भारतीय राजनीति की आयुर्वेदिक टॉनिक जातीय मतगणना

जात न पूछो साधु की

भारतीय राजनीति की आयुर्वेदिक 

टॉनिक जातीय मतगणना

देश की सामाजिक और आर्थिक पिछड़े वर्ग की जनगणना का मामला ने देश में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच ऐसा घालमेल पैदा कर दिया कि समझ में नहीं आता कि भारत की संसद में कौन सत्ता पक्ष है और कौन विपक्ष? पक्ष और विपक्ष दोनों संविधान के 127वें संशोधन के समर्थन में हाथ खड़े कर रहे हैं, जो राज्यों को अधिकार देगा कि वे अपने-अपने पिछड़ों की जनगणना करवायें। यह संशोधन सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले को रद्द कर देगा, जिसमें उसने राज्यों को उक्त जन-गणना के अधिकार को वंचित कर दिया था। अदालत का कहना था कि शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने का अधिकार सिर्फ केन्द्र सरकार को ही है। दरअसल हमारे सभी नेता वोट और नोट के समान रूप से गुलाम हैं। जातीय जनगणना के रूप में उनके इसी चरित्र का प्रतिबिम्ब झलकता है। दरअसल भाजपा ने हिन्दू-मुस्लिम में सीधा फाड़ पैदा कर हिन्दू बैकलेश पैदा करने में सफल हुआ जिसके कारण वोट की राजनीति में उसे बड़ी सफलता मिली। विपक्ष का सिर्फ मुस्लिम वोटों के भरोसे राजनीति से उसको नुकसान हुआ। परिणामस्वरूप हिन्दू वोटों में विभाजन के लिये जरूरी है कि जातियों में जनगणना करवायी जाये और देश में जातीय नक्शा तैयार किया जाये। सभी दल चाहते हैं कि देश की पिछड़ी जातियों के वोट उन्हें थोक में मिल जायें। संविधान कहता है कि ''सामाजिक और आर्थिक पिछड़ा वर्गÓÓ लेकिन हमारे नेता जातियों को ही वर्ग का जामा पहना देते हैं। क्या जाति और वर्ग में कोई फर्क नहीं है? यह अकाट्य सत्य है कि हमारे देश में जातियों का जाल फैला हुआ है। जाति, उपजातियों और फिर उनमें भी उपजातियां हैं। और हर जाति की भावना प्रबल से प्रबलतम है। गांवों के जितने सुदूर क्षेत्रों में जाइये जातियों का खेल समझ में आयेगा। इन जातियों और उपजातियों के पॉकेट हैं और उनके नेता हैं। इनमें एक चीज कॉमन है कि वे सभी आर्थिक रूप से दुर्बल हैं एवं पिछड़ेपन का शिकार हैं। लेकिन इसके लिए उनके मन में कोई विक्षोभ या गुस्सा नहीं है। जातीय भावनाओं को किसी कारण अगर ठेस लगती है तो लोग उबल पड़ते हैं। ये सभी जातियां पुरानी घिसी-पिटी मान्यताओं की जकड़ में हैं। इनको मानसिक परतंत्रता से मुक्त कराने की बजाय उनके नेता चाहते हैं कि वे कूपमंडूक की तरह कुएं में टर्र-चर्र करते रहें और कभी उससे बाहर नहीं निकले। जब आप मतगणना ही कर रहे हैं तो हर आदमी से आप उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति क्यों नहीं पूछते? आपको एकदम ठीक-ठीक आंकड़े मिलेंगे। इन आंकड़ों के आधार पर उन्हें शिक्षा और चिकित्सा मुफ्त उपलब्ध करायी जाये लेकिन उन्हें आप कुछ सौ नौकरियों का लालच देकर उनकी जातियों के करोड़ों वोट पटाना चाहते हैं।

ग्रामीण इलाके में मतगणना।

देश में जाति आधारित जनगणना की मांग को लेकर राजनीति तेज हो गई है। बिहार के सीएम नीतीश कुमार समेत कई नेताओं ने हाल ही में इस मसले पर पीएम मोदी से मुलाकात की और देश में जाति आधारित जनगणना कराने की मांग की। अब सवाल यह उठता है कि केंद्र सरकार जाति आधारित जनगणना के लिए हामी क्यों नहीं भर रही है। बीजेपी को जाति आधारित जनगणना से परहेज क्यों है। इसे जानने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं। 

30 साल पहले की वो रथयात्रा जो बीजेपी के लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक के लिए निकाली थी। कहने को तो ये रथयात्रा राममंदिर का माहौल बनाने के लिए निकाली गई थी लेकिन राजनीतिक जानकारों ने इसका छिपा हुआ मकसद सिर्फ ये माना कि वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिश लागू कर जो बड़ा दांव खेला था, रथयात्रा का मकसद उसके राजनीतिक असर को कम करना था। आडवाणी की रथयात्रा के 30 साल बाद एक बार फिर सियासत 360 डिग्री घूम गई है। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू हो चुका है और इधर जाति राजनीतिक बहस के केंद्र में है। पिछले महीने इस दिशा में अहम कदम उठा जब ओबीसी बिल को संसद के दोनों सदनों की हरी झंडी मिल गई। इस कानून में अन्य पिछड़ा वर्ग की लिस्ट तैयार करने का अधिकार राज्यों को दिया गया। 

भारत में जातियों का जो रजिस्टर है, वो 90 साल पुराना है। देश में 1881 में पहली जनगणना हुई। 1931 में आखिरी बार जाति आधारित जनगणना हुई। 1931 की जनगणना के हिसाब से 52 फीसदी ओबीसी आबादी है। 2011 में जनगणना के लिए जाति की जानकारी ली गई लेकिन प्रकाशित नहीं की गई। भारत की जनता के लिए जातिगत व्यवस्था अभिषशप्त परंपरा, 1931 के बाद जातिगत गणना नहीं हुई है। 90 साल से देश को पता नहीं है कि किस जाति के कितने लोग हैं। यही वजह है कि जातियों की फिर से गिनती का सवाल उठता रहा है। राजनीतिक दलों के लिए जाति ही प्राणवायु है। जातिगत वोट बैंक का सटीक पता हो तभी सियासी मोर्चेबंदी भी सटीक हो। विकास तो अपनी जगह है। 

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई में जातिगण जनगणना के लिए बिहार के नेताओं का पीएम से मुलाकात बिहार की सियासत के लिए अहम घटनाक्रम है। नीतीश कुमार ने बिहार की सत्ता संभालने के बाद के वर्षों में अति पिछड़ा के दांव से खुद को मजबूती दी लेकिन 2020 के बिहार चुनाव में नीतीश उतने मजबूत नहीं रहे, जितने वो हुआ करते थे। अब नीतीश ने उस मुद्दे को छू दिया है, जिसमें 1990 की मंडल की राजनीति का अगला अध्याय लिखने की कुव्वत है। बेशक जातिगत जनगणना की मांग को लेकर आज पीएम से बिहार के नेताओं की मुलाकात हुई है लेकिन ये मुद्दा सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं है। उत्तर प्रदेश, 2022 में जहां विधानसभा चुनाव होने है, वहां जातीय आधार पर राजनीति की नींव खोजने वाले ओम प्रकाश राजभर ने भी पिछले दिनों जातीय जनगणना को फिर से एनडीए में लौटने की एक शर्त के तौर पर गिनाया था। 

पिछले कुछ महीनों की राजनीति पर गौर करें तो कई नेताओं के नाम सामने आएंगे जिन्होंने जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाया। बीजेपी की राष्ट्रीय सचिव पंकजा मुंडे ऐसी मांग कर चुकी हैं। केंद्रीय मंत्री रामदास आठवले जाति गणना की मांग कर चुके हैं। महाराष्ट्र की विधानसभा में 8 जनवरी को इस मांग का प्रस्ताव पारित हो चुका है। अपना दल की नेता और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल भी ये मांग कर चुकी हैं। यहां तक ओबीसी बिल पर बहस के दौरान बीजेपी सांसद संघमित्रामौर्य भी जातिगत जनगणना की मागं कर चुकी हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी हो या बीएसपी, जातियों का सही-सही आंकड़ा सामने लाने की मांग के समर्थन में इनका भी जोर है। बिहार में चुनाव तो अभी दूर है लेकिन यूपी में चुनाव सिर पर है। राजनीति में अगर जाति जनगणना के मुद्दे ने उबाल लिया तो केंद्र के लिए इससे दूरी बनाए रखना लंबे समय तक संभव नहीं होगा। 

कुल मिलाकर जातीय जनगणना भारत में जातीय राजनीति की धार को और तेज करेगी। फिलहाल कई खराबियों के बावजूद यह साम्प्रदायिक राजनीति का माकूल जवाब है। इसमें विपक्ष को राजनीतिक सफलता मिल सकती है पर अगर वे जातियों के भविष्य को अंधकार में ही रखेंगे तो भविष्य में विपक्ष को भारी पड़ सकती है और देश के विकास के साथ यह क्रूर मजाक होगा।





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