दुर्गापूजा - कला, मानव संसाधन का उद्भुत संगम

 यूनेस्को की सांस्कृतिक विरासत

दुर्गापूजा - कला, मानव संसाधन का उद्भुत संगम


बंगाल और दुर्गापूजा एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह हैं। दुर्गापूजा के बिना बंगाल या बंगाली का जिक्र अधूरा है। दुर्गापूजा के नेपथ्य में धार्मिक मान्यताएं हैं, कई कथायें प्रचलित हैं किन्तु इस त्योहार को धर्म की सीमा में बांधना उचित नहीं होगा। धार्मिक परिधियों को पारकर इस त्योंहार की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं आर्थिक अहमियत भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।


दुर्गापूजा के बारे में जो सबसे अधिक प्रचलित एवं प्रसारित मान्यता है वह दिलचस्प तो है ही महत्वपूर्ण वैचारिक संदेश भी है। ब्रह्माजी ने असुर महिषासुर को यह वरदान दिया था कि कोई भी देवता या दानव उसपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। वरदान पाकर वह स्वर्ग लोक में देवताओं को परेशान करने लगा और पृथ्वी पर भी आतंक मचने लगा। उसने स्वर्ग में एक बार अचानक आक्रमण कर दिया और इन्द्र को परास्त कर स्वर्ग पर कब्जा कर लिया था। सभी देवता परेशान होकर त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास सहायता के लिए पहुंचे। देवताओं ने मिलकर उसे परास्त करने के लिए युद्ध किया परंतु वह हार गये। कोई रास्ता नहीं दिखने पर देवताओं ने उसके विनाश हेतु एक देवी का सृजन किया जिसे दुर्गा के नाम से जाना गया। यानि दुर्गा को कई शक्तियों ने मिलकर बनाया। उस दुर्गा ने नौ दिनों तक युद्ध किया और दसवें दिन उसका वध किया। इसी उपलक्ष्य में हिन्दू दुर्गा पूजा का त्योहार मनाते हैं एवं दसवें दिन को विजयादशमी के नाम सेे जाना जाता है। इसे बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में भी मनाया जाता है जिसमें किसी धर्म या जाति विशेष का बोध नहीं होता बल्कि यह मानव मात्र को प्रेरित करता है। भारत की स्वतंत्रता का संग्राम भी यही संदेश देता है जहां सब ने मिलकर उस असुर शक्ति का मर्दन किया जिसने भारत को दौ सो वर्षों तक गुलाम रखा। लगभग यही इतिहास दुनिया के कई देशों का है जहां विदेशी ताकतों से देशों को मुक्ति मिली।

युनेस्को की अंतर-सरकारी समिति ने हाल ही में कोलकाता की दुर्गापूजा को 'मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासतÓ की सूची में शामिल किया है। कोलकाता और बंगाल की रचनात्मकता एवं कलात्मक हुनर जिस तरह से इस परंपरा को जीवन्त स्वरूप देती है, वह अद्वितीय है। यह समाज के हर तबके के साथ-साथ महिलाओं की विशेष भागीदारी से पूर्ण अमूर्त विरासत है, जिसमें निरंतर नयापन और बदलाव भी दिखता है।

इस महान पर्व का मानवीय पक्ष, सांस्कृतिक पक्ष भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। दुर्गा की प्रतिमायें मशीनों से नहीं बनती। बंगाल के मूर्ति शिल्पकार अपने परिवार के साथ इसके निर्माण में जुटा रहता है। दो हाथ से मां दुर्गा के दस हाथ बनाये जाते हैं। गंगा की मिट्टी से देवी की जीवन्त प्रतिमा तैयार की जाती है। अंतोतगत्वा जो मूर्तियां तैयार होती हैं उसे देखने लाखों की भीड़ उमड़ती है। बंगाल में दस दिन तक जो मेला होता है वह अपूर्व हे। मूर्ति बनने में कई तरह के सामान लगते हैें। बांस, पुआल, भूसा और पुनिया मिट्टी की आवश्यकता होती है। गाय का गोबर, गाय का मूत्र और वेश्यालय की मिट्टी का मिश्रण होता है। सबसे पहले बांस की पतली-पतली छड़ी को एक निश्चित आकार दिया जाता है। बांस से बनी संरचना में पुआल और भूसा भरा जाता है ताकि शारीािक आकृति को पारंभिक रूप दिया जा सके। देवी प्रतिमा को मजबूत बनाने के लिए भूसा मिली मिट्टी की गई परतें चढ़ाई जाती है। सबसे अधिक जटिल काम होता है- मुखाकृति बनाना। मूर्ति के सिर को अलग से तैयार किया जाता है। मुखाकृति की भाव भंगिमा को बड़ी बारीकी से उकेरा जाता है क्योंकि दर्शनार्थियों के लिए यही सबसे बड़ा आकर्षण होता है। यह कलाकार के निपुण एवं सिद्धहस्त होने का प्रमाण भी होता है। प्रतिमा को धूप में सुखाया जाता है।

मैं उस कुम्हारटोली का पड़ोसी हंू जहां शिल्पी मूर्ति गढ़ते हैं। धूप में मूर्तियां रखी जाती है, सूर्य की धूप से सुखाने के लिए। दुर्गापूजा के पहले बारिश का मौसम रहता है जो मूर्तियों को सुखाने में सबसे बड़ी बाधा है। सूखने के बाद इसे चटख रंग में रंगने का काम शुरू होता है। देवी को पूजा पंडाल पहुंचाने के पहले उन्हें चटख रंग की साड़ी और गहने व फूल मालाओं से सुसज्जित किया जाता है। देवी के साथ गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी सरस्वती की प्रतिमा भी होती है।

इस तरह दुर्गापूजा पर केन्द्रित मूर्तियां मानवीय कला का अद्भुत नमूना है। मिट्टी से लेकर रंगों का बेहतरीन तालमेल और मानव संसाधन द्वारा तैयार की गई देवी प्रतिमा की भाव भंगिमा महिशासुर मर्दनी को जीवन्त प्रस्तुत करती है। कला की प्रस्तुति विश्व में अपनी तरह की बेजोड़ है।

युनेस्को के अनुसार सांस्कृतिक विरासत केवल स्मारकों और वस्तुओं का संग्रह भर नहीं है बल्कि इसमें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली परंपराएं या जीवित भावाभिव्यतियां शामिल होती हैं जिन्हें हम भावी पीढ़ी को हस्तांतरित करते हैं। युनेस्को का मानना है कि अमूर्त सांस्कृतिक विरासत, पारंपरिक समकालीन और जीवन्त होने के साथ ही एक ही समय में समावेशी, प्रतिनिधि और समुदाय आधारित होती है।

हजारों मूर्तिकार एवं उनके सहयोगियों का पूरा जीवन इस दुर्गापूजा को आहूत हो जाता है। इसमें धार्मिक, सांस्कृतिक पक्ष जिनका वैभावशाली है इसका मानवीय पक्ष भी समान रूप से समाहित है।

यह दिलचस्प और विलक्षण है कि वैश्यालय की मिट्टी भी लगती है जो संवेदनशील पक्ष को उजागर करता है। मिट्टी से बनकर भगवान गढ़े जाते हैं एवं लाखों-करोड़ों धर्मानुरागी दर्शनलाभ करते हैं तो उतनी ही संख्या में शिल्पी एवं कलात्मक बौद्धिक पंूजी का निवेश होता है। मजे की बात है पूजा पंडाल के बाहर कम्युनिस्ट पार्टी की वे किताबें भी धड़ल्ले से बिकती हैं जो ईश्वरीय अवधारणाओं को सैद्धांतिक रूप से खारिज करती है।

Comments

  1. देश की सांस्कृतिक विरासत के प्रतीकात्मक तौर पर बंगभूमि की विश्वविख्यात दुर्गापूजा पर आपका आलेख न केवल ज्ञानवर्द्धक है बल्कि संग्रहणीय है।सादर बधाई।

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  2. हमारे बराकघाटी में तथा हमारे पङोसी राज्य त्रिपुरा में भी बहुत जोर शोर से सैंकड़ों पांडाल तथा मूंह बोलती मूर्तियों को सैंकड़ों कलाकार तैयार करते हैं.
    आपका लेख पढा काफी जानकारी मिली.
    ईश्वर आपको स्वस्थ एवं मस्त रखें

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  3. Amazing..As a Bengali I would say that durga puja is Bengal's emotion.. and I am glad that you wrote about this festival...I came to know many unknown informations about durga puja by reading this article. Thanks once again..Glad that I was able to read this article..Thank You! 😀👍

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