यादों के झरोखे से : जब दिलीप साहब को ग्रैंड होटल से गाड़ी में सोसाइटी सिनेमा ले जाने में लग गया एक घंटा
यादों के झरोखे से
जब दिलीप साहब को ग्रैंड होटल से गाड़ी में सोसाइटी सिनेमा ले जाने में लग गया एक घंटा
बात सन् 1961-62 की है। दिलीप साहब किसी बड़े कार्यक्रम में आये हुए थे। मेरी उम्र लगभग 18 वर्ष की थी। मं उनसे मिला था। अगले दिन सोसाइटी सिनेमा में मेरा एक मनोरंजक कार्यक्रम में उनसे आने का आग्रह किया। पता नहीं कैसे वे बिना किसी नाजो-नखरे के राजी हो गये। हालांकि मुझे विश्वास नहीं हुआ कि वे सचमुच में आ जायेंगे। दिलीप साहब ने कहा सवेरे दस बजे होटल में आ जाना।
सोसाइटी सिनेमा के मैनेजर (नाम याद नहीं) ने कहा कि पहले आप मेरी बात युसूफ साहब (दिलीप कुमार का असली नाम) से कराइये तब हॉल खोलूंगा। एक नयी मुसीबत। दिलीप साहब को लाना था तो भाड़े की गाड़ी करनी पड़ी। एक काली एम्बेसडर 8 रुपये प्रति घंटे के हिसाब से, लेकर ग्रैण्ड होटल पहुंचा। साथ में मेरे हमजोली सीताराम शर्मा भी थे। दिलीप साहब के कमरे के बाहर एक रक्षी (गार्ड) बैठा था। उसने बताया कि साहब सो रहे हैं। मैं बड़े ही तनाव में था। कुछ देर में ही सुप्रसिद्ध कॉमेडियिन स्टार आगा दिलीप साहब से मिलने आये तो मेरी जान में जान आयी। मैंने सारी बात बतायी तो उन्होंने कहा कि तुम बाहर रुको मैं देखता हूं। कुछ देर बाद आगा साहब ने बाहर आकर मुझे बुला लिया। कमरे में दिलीप साहब लुंगी पहने बैठे हुए थे। मैंने उनसे निवेदन किया कि सोसाइटी सिनेमा के मैनेजर को फोन पर कह दें कि आप आ रहे हैं वर्ना वह हॉल नहीं खोलेंगे। उन्होंने मेरी बात को तवोज्जह नहीं दी। आगा साहब ने बड़ी मदद की। मैंने टेलीफोन नम्बर मिलाया और मैनेजर की युसूफ साहब से बात करायी। युसूफ साहब ने उनसे फोन पर कहा अरे भाई यह बच्चा बड़ा जिद्द कर रहा है कि उसके प्रोग्राम में जाऊं। खैर हमने थोड़ी देर बाहर ही इन्तजार किया। बहुत खुशी और जज्बा था किन्तु मन में संशय बना हुआ था। खैर थोड़ी देर में आगा के साथ दिलीप साहब बाहर निकले और हम जल्दी से नीचे दौड़े ताकि गाड़ी बुलाकर बाहर लगा दी जाये। ग्रैण्ड के बाहर भाड़ी भीड़ थी। मेरी भाड़े की काली एम्बेसडर पोर्च में लग गयी थी। काली साधारण एम्बेसडर गाड़ी देखकर दिलीप साहब भड़क गये। वे उस गाड़ी में बैठने के लिए तैयार नहीं थे। मेरे लिए मुसीबत का पहाड़ टूट गया। खैर आगा ने हम पर दया दिखायी और युसूफ भाई को तैयार किया कि वे गाड़ी में बैठ जायें। गाड़ी में हम चार लोग। ड्राइवर के पास सामने वाली सीट पर सीताराम। मैं, आगा और दिलीप साहब पीछे। मैं शर्म के मारे दिलीप साहब की तरफ देख नहीं पा रहा था। बाहर भीड़-कई हजार लोग होंगे। गंगा जमुना फिल्म रिलीज हुई थी। उसकी हीरोइन वैजयन्ती माला का नाम फिल्म में धन्नो था। भीड़ धन्नो! धन्नो! चिल्लाकर दिलीप साहब का ध्यान अपनी ओर खींचने की चेष्टा कर रही थी। कुछ उत्साही फैन्स ने दस-दस रुपये के नोट भी गाड़ी में फेंके। बटोर कर आगा साहब ने मुझे दे दिये। सोसाइटी सिनेमा तक गाड़ी में पहुंचने का पांच मिनट का रास्ता लगभग एक घंटे में तय किया क्योंकि कई जगह बेकाबू भीड़ ने गाड़ी आगे बढऩे नहीं दी। खैर जैसे-तैसे हम सोसाइटी पहुंचे। गाड़ी से उतरे तो भीड़ को पुलिस नियंत्रित करने में लगी हुई थी। सोसाइटी में दिलीप कुमार, आगा साहब तो पुलिस सुरक्षा घेरे में घुस गये किन्तु मुझे पुलिस ने धक्का देकर गेट से बाहर खदेड़ दिया। एक और मुसीबत। खैर पुलिस को बताया कि मैं इस प्रोग्राम का आर्गनाइजर हूं तो मुझे अन्दर जाने दिया। दिलीप साहब को लेकर स्टेज पर पहुंचे जहां हमारे बाकी साथी प्रतीक्षा कर रहे थे। मुझे याद है दिलीप साहब ने हमारी हौसला अफजाई की। छोटा-सा किन्तु बड़ा ही सारगर्भित वक्तव्य रखा। मंच पर गीतेश जी एवं सेठ सूरजमल जालान बालिका विद्यालय की तत्कालीन हेड मिस्ट्रेस कृष्णा दुलारी सूद भी थी।
यह है दिलीप साहब से जुड़ी मेरी पुरानी यादगार। फोटो बाद में हमारी संस्था स्टडी ग्रुप की स्मारिका में छपी पर वह समय के थपेड़ों में पता नहीं कहां गुम हो गयी।
यादों में बसे रहेंगे अपने युग का महान अदाकार दिलीप कुमार।

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