जिन्दगी के मेले दुनिया में कम न होंगे, अफसोस हम न होंगे
हमारा देश उत्सवों का देश है। त्यौहारों का देश है। हमारी सभी धार्मिक मान्यताओं के पीछे कोई कहानी है, कोई घटना है। वह हमारी स्मृति में रहे न रहे पर हम उसे मानते हैं उल्लास और उमंग के साथ। गरीबी और अभाव के बावजूद भारत के सभी नागरिक इन त्यौहारों में रम जाते हैं। उत्सवों को मनाना भारतवासी की घुट्टी में है। इसपर अंकुश लगाना प्रशासन के लिये बहुत मुश्किल का काम होता है, क्योंकि भारतवासी अपनी सांस्कृतिक विरासत के साथ कोई छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करते। शहरों में रहने वाले या कुछ शिक्षित लोग संयम भले ही बरतें पर ग्रामीण अपनी उत्सव धर्मिता पर किसी तरह की पाबंदियों को नहीं मानता है।
नववर्ष का कोलकाता में जश्न मनाते लोगों के चेहरे पर न मास्क है न दूरी।
दो वर्षों से अधिक समय भारत का लोक मानस बड़ी ही पीड़ा से गुजर रहा है। सिर्फ मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरिजाघर ही बन्द नहीं है, शादी-विवाह, ''बारह बहनों के तेरह त्यौहारोंÓÓ पर भी कोविड का ऐसा श्राप लगा कि हमारे करोड़ों भाई-बहन खुली हवा में सांस भी नहीं ले पा रहेहैं। कई लोगों को आश्चर्य है -''बंद हैं मन्दिर-मस्जिद, खुली हुई हैं मधुशाला, यह कैसी मजबूरी है, सोच रहा ऊपर वाला।ÓÓ यह भी एक विडम्बना है कि सरकारों ने लोगों के आस्था केन्द्रों को बंद करवा दिया था पर मौत के कुएं बाजब्ता खोल रखे हैं।
अब महामारी की तीसरी लहर ने धड़धड़ा कर हमारे जीवन को अस्त व्यस्त कर दिया है। पिछले कुछ दिनों में यह महामारी बड़ा उग्र रूप ले रही है। भारत ही नहीं पूरी दुनिया में इसने अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू कर दिया है। फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, ग्रीस, इटली और सायप्रस जैसे देशों में कोरोना डेल्टा और ओमीक्रोन के रोज नये लाखों मरीज पैदा हो रहे हैं। यह राहत की बात है कि मृत्यु संख्या अभी बहुत कम है, पहले जैसी नहीं है लेकिन इन देशों के कई शहरों में मरीजों के लिए बिस्तर कम पड़ रहे हैं। अमेरिका दुनिया का सबसे समृद्ध राष्ट्र है एवं वहां की स्वास्थ्य व्यवस्था विश्व की सबसे बेहतरीन मानी जाती है। अमेरिका में भी हर दिन हजारों मरीजों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ रहा है। भारत में तुलनात्मक मामले काफी कम हैं पर यह संख्या कब बढ़ जायेगी, कहना मुश्किल है। प्रशासन पूरी तैयारी कर रहा है कि इस नयी चुनौती का मुकाबला किया जा सके, स्वास्थ्य कर्मी भी कमर कस कर तैयार हैं। बंगाल में प्रतिदिन तीन हजार का आंकड़ा छू लिया है। दिल्ली राजधानी समेत देश के कई शहरों में मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। लेकिन नववर्ष के स्वागत में लोग इस खतरे को भुलाकर जश्न में डूब रहे हैं। कई जगह पार्टियां रद्द की गयी हैं पर अमधिकांश लोग शादी-ब्याह, सामाजिक पार्टियां धड़ल्ले से कर रहे हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जब किसी होटल या हॉल में पारिवारिक पार्टियां हुई एवं दूसरे दिन सैकड़ों कोरोना पॉजिटिव पाये गये। पूरे परिवार में सबको बीमारी ने लपेट लिया। रोज अखबारों में समाचार प्रकाशित होते हैं। टीवी एवं सोशल मीडिया पर भी कोरोना का ही चर्चा है। फिर भी लोग बेखबर हैं। पिछले लगभग दो वर्षों से लोग घरों में कैद है। गत 25 दिसम्बर को क्रिसमस पर कोलकाता में भी कई रमणीय स्थलों पर भारी भीड़ देखी गयी। किसी के मुंह पर मास्क नहीं था। यह महामारी फैली तो हम यूरोप-अमेरिका को भी पीछे छोड़ देंगे। पश्चिम बंगाल में कई नगर निकायों के चुनाव घोषित हो गये हैं। कितनी भीड़ जुटती है यही जनसभा की सफलता का मापदंड होता है, भले ही वह वोटों में तब्दील न हो। चुनाव जनतंत्र में जरूरी है तो चुनाव आयोग को चाहिये कि वे चुनाव सभाओं पर रोक लगा दे। फिर भी चुनाव हो सकते हैं। आखिर पांच साल जो काम किये हैं उसी के आधार पर ही तो लोग वोट देंगे। पर आजकल चुनावी भाषण में वोटरों को लुभाने के लिये घोषणाओं एवं उपहारों की बौछार की जाती है और फिर उनसे ताली बजवायी जाती है ताकि वोटर के दिल-दिमाग में घोषणाओं की छाप पत्थर पर लकीर की तरह पड़ जाये। कुछ धार्मिक मेलों को राज्य सरकार इसलिये रोक नहीं पाती क्योंकि उनको रोकने से धर्म परायण जनता सरकार के खिलाफ हो जायेगी जिसका बुरा असर चुनाव पर पड़ेगा। हमारे देश में व्यवसाय वृद्धि एवं मुनाफाखोरी के लिये जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया जाता है। अब टेस्टिंग किट बाजार में नहीं है। कुछ औषधियां भी महामारी के फैलते ही गायब हो जायेगी। एक तो दवाइयां ऐसे भी इतनी महंगी है कि साधारण लोगों के बूते के बाहर है। इस पर अभाव में मनमानी कीमत में दवाइयां, ऑक्सीजन एवं बीमार लोगों की सुश्रुषा हेतु आवश्यक उपकरण एवं सामान मुंह मांगे दामों में बेचे जायेंगे।
खैर, इस महामारी का हमें बड़े धैर्य एवं पिछले दो वर्षों के अनुभव के आधार पर मुकाबला करना है। ऐसी विषम परिस्थिति में लोगों में सहयोग की भावना नितान्त आवश्यक है। आत्मकेन्द्रित होकर हम न तो समाज का भला करते हैं और न ही अपना। पड़ोस में कोई बीमारी से आक्रान्त हो तो कृपया अपना दरवाजा बन्द न करें। उसकी मदद करें। मास्क पहनकर एवं थोड़ी दूरी बनाकर यथाशक्ति मदद करना हमारा न्यूनतम कर्तव्य है। राष्ट्र प्रेम सीमा पर जवान का एकाधिकार नहीं है। न ही उसके अकेले की जिम्मेवारी है। जवान सीने पर गोली झेलता रहे, देश की खातिर और हम विषम परिस्थिति में कोविड से आक्रान्त लोगों की मदद भी नहीं करें। उत्सव, मेले के प्रति हमारी दुर्बलता एवं आसक्ति को नियंत्रित करना समय की आवश्यकता है। जीवन ही नहीं रहेगा तो उत्सव, खुशियों का आलम का क्या फायदा। एक पुरानी फिल्म का गाना इस पर याद आया- ''ये जिन्दगी के मेले, दुनिया में कम न होंगे, अफसोस हम न होंगे।ÓÓ
जिंदगी में मजे बहुत है हरगिज़ कम ना होंगे
ReplyDeleteदुनिया यही रहेगी , अफसोस हम ना होंगे