हे भगवान! तेरी तिजोरी की चाबी किसके पास?
भारत मूलत: कृषि प्रधान एवं धर्म प्रधान देश माना जाता है। हमारे देश की विशेषता रही है आधा पेट खाकर भी हम अपनी धार्मिक परम्परा एवं अनुशासन का पालन करते हैं। भले ही आज धर्म कर्म में कमी आई हो किन्तु आस्था में कहीं फर्क नहीं आया है, यह अकाट्य सत्य है। भारत में ऐसा कोई कोना नहीं है जहां हिन्दू देवी-देवता का मंदिर न हो। कई अंचल तो ऐसे हैं जहां मंदिरों की संख्या को गिनना भी टेढ़ी खीर है। हो भी क्यों नहीं, हिन्दू धर्मानुसार 36 करोड़ देवी-देवता हैं। यही नहीं कई क्षेत्रों में स्थानीय देवी-देवताओं के प्रति भी वहां के लोगों में गहरी आस्था और विश्वास है।
भारत में मंदिर देश की समृद्ध धार्मिक विरासत को दर्शाते हैं। एक अनुमान के अनुसार देश भर में 5 लाख से अधिक मंदिर हैं। भारत में हिन्दुओं की आस्था मंदिर में विराजमान भगवान से इस कदर जुड़ी हुई हैं कि वे अपनी इच्छाओं को पूरा करवाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। यही कारण है कि भक्त अपनी श्रद्धा और भक्ति के लिए मंदिर में लाखों रुपये, सोना, चांदी, हीरे दान करते हैं।
भारत का सबसे अमीर मंदिर है केरल का पद्नमाभ स्वामी मंदिर। इसके खजाने में हीरे, सोने के जेवरात और सोने की मूर्तियां शामिल हैं जिसकी कुल कीमत 20 अरब डॉलर बतायी जाती है। गर्भगृह में भगवान विष्णु की विराट सोने की मूर्ति की कीमत 500 करोड़ रुपये हैं। सूची में दूसरे स्थान पर तिरुपति मंदिर है जो आंध्र प्रदेश में है। दान के मामले में दुनिया का सबसे अमीर धर्मस्थल है। हर साल 600 करोड़ रुपये का चढ़ावा आता है। तीसरे स्थान पर महाराष्ट्र का साईं मंदिर है। मंदिर के बैंक खातों में 380 किलो सोना, 4428 किलो चांदी और डॉलर, पाउंड जैसी विदेशी मुद्राओं के रूप में लगभग 1800 करोड़ रुपये हैं। हर साल इस मंदिर में 350 करोड़ का दान आता है। जम्मू का प्रसिद्ध वैष्णो देवी मंदिर में बहुत बड़ी संख्या में लोग दर्शनार्थ आते हैं। इस मंदिर में हर साल 500 करोड़ रु. की वार्षिक आय होती है। मुंबई में सिद्धि विनायक मंदिर। बालीवुड की नामचीन हस्तियां लाईन लगाकर दर्शन करने आती हैं। इस मंदिर को 3.7 किलोग्राम सोने से कोट किया गया है, जिसे कोलकाता के ही एक व्यापारी ने दान किया था। मंदिर सालाना 125 करोड़ से अधिक कमाता है। गुजरात का ऐतिहासिक सोमनाथ मंदिर को महमूद गजनी द्वारा सोने और चांदी के लिए 17 बार लूटा था। पुरी के जगन्नाथ मंदिर की सम्पत्ति के बारे में कोई नहीं जानता, लेकिन अनुमान है कि मंदिर में 100 किलो से अधिक सोना और चांदी के सामान हैं।
अब सवाल यह है कि भगवान के इन मंदिर एवं देश के इसी तरह के हजारों अमीर मंदिरों का मालिक कौन है? हमारी धार्मिक मान्यता है कि ईश्वर एक ऐसी शक्ति है जिसने इस ब्रह्माण्ड को बनाया उवं उसका नियंत्रण और संचालन भी वही करता है। लेकिन भगवान के इन घरों का जो किसी शाही महल से कम नहीं है पर किसका नियंत्रण है? ब्रिटिश शासनकाल के समय 1923 में मद्रास हिन्दू रिलीजिसय एनडामेंट एक्ट पारित हुआ था। 1925 में हिन्दू रिलीजियस एवं चैरिटेबल एनडाउमेंट्स बोर्ड का गठन हुआ। इसमें सरकार की तरफ से कमिश्नर्स और कुछ अधिकारी नियुक्त किए गए थे। मंदिरों में चढ़ावे का पूरा ब्योरा सरकार के पास रहता था। उस समय की सरकार पर आरोप है कि वह कानून के सहारे भारत में अकूत धन संपदा के गढ़ मंदिरों को लूटने का काम कर रही थी। आजादी के बाद 1960 और 1991 में इसमें सुधार हुए। कुछ मंदिर सरकारी नियंत्रण से मुक्त भी हुए, लेकिन दक्षिण भारत के ज्यादातर मंदिर पर सरकारी कब्जा बाजाफ्ता बरकरार रहा। दक्षिण भारत में मंदिर पर सरकारी कब्जे के खिलाफ आंदोलन लगातार चल रहा है, लेकिन उत्तर भारत में यह पहला मौका है जब राष्ट्रीय स्तर पर उत्तराखंड में यह आंदोलन एक साल से चल रहा है।
पिछले रविवार को देश के कई हिस्सो से साधु-संत दक्षिण दिल्ली के कालकाजी मंदिर में इकट्ठा हुए और मठ-मंदिर मुक्ति आंदोलन की शुरुआत की। उनका कहना था कि जब ''मुट्ठी भरÓÓ किसान दिल्ली के कुछ रास्ते जाम कर बैठ गए तो सरकार को झुका दिया फिर भला साधु-संत अगर जिद पर आ जाएं तो सरकार को झुकना ही पड़ेगा।
इस आंदोलन का आयोजन अखिल भारतीय संत समिति ने किया। इस संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं-यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ। आंदोलन करने वाले एक संत ने कहा-अगले चुनाव से पहले हम एक व्यापक आंदोलन खड़ा करेंगे ताकि जब दोबारा सरकार बने, तब सबसे पहले मठ-मंदिरों को सरकार के कब्जे से मुक्त करने का कानून बन सके। भारतीय अखाड़ा परिषद् के महामंत्री राजेन्द्र दास ने कहा- हम आंदोलन को हमारा तन मन धन से समर्थन है।
अप्रैल 2019 में दक्षिण भारत के एक मंदिर प्रबंधन को लेकर दायर एक याचिका में यह निर्णय दिया गया कि मंदिर-मस्जिद-चर्च अथवा गुरुद्वारा प्रबंधन किसी सेक्यूलर (धर्मनिरपेक्ष) सरकार का काम नहीं है। समाज अपने पूजा स्थलों का संरक्षण एवं प्रबंधन करेगा। पांच लाख मंदिरों में अधिसंख्य ट्रस्टियों के पास और अखाड़ों तथा मठों के संरक्षण में हैं। ट्रस्टों और सरकारों की दृष्टि में हमारे मंदिर सरकारी आय का साधन मात्र हैं। 1951 में जो कानून बना उसने राज्यों को अधिकार दे दिया कि बिना कारण बताए वे किसी भी मंदिर को सरकार के अधीन कर सकते हैं। इसी कानून की आड़ में आन्ध्र सरकार ने 34 हजार मंदिरों को अपने अधीन ले लिया। इनका सिर्फ 18 प्रतिशत राजस्व इन मंदिरों को लौटाया जाता है, शेष 82 प्रतिशत हिन्दू कार्यों में खपाया जाता है। तिरुपति बालाजी मंदिर की सालाना कमाई लगभग 35 सौ करोड़ रुपये हैं, पर इस मंदिर के लिए सात प्रतिशत फंड मंदिर के रख रखाव के लिए मिलता है। मंदिरों में दान में भ्रष्टाचार का स्तर यह है कि कर्नाटक में लगभग 50 हजार मंदिर रख-रखाव के अभाव में बंद हो गए हैं।
किसी भी मंदिर, उसके धन प्रशासन अथवा पूजा पद्धत्ति पर सरकारों का कोई अधिकार नहीं है। मंदिरों का धन सिर्फ इनके रख रखाव, पारिश्रमिक, उनसे जुड़ी आधारभूत संरचनाओं और सुविधाओं पर व्यय करना चाहिए। मंदिर के आसपास शिक्षा, चिकित्सा, ग्रामीण विकास के साथ-साथ पुराने मंदिरों की मरम्मत पर भी खर्च किया जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय के आदेशानुसार उत्तर से लेकर दक्षिण तक मंदिरों का प्रबंध भारत सरकार को हिन्दू समाज के धार्मिक संगठनों के ऊपर छोड़ दिया जाना चाहिए। इस मार्ग में सबसे बड़ी बाधा 1951 का कानून है, जिसे संसद में प्रस्ताव लाकर निरस्त किए जाने की जरूरत है।
साधु-संतों ने प्रतिज्ञा की है तो उसके अनुरूप उन्हें राजनीतिक दलों अथवा सत्ता की राजनीति से अपने को दूर करना होगा। धर्म के नाम पर हो रही राजनीति के विरोध में लामबंद होना होगा और शुद्ध धार्मिक आस्था एवं जन कल्याण को केंद्र में रखकर अपने कदम उठाने चाहिए। कोई भी राम नाम की चादर ओढ़ ले तो भक्त नहीं बन जाता। राम नाम जपने से ही राम भक्त नहीं हो जाता। हर साल मंदिरों से अरबों रुपये लूटकर सरकारी खजाने भर लिए जाते हैं। मंदिरों या मठों पर सरकार का किसी तरह की राजनीति का कब्जा निरस्त होना चाहिये।
हालांकि यह हिन्दू आस्था का मामला है लेकिन यह सारा धन हिंदुओं द्वारा ही दान में आता है इसलिए इस धन का नियंत्रण अराजनैतिक संत महात्माओं के पास होना चाहिए ताकि यह धन राष्ट्रीय आपदा के समय काम आ सके.
ReplyDeleteसनद रहे कि मंदिर अखाड़े लगातार बनते भी रहना चाहिए क्योंकि इससे हिन्दू युवाओं में कमोबेश अपने धर्म के प्रति आकर्षण बना रहे भले ही जात झङुले के नाम पर साल दो साल में आना जाना यथावत रह सकें.
धार्मिक आस्था एवं प्रयटन की दृष्टि दोनों भिन्न है. लेकिन इस धन का सदुपयोग एवं नियंत्रण दोनों होना अति आवश्यक है.
धन्यवाद, मुद्दा सही है कोई भी धार्मिक स्थान पर अधिकार सरकार का नही होना चाहिए
ReplyDelete