों के लिये किसी के आगे हाथ क्यों फैलायें?
इस युग में बड़े परिवर्तन हमने देखे हैं और। डायरी-कैलेण्डर से विरक्ति इस परिवर्तन के शिखर पर है। यही स्थिति रही तो हम इनका इतिहास ही पढ़ेंगे, ठीक वैसे ही जैसे रुपये आना पाई अब इतिहास के पन्नों में सिमट गये हैं। उनके अब हम चित्र ही देख सकते हैं या फिर किसी अजायबघर में उनका दिग्दर्शन हो सकता है। अगर ऐसी पराकाष्ठा न भी हो तो डायरी-कैलेण्डर अब सिकुड़ते-सिकुड़ते कुछ घरों में सिमट जायेंगे। आपकी दीवारें कुछ चुपचुप नजर आ रही होंगी। अब यह खामोशी आपको जरूर खलेगी।
लेकिन गांवों में अभी भी प्रासंगिकता बकरार है.डायरी कलेण्डर तथा बहुत से कार्यालय में काम आने वाले यंत्र सब मोबाइल फोन में आने से मेज सुनी सुनी लगती हैं.
ReplyDeleteबिशंभरजी
ReplyDeleteसटीक चिंतन है पर एक जगह आपने लिखा है कि चार महीने ३० दिन के छः महीने ३१ दिन के और एक महीना २८ दिन का । इसमें भूल सुधार करियेगा सात महीने ३१ दिन के होते हैं
It is true that the young generation sees no value in a calendar or diary. Most of them will not be seen wearing a watch too.
ReplyDeleteCalendars and diaries provide a subtle bonding with the sender throughout the year... But as they say... "The only thing constant in life is change. "
इतना विशाल परिवर्तन जो पिछले दस वर्षो में देखा जा रहा है,कल्पना से परे है।जो केवल हमारी पीढ़ी ही अधिक महसूस कर रही है ।
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