शिक्षित समाज की विडम्बना
लड़की पढ़ी-लिखी चाहिये पर परहेज है जॉब करने वाली बहू से
शिक्षा ने समाज की तस्वीर बदल दी। नारी शिक्षा ने पूरे देश की तकदर बदल दी। अंधकार से निकल कर प्रकाश में नहाकर नारी शक्ति ने अपनी बदनसीबी धो डाली। वह अब अपने पांव पर खड़ा होना चाहती है। पराश्रित नारी ने सिसक-सिसक कर जीवन बिताने की त्रासदी झेली है जिसे याद कर वह सिहर उठती है। अभी तक सामाजिक विषमता हो या सामाजिक विसंगतियां सबका खामियाजा नारी और सिर्फ नारी को ही भुगतना पड़ा है। उसका दोष यही तो था कि उसके पास शिक्षा की डिग्री नहीं थी। शोषण एवं उपेक्षा की प्रताडऩा से उसने यह सबक लिया कि वह पढ़ेगी, डिग्री हासिल करेगी और फिर कार्पोरेट वल्र्ड का हिस्सा बनेगी। इसी परिप्रेक्ष्य में विगत पन्द्रह-बीस वर्षों में लड़कियों ने कॉमर्स फेकल्टी की ओर रुख किया। नतीजा हुआ कि हर वर्ष हजारों की संख्या में लड़कियां चार्टर्ड एकाउंटेंट की परीक्षा में सफल होती हैं। चार्टर्ड एकाउंटेंट के प्रतिनिधि संगठन से प्राप्त जानकारी के अनुसार सन् 1949 में देश भर में मात्र 1700 महिला चार्टर्ड एकाउंटेंट थी। यह संख्या अब बढ़कर 82 हजार हो गयी है। कम्पनी सेक्रेटरी विधा में लड़कियों की संख्या अंगुली पर गिनी जा सकती थी किन्तु अब सीए लड़कियों की भरमार है, सीएस लड़कियों की संख्या भी कई गुना बढ़ गयी हैं। कार्पोरेट जगत में कम्पनी सेक्रेटरी या सीए बनने पर लड़कियों ने अधिकार बनाना शुरू कर दिया है और उन्हें आशातीत सफलता भी मिली है।
ताजा टीवी में प्रतिवर्ष मैं बोर्ड की परीक्षाओं के पश्चात् छात्र-छात्राओं के साथ एक साक्षात्कार करता हूं। इसमें छात्राओं से पूछे जाने वाले विभिन्न प्रश्नों में एक सवाल यह होता है कि वे भविष्य में क्या बनना चाहेंगी? 90 प्रतिशत छात्राओं का इसमें जवाब होता है कि किसी मल्टीनेशनल कम्पनी में सीईओ बनना उनके जीवन का लक्ष्य है। वे कुछ नाम भी बताती हैं जैसे- इन्दिार नूई, चन्दा कोचर आदि-आदि। शायह ही कोई छात्रा शिक्षा, कला, साहित्य, विधि, विज्ञान या मेडिकल लाईन में उड़ान भरना चाहती हो। आखिर इसका क्या कारण है, समझने की आवश्यकता है। लड़कियों ने अतीत का मंजर देखा नहीं तो सुना है कि समाज में स्त्रियों की क्या स्थिति थी। स्त्री को देवी का दर्जा दिया जाता रहा, लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती तक बताया गया पर जब गर्भ में लड़की हो तो भ्रूण हत्या आम बात थी। गांवों में लड़की पैदा होने पर उसे दूध से नहलाया जाता था यानि दूध के घड़े या मटके में डालकर उसे मार डालने की अमानवीय प्रथा थी। पति के मरने पर पत्नी आत्मदाह कर लेती तो उसे सती का नाम देकर पूजा जाता था। मरणोपरान्त स्त्री की पूजा होती है पर जीते जी उसे नर्क भोगना पड़ता है। लड़की ने अगर किसी बेजातीय से प्रेम कर लिया तो लड़का और लड़की किसी पेड़ में फन्दे से लटकते हुए पाये जाते हैं। हरियाणा में खाप पंचायत ने कई प्रेमी युगलों पर कोड़े बरसाने या जाति बाहर करने का फतवा दिया, यह बहुत पुरानी बात नहीं, कुछ समय पहले तक की घटना है। और अगर कोई व्यक्ति यह समझे कि यह सब पुरानी बातें है अब ऐसा नहीं होता, शिक्षा का प्रसार हो गया है तो वह फिर इस बात का जवाब दे कि राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, यूपी आदि में आज भी पुरुष-महिलाओं का अनुपात हजार लड़कों या पुरुषों में 840-890 क्यों है? जबकि केरल और प. बंगाल में ऐसा नहीं है। केरल में तो औरतों की संख्या पुरुषों से ज्यादा है और केरल की नर्सें भारत ही नहीं कई अन्य देशों में कुशल नर्स के रूप में जानी जाती हैं। वे कम्प्यूटर से लेकर आधुनिक उपकरणों को संचालित करती हैं। केरल में शिक्षा शत-प्रतिशत है। प. बंगाल में भी लगभग यही स्थिति है। दुर्भाग्य से अधिकांश उत्तर भारतीय प्रदेशों में जहां नारी की पूजा होती है वहीं नारियों की स्थिति बद से बदतर है। हम बड़े फक्र के साथ संस्कृत का यह श्लोक दोहराते हैं - ''यत्र नारी पूजयन्ते रमयन्ते तत्र देवताÓÓ यानि जहां नारी की पूजा होती है वहीं देवता वास करते हैं।
पढ़े-लिखे समाज मे लड़कियांआगे आ रही हैं। जैसा मैंने ऊपर लिखा कि आर्थिक रूप से अपने को स्वावलम्बी बनाने की छटपटाहट उनके मन में है और वे अब महत्वाकांक्षी भी हो गयी हैं। उनकी यह सोच स्वाभाविक है। यह भी सत्य और गर्व की बात है कि आज नारियां हर क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान बना रही हैं। वाणिज्य व्यवसाय में भी उन्होंने सफलतापूर्वक दो-दो हाथ किये हैं। रूढि़वादी सामाजिक व्यवस्था उनके सामने रास्ता रोक कर खड़ी हैं। आज स्थिति यह है कि हर अभिभावक अपने बेटों की शादी किसी शिक्षित लड़की से करना चाहते हैं। शिक्षित का मतलब सिर्फ ग्रेजुएट नहीं बल्कि इससे भी ज्यादा हो। अब लड़कियों ने वर्षों तक अपनी शिक्षा में जीवन के सबसे कीमती समय की आहुति दी। मां-बाप ने भी खून-बसीना एक कर बच्ची को पढ़ाया-लिखाया। लड़की पढ़-लिखकर जॉब करना चाहती है, उसे जॉब मिल भी जाता है। लेकिन विवाह के बन्धन में उनका जॉब आड़े आने लगा है। मैं ऐसे कई परिवारों को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं जिनके लिये यह बड़ी समस्या है। लड़की पढ़ी-लिखी है लेकिन लड़के के परिवार वालों को लड़की के जॉब करने या अपने जॉब जारी रखने पर आपत्ति है। क्या विडम्बना है कि लड़की पढ़ी-लिखी चाहिये पर जॉब वाली नहीं। लड़की सोचती है कि मैं अगर जॉब छोड़ दूंगी तो फिर मेरे में एवं पुराने समय की बहू में क्या मूलभूत फर्क रहेगा? लड़की के दिमाग में यह आशंका भी है कि जॉब छोडऩे के पश्चात् मुझे पूर्ण रूप से पति की कमाई या परिवार के आर्थिक मेरूदंड के सहारे खड़ा रहना पड़ेगा। वह इसके लिये तैयार नहीं है क्योंकि इस स्थिति में उसे अपने जीवन की सार्थकता एवं अपने ''पौरुषÓÓ की आहूति देनी पड़ती है। यह अकाट्य है कि जॉब से मुंह मोड़ते ही लड़की अपने वर्षों की तपस्या को यूं ही बेकार नहीं जाने देना चाहती। वह जॉब करना चाहती है ताकि समाज में स्वाभिमान से जी सके। संभवत: उसका स्वाभिमानी बनने में समाज को कहीं न कहीं उसकी उच्छृंखलता या सिर उठाने की धृष्टता का अंकुर फूटता दिखाई देता है। यह आज के समाज की समस्या है। इस पर मैं समझता हूं बातचीत एवं मंथन होना चाहिये। जितने भी जातीय संगठन है वे सभी आकाश में उड़ते दिखाई दे रहे हैं पर जमीन की हकीकत का उन्हें अहसास नहीं है। यह जमीनी समस्या है, इसका हल भी जमीन पर उतर कर ही निकल सकता है पर यह निश्चित है कि इसका भी हल है। कोई पहल करने वाला चाहिये।

अच्छा लिखा है आपने ।आज कई घरों में यह बहुत बङी समस्या है कि बहू को काम पर नहीं भेजना है।और जो काम पर जाती है उनको हमेशा किसी न किसी रूप में ताने सुनने पङते है। शादी के समय तो-हमारी बहू एम बी ए है,सी ए है,इंजीनियर हैं ।बाद में उसे घर में रहने को मजबूर करते हैं ।अंततः किसी मी रूप में स्त्री को अपमानित करना ही है ।
ReplyDeleteआपने वह कविता अवश्य सुनी होगी जिसकी मिलती-जुलती पंक्तियां इस प्रकार हैं
ReplyDeleteअब तो शस्त्र उठा पांचाली.....!
अब माधव नहीं आएंगे ।
एक चीज जरूर ध्यान में रखें....
समस्या भी हम ही हैं और समाधान भी हम ही हैं ।
जरूरत है आत्मविश्वास की,
जरूरत है सशक्तिकरण की ।