कमरतोड़ महंगाई अब जानलेवा बन रही है

कमरतोड़ महंगाई अब जानलेवा बन रही है

जरूरी वस्तुओं के जब दाम बढ़ते हैं तो हम साधारणत: उसे महंगा होने की संज्ञा देते हैं। किन्तु विकासमान देश में जब अर्थव्यवस्था को चंगा करनेकी कवायद की जाती है तो सामानों के दाम बढऩा अवश्यम्भावी हो जाता है। अर्थव्यवस्था सुधरती है जिससे आम आदमी की क्रय क्षमता में भी ऊफान आता है। इस तरह महंगाई को बढ़ती क्रय शक्ति से निपट लिया जाता है। यह अर्थशास्त्र का अभिन्न अंग है। जब दाम बढ़ते हैं और उसके अनुपात में क्रय शक्ति नहीं बढ़ती है तो वह महंगाई कमरतोड़ बन जाती है। और बढ़ते दाम के मुकाबले जब क्रय शक्ति भी घटती रही तो हमने आक्रोश में उसे डायन जैसे अपशब्द से नवाजा। लेकिन अब महंगाई सुरसा के बदन की तरह दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती जा रही है तो उसे किस उपयुक्त शब्द से नवाजें?

पिछले कुछ समय से महंगाई नरभक्षी बन रही है। आत्महत्या की संख्या में एकाएक बढ़ोतरी उसका ज्वलन्त प्रमाण है। उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में घर में बंद बच्चों ने पड़ोसियों से खाना मांगा। पड़ोसी आये तो देखा बच्चों के पिता फंदे से लटक रहा है। इसी तरह अलीगढ़ में एक ऐसे परिवार को एक एनजीओ ने रेस्क्यू किया है, जो 15 दिन से भूख से तड़प रहा था। इन दो घटनाओं से वहां की राज्य सरकार और उसका स्थानीय प्रशासन पूरी तरह से बेखबर रहा।

कोरोना काल में लॉकडाऊन ने पहले से ज्वलनशील परिस्थिति में घी डालने का काम किया। कुछ सालों में बेरोजगारी में बेइन्तहा वृद्धि हुई है। छोटे कारोबार चौपट हो गये हैं। छोटी-छोटी दुकानें बंद पड़ी हैं। दैनिक मजदूरी करने वालों की कमर टूट गयी है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि महंगाई की यह छलांग 30 साल की सबसे ऊँची है। तकलीफ की बात यह नहीं है कि महंगाई बढ़ गयी है, बल्कि यह है कि लोगों की आमदनी या तो घट गयी है या फिर आमदनी का स्रोत एकदम सूख गया है। करोड़ों लोग बेरोजगार होकर अपने घरों में बैठे हैं। मध्य वित्त परिवारों ने पहले की कमाई के बलबूते आठ-दस महीने किसी तरह निकाल लिये पर अब घर में अकाल पड़ा हुआ है। पूरे देश में काम-धंधे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। आपदा में अवसर की बात कही गयी पर मामूली जल में नाव जैसे-तैसे चल भी जाये पर जहां एकदम सूखा है, वहां नौका कैसे चले? लेकिन यह भी विडम्बना है कि इस घोर आर्थिक संकट में आकंठ डूबे देश की सरकार का विदेशी-मुद्रा भंडार लबालब है, जीएसटी और टैक्स वसूली में अच्छी-खासी बढ़ोतरी हुई है। यही नहीं शेयर बाजार को कभी भारतीय अर्थव्यवस्था का मापदंड माना जाता था पर आज स्थिति यह है कि शेयर बाजार रोज छलांग मार रहा है, अपने ही रिकार्ड तोड़ रहा है पर आम आदमी अपनी न्यूनतम जरूरतें भी पूरी नहीं कर पा रहा है। यानि कार्पोरेट सेक्टर की बड़ी कम्पनियों के मालिक और अंशधारी खूब कमा रहे हैं। मध्यवर्गीय परिवार जो खाते-पीते अवस्था में चल रहे थे, अगर कोविड की चपेट में आ गये तो अस्पताल के बिल चुकाते-चुकाते उसका दम फूल जाता है। अस्पताल उसका दिवाला निकाल देते हैं। यह ठीक है कि भारत सरकार ने गरीबी रेखा के नीचे वाले 80 करोड़ लोगों के लिए मुफ्त खाद्यान्न की व्यवस्था कर रखी है लेकिन आदमी को जिंदा रहने के लिए खाद्यान्न के अलावा भी कई निहायत जरूरतें होती हैं। पेट्रोल और डीजल के दाम सुरसा के बदन की तरह बढ़ गये हैं। इसके कारण हर चीज महंगी हो गयी है। गांवों की हालत तो शहरों के मुकाबले और खराब है। ऐसी हालत में आये दिन अखबारों एवं टीवी पर आत्महत्याओं की घटनाओं की खबर सुनते हैं। अभी कई स्कूलों में फीस जमा नहीं ली जा रही है पर जब भी सामान्य स्थिति होगी ऐसे लाखों परिवार होंगे जो बच्चों की फीस नहीं दे पायेंगे। भावी नागरिक जब पढऩे से वंचित होगा, तो देश का भविष्य क्या होगा?


पिछले कुछ महीनों पर नजर डालें तो देश में खाने की जरूरी चीजों, जिसमें दाल, खाने का तेल के दामों में उछाल आया है। खाने के तेल की कीमतें 50 प्रतिशत तक बढ़ी है और उसी तेल की बंगाल में कीमत 77 फीसदी बढ़ी है। वहीं सरसों का तेल, पाम ऑयल और दूसरे खाने के तेल में 30 प्रतिशत उछाल आया है। यही हाल दालों का भी है।

महामारी में रोजगार कम हुआ, महंगाई तेजी से बढ़ी तो समझ सकते हैं कि आम आदमी किस दुरावस्था में है। अभी मानसून का आगमन हुआ ही है। मानसून जब पूरे तैश में आयेगी तो बाढ़ की विभीषिका भी गरीब ग्रामवासियों को ही झेलनी होगी। यानि हर तरफ से गरीब और मध्यम श्रेणी के लोगों को ही तबाह होना है। इसका समाधान गरीबों में अनाज बांटकर कभी नहीं हो सकता। प्राय: सभी राज्य सरकारों का खजाना खाली है। केन्द्रीय सरकार ही डूबते लोगों को तिनके का सहारा दे सकती है। पर अर्थवय्वस्था को जनोन्मुखी बनाने की उनके पास कोई तरकीब नजर नहीं आती। फिर भी जो करना है, उसीको करना है। आम आदमी को मितव्ययिता या आपात में अवसर खोजने का उपदेश उनके जले पर नमक छिड़कने जैसा है। आम आदमी को इस जान लेवा संकट से उबारना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिये। अब यह कैसे हो यह सोचना एवं उसके लिए परिकल्पना तैयार करना सरकार का दायित्व है।

Comments

  1. प्रणाम मान्यवर
    आप ने एक ज्वलंत मुद्दे पर चिंतन व्यक्त किया है। सरकार के रहते भारतीय मध्यवर्गीय, गरीब जनता अनाथों की तरह जीवन गुजार रहीं हैं। बड़ी उम्मीद से भोली - भाली जनता अपना उम्मीदवार चुनती हैं। कितनी आशा जुड़ी होती हैं ।
    पर किसको गरीब जनता की पड़ी है यहाँ ।अपना उल्लू सीधा करने में होड़ लगा रखी है। आमदनी बंद हैं और महँगाई बढती ही जा रही है। कोरोना से बचने के लिए घर में बैठ ने वाली गरीब जनता भुखमरी से कैसे बचेगी यह भी सोचने की जिम्मेदारी सरकार की ही हैं। बढ़ती महंगाई पर लगाम लगाने के लिए सरकार को यथाशीघ्र उचित कदम उठाना होगा।
    कोरोना में चुनाव का प्रचार अतिआवश्यक
    था, घर बैठकर भूखे पेट टी.वी. पर फुटबॉल देखे जनता। महंगाई बढ़ती हैं बढ़ती रहीं हैं पैसा हो तो जनता खरीदें,खायें और पास में पैसा न हो तो न खायें, भगवान का नाम ले। अब भला सरकार इसमें क्या करें।

    यही सच्चाई है ।

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