यारों के यार थे सुब्रत

 तुमको भुला न पायेंगे...

यारों के यार थे

सुब्रत

सुब्रत मुखर्जी से मेरी पहली पहचान एक झगड़े के दौरान हुई थी। किसी आयोजन का कार्ड लेने मैं उनसे मिलने राइटर्स बिल्डिंग उनके चेम्बर में गया था। तब वे राज्य के मंत्री थे। पहले उन्होंने मुझे ना कर दिया फिर जब मैंने उनसे तर्क किया तो उन्होंने मुझे एन्टिक चेम्बर में जाने के लिए कहा। एन्टिक चेम्बर में प्रियरंजन दासमुंशी बैठे थे। प्रियो बाबू लॉ कॉलेज में सहपाठी रह चुके थे। खैर मुझे कार्ड मिल गया। सुब्रत बाबू ने झगड़े के दौरान मेरे अन्दर एक लड़ाका प्रवृत्ति को पहचान लिया और फिर उनसे मेरी दोस्ती हो गयी। सुब्रत और मैं हम उम्र थे। एक-दो वर्ष का फर्क था। इसके बाद तो कई कार्यक्रमों में मुलाकातें होती रही और हमारी पहचान दोस्ती में बदल गयी। छपते छपते के पांचवें वार्षिक आयोजन में सुब्रत कला मन्दिर में हुये समारोह में। आये।



सुब्रत छात्र आंदोलन से राजनीति की मुख्यधारा में आये थे। इसलिए उनके स्वभाव में जुझारूपन था। उस वक्त बंगाल की राजनीति में तीन नौजवानों की तूती बोलती थ। सौमेन (मित्रा), प्रियो (प्रियरंजन दासमुंशी) और सुब्रतो (मुखर्जी)। वैसे सोमेन और सुब्रत राजनीति की दो धूरियों पर थे। सोमेन उत्तर कलकत्ता में राजनीति अखाड़ाबाजी करते थे जबकि सुब्रत दक्षिण कलकत्ता में छात्र एवं युवा नेता थे। प्रियरंजन औरसुब्रत की जोड़ी थी। कांग्रेस के संगठन में भले ही कई बड़े नेता हों धरातल पर लेकिन सोमेन-सुब्रत का जलवा ही चलता था। बाद में प्रियो एवं सुब्रत में आपसी सूझबूझ हुई। दोनों ने यह निर्णय लिया कि वे एक-दूसरे का रास्ता अवरोध नहीं करेंगे बल्कि सहयोग करेंगे। इस समझौते के अन्तर्गत प्रियो ने यह निश्चय किया कि वे केन्द्र की राजनीति करेंगे और सुब्रत राज्य की। इसलिए प्रियो ने कभी विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा जबकि सुब्रत ने अपने को राज्य की राजनीति तक सीमित रखा। प्रियो बहुत प्रभावशाली वक्ता थे जबकि सुब्रत का जनसम्पर्क बहुत व्यापक था। उनमें किसी प्रकार का कम्प्लेक्स या पूर्वाग्रह नहीं था। 1982 से 1996 तक वे जोड़ा बगान विधानसभा सीट से विधायक रहे। जोड़ाबगान मारवाड़ी एवं हिन्दी भाषी बाहुल्य क्षेत्र था। सुब्रत लोगों को सहज उपलब्ध थे। किसी के घर जाने मेंभी उनको हिचकिचाहट नहीं थी। बड़ाबाजार क्षेत्र के कई मारवाड़ी परिवारों से उनकी घनिष्ठता होगयी। अपने मित्रों के लिए वे किसी से भी टकरा जाते, इस खूबी के कारण वे यारों के यार कहे जाते। मिमानी परिवार से उनकी घनिष्ठता बढ़ी। विजय उपाध्याय, श्याम सुन्दर पोद्दार, सत्यनारायण बजाज एवं अनेकानेक लोगों से उनके आत्मीय सम्बन्ध थे। शादी-विवाह हो या कोई पारिवारिक आयोजन, सुब्रत यत्र-तत्र-सर्वत्र देखे जाते। मेरे अनुज, पुत्री एवं पुत्र के विवाह में आकर आशीर्वाद दिया।

विरासती लाभ लेकर राजनीति में बढऩे वालों के विरुद्ध सुब्रतों में एक क्षोभ था। इस प्रक्रिया में एक साधारण कार्यकर्ता का मर्म वे समझते थे। एक बार उनसे मेरी लम्बी बातचीत हुई। प्रिय, सुब्रत और मैं संसद के सेन्ट्रल हॉल में बैठे थे। प्रिय, सुब्रत दोनों ने मुझे कहा कि बड़े आदमी का बेटा जहां से अपना सार्वजनिक जीवन शुरू करता है, वहां तक पहुंचे में एक साधारण कार्यकर्ता को बीस-बच्चीस वर्ष लग जाता है। दरअसल यह उन दोनों की पीड़ा थी। सुब्रत बाबू स्वयं एक शिक्षक के पुत्र थे। उस समय सिद्धार्थ बाबू एक बड़े परिवार से आये थे, पहले मंत्री और बाद में मुख्यमंत्री बने। शायद उनका इशारा इसी तरफ था। इस तरह राजनीति में संघर्ष करते हुए आगे बढऩे के लिए सुब्रत को लम्बी लड़ाई लडऩी पड़ी। उनके इसी संघर्ष ने उन्हें ट्रेड यूनियन क्षेत्र में भी आने की प्रेरणा दी। वे कांग्रेस की ट्रेड यूनियन ''इन्टकÓÓ के प्रादेशिक अध्यक्ष भी बने। कांग्रेस के निष्ठावान कार्यकर्ता होने के बावजूद माक्र्सवादी नेताओं से भी उनका मधुर सम्बन्ध था। ज्योति बसु मुख्यमंत्री थे, सुब्रत उनके नजदीकी माने जाते थे। सीटू (सीपीएम का ट्रेड यूनियन संगठन) के साथ इन्टक के साझा आन्दोलन को लेकर उनकी ही पार्टी के कई लोग उनसे नाराज हो गये थे। उस समय सुब्रत को राजनीति का तरबूज कहा जाता था। तरबूज की तरह वे ऊपर से हरे लेकिन अन्दर से लाल। यानि ऊपर से कांग्रेसी और अन्दर से कम्युनिष्ट। यही नहीं सुब्रत राजनीति में मौसम वैज्ञानिक माने जाते थे। यानि राजनीति की हवा किस ओर बह रही है, इसके आभास करने का उनमें अपूर्व क्षमता थी। 

वैसे तो बंगाल की राजनीतिक परम्परा रही है कि यहां के अधिकांश नेता चाहे वे कांग्रेसी हों या कम्युनिस्ट साधारण जीवन व्यतीत करते थे। बालीगंज के एक छोटे से फ्लैट में सुब्रत बाबू का निवास था और उनसे मिलने वालों की संख्या इती ज्यादा होती कि मकान की सीढिय़ों पर भी लोग खड़े उनसे मिलने का इन्तजार करते। बाद में उन्होंने निवास बदला।

सुब्रत व्यवहार कुशल थे। आपातकाल की घोषणा के समय वे प. बंगाल के सूचना व संस्कृति मंत्री थे। उस दौरान हमें अखबारों के प्रकाशन के पूर्व राइटर्स बिल्डिंग में उसकी कॉपी दिखाकर अनुमति लेनी पड़ी थी। हमारी परेशानी को सुब्रत समझते थे। उन्होंने मैं जैसा चाहूं छापूं, वाला अभयदान देकर मुझे तनाव मुक्त कर दिया।

राजनीति में वे हमेशा सफल रहे, यह कहना ठीक नहीं होगा। 1999 में जब ममता तृणमूल बनाकर कांग्रेस से अलग हुई। सुब्रत उनके साथ थे और फिर मेयर भी बने। मेयर के रूप में सुब्रत बहुत सफल हुए एवं मेयर सुब्रत ने कोलकाता के नागरिक प्रशासन पर अमिट छाप छोड़ी। मेयर के रूप में उन्हें आज भी लोग याद करते हैं।

सुब्रत ने इस तरह प्रदेश की राजनीति में कई उतार-चढ़ाव देखे। कई थपेड़े भी सहने पड़े। इतने लम्बे समय तक राजनीति के खेल के वे कुशल खिलाड़ी साबित हुए। धरातल से जुड़े हुए राजनीतिक नेताओं में सुब्रत का नाम हमेशा लिया जाता रहेगा। सभी पार्टियों एवं उनके नेताओं के साथ घनिष्ठ स्तर पर सम्बन्ध बनाये रखना उनका राजनीतिक कौशल था। ममता के वे राजनीति सारथी थे। सोमनाथ चटर्जी जैसे दिग्गज नेता के विरुद्ध ममता को लड़ाना उनकी डिस्कवरी थी। यही नहीं अमर सिंह ने राजनीतिक दांव-पेंच सुब्रतो से सीखी। अपने दोस्तों के लिए हमेशा तत्पर रहने की जोखिम लेते और हर हाल में उनके साथ खड़े रहने की ईमानदारी की कसौटी पर वे खरे उतरे। राजनीति में यह उनकी बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्हें लोग सीएम मेटल समझते थे। सुब्रत का जाना बंगाल की राजनीति में एक जगह खाली कर गया जिसकी भरपाई करना सम्भव नहीं लगता।


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