'आया राम-गया राम' से शुरु हुई राजनीति अब खाला का घर बन रही है

 'आया राम-गया राम' से शुरु हुई राजनीति अब खाला का घर बन रही है

''आया राम-गया राम'' भारतीय राजनीति की मूल धारा में इस तरह समा गया है कि जैसे हमारे रोम-रोम में राम बसे हुए हैं। यह किस्सा शुरू हुआ साल 1967 में। जुमले को जन्म देने वाले शख्स थे हरियाणा के गया लाल। वे पलवल जिले के हसनपुर से विधायक चुने गये थे। गया लाल ने एक ही दिन में तीन बार पार्टी बदली। पहले तो कांग्रेस छोड़कर जनता पार्टी का दामन थामा। फिर थोड़ी देर में कांग्रेस में वापस आ गये। करीब 9 घंटे बाद उनका हृदय परिवर्तन हुआ र एक बार फिर जनता पार्टी के हो लिये। खैर गया लाल के ''हॉर्ट ट्रान्सप्लैंटÓÓ का सिलसिला रुका नहीं और वे वापस कांग्रेस में आ गये। तब उनको लेकर हरियाणा के बड़े नेता राव बीरेन्द्र सिंह ने एक प्रेस सम्मेलन में उनका यह कहकर परिचय करवाया कि ''गया राम अब आया रामÓÓ हैं। इस दिलचस्प घटना के बाद भारतीय राजनीति में ही नहीं बल्कि भारतीय जनजीवन में पाला बदलने वाले दल बदलुओं के लिए ''आया राम-गया रामÓÓ चुटकी बन गया।



इसके बाद प्रान्तीय स्तर पर एवं राष्ट्रीय स्तर पर दल बदल या आया राम गया राम का सिलसिला जारी है। इस प्रकार 55 वर्ष का यह राजनीतिक जुमला ने कई बार सरकारों का तख्ता उलटा है। कइयों को राजा से रंग और रंग से राजा बनते देखा है। 1967 में दलबदल के जरिये राज्यों में शुरू हुआ सरकारें गिराने-बनाने-बचाने का खेल बाद के वर्षों में लगातार विकसित होता गया।

इस खेल को समाप्त करने के लिए पहली बार उस समय गंभीरतापूर्वक सोचा गया, जब आठवें आम चुनाव में कांग्रेस ने राजीव गांधी की अगुवाई में तीन चौथाई से अधिक बहुमत हासिल कर सरकार बनायी। राजीव गांधी ने दल-बदल पर रोक लगाने के लिए 52वें संविधान संशोधन के जरिए दल-बदल विरोधी कानून (Anti Defection Law) संसद में पारित कराया। कुछ लोगों ने उनके इस ऐतिहासिक कार्य पर यह कह कर अंगुली उठायी कि राजीव ने भारी-भरकम बहुमत की सुरक्षा के लिए यह कदम उठाया है। इस कानून से व्यक्तिगत दल-बदल पर तो रोक लग गयी पर थोक में ऐसा करने को कानूनी मान्यता दे दी। शुरू में इस कानून में प्रावधान था कि यदि किसी पार्टी के एक तिहाई विधायक या सांसद दल बदलते हैं तो उसे दल-बदल नहीं बल्कि दल-विभाजन माना जायेगा। आगे चलकर यह संख्या पचास प्रतिशत और फिर दो तिहाई कर दी गयी। कुछ वर्षों के भीतर ही यह साफ हो गया कि यह कानून अपने मकसद को पाने में नाकाम है और आज यह कानून न सिर्फ नकारा बन गया है, बल्कि इसने हमारे संसदीय लोकतंत्र में कई तरह की विकृतियों को जन्म दे दिया है।

हाल के राजनीतिक घटनाक्रमों पर नजर डालें तो दलबदल या आया राम गया राम सिद्धान्तहीन राजनीति का पर्याय बनता जा रहा है जो महज दल-बदल से कहीं अधिक गम्भीर और अनैतिक कृति बन गया है। मध्य प्रदेश के दिग्गज नेता और कांग्रेस से सांसद केन्द्रीय मंत्री रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से अपना 18 साल का पुराना नाता तोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया। फिर बीच में ऐसी खबरें भी उड़ी थीं कि वह वापस घर लौट सकते हैं। व्यक्तिगत या सामूहिक दल बदल की खबरें अब किसी को चौंकाती या हैरान नहीं करती है। हां इस बात पर कोफ्त जरूर होती है कि सात दशक से अधिक पूरे करने वाले हमारे लोकतंत्र के अनुभव ने देश की राजनीति को पतन के किस कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। छोटे राज्यों की विधानसभाओं में तो जहां दो राजनीतिक दलों के बीच बहुमत के लियए बहुत कम सदस्यों का अंतर होता है, अक्सर विधायकों को पाला बदलकर राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति पैदा करते देखा जाता है। सिंधिया के बाद राजस्थान में भी ऐसी स्थिति बनी जब सचिव पायलट ने अपने उप मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। अटकलें लगी कि वे कई विधायकों को लेकर भाजपा में शामिल हो सकते हैं और गहलोत की सरकार अल्पमत में आ सकीत है। पर उनका निशाना चूक गया। दिलचस्प बात यह है कि ये दोनों नौजवानों की झोली भरने में उनकी पार्टी ने कोई कसर नहीं रखी। सिंधिया केन्द्रीय मंत्री बने, पायलट उपमुख्यमंत्री और पार्टी के प्रादेशिक अध्यक्ष बने। फिर भी उन्हें संतोष नहीं हुआ और अपने बाल हठ पर अड़े रहे।

हाल ही में प. बंगाल में हमने देखा विधानसभा चुनाव के पहले किस तरह की भगदड़ मची। कई वरिष्ठ नेता तृणमूल छोड़ भाजपा में चले गये थोक भाव से। भाजपा की राजनीतिक चतुराई थी कि उन्होंने ऐसा माहौल तैयार कर दिया कि उनकी बंग विजय इस बार सुनिश्चित है। प्रधानमंत्री ने नारा भी दिया-''2 मई ममता गईÓÓ, ''इस बार दो सै के पारÓÓ आदि। जिन नेताओं को तृणमूल ने सड़क से उठाकर सिंहासन पर बैठाया वे भी प्रचारतंत्र के मायाजाल में फंस गये। अब 2 मई को पासा उलटा पड़ गया तो ''घर वापसीÓÓ की होड़ लग गयी। अभी-अभी ममता के करीबी रहे मुकुल राय ने चार वर्ष भाजपा का स्वाद चखा और अब वे घर वापसी के नाम पर पुन: तृणमूल में आ गये। और भी कई भाजपा में गये नेता प्रतीक्षा सूची में हैं। कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है - पूरा देश वही कल सोचता है। लेकिन राजनीति ने बंगाल का अधोपतन किस हद तक किया है, समझ लीजिये।

इसी बीच केन्द्रीय राजनीति में राहुल गांधी के अन्यतम साथी जितिन प्रसाद ने अचानक भाजपा का भगवा थाम लिया। जनतांत्रिक राजनीति में दल-बदल अपने आप में कोई बुराई नहीं है। एक खुले और लोकतांत्रिक समाज में हर व्यक्ति की अपनी सोच होती है और वह उसे कभी भी बदलने का अधिकार रखता है। पर यहां एक गम्भीर प्रश्न उठता है कि एक विचारधारा को जीने और आत्मसात करने के पश्चात् अचानक ठीक उसकी उलट विचारधारा को अंगीकार करना अगर लोकतंत्र है तो विचारधाराओं का घालमेल हमारे समाज को किस खड्ड में गिरायेगा, कहना मुश्किल है। सिंधिया हो या पायलट या जितिन प्रसाद तीनों युवा नेता राजनीतिक परिवार की दूसरी पीढ़ी हैं। तीनों के पिता ने कांग्रेस में अपना सारा जीवन खपाया और इनको विरासत में नाम, शोहरत और सत्ता हासिल हुई। पर ''बहुत दिया देने वाले ने, आंचल ही न समाये तो क्या कीजैÓÓ। दल बदल अपने आप में कोई अनैतिक नहीं है किन्तु सिद्धान्त और वसूलों को ताक पर रखकर जीवन भर जिन विचारों का पोषण किया, संघर्ष किया, उन्हें एक झटके में तिलांजलि देकर सैद्धान्तिक रूप से धुर विरोधी के दामन में मुंह छिपाने वालों के कारण राजनीति घृणा और तृष्णा का कारण बन गयी है। इसी का परिणाम है कि देश का शिक्षित युवा राजनीति से अपने को दूर ही रखता है। पर यह भी सच है कि जब भले जागरुक एवं परिपक्व सिद्धान्त वाले नहीं आयेंगे तो फिर यह राजनीति खाला का घर नहीं बन जाये?


Comments

  1. Very nice of u for d post,Why every time only lord Ram name n jokes on Hindu Sanathan religion,it can also be said-- Naya Naya Mullah ,Khadaa kare Allah Allah

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  2. Jyaada inspire of khardaa pls.

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  3. Why only persons from Congress to BJP, so many BJP leaders has also catch the other train-like Navjot Siddhu,Yaswant Sinha,Shankar Baghela etc.

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  4. Sir सही लिखा आपने
    भारतीय राजनीति का इतना भयावह पतन देखकर इन से विश्वास ही उठ गया
    मैं किसी व्यक्ति विशेष के लिए nhi balki un सभी के लिए yh लिख रहा हु
    कैसे एक 1डेढ़ मीटर कपड़े से गले में डालते ही विचारधारा बदल जाती है कैसी कैसी गालियां देते है ,फिर उन्हीं के लिए किसी चारण की भांति बड़ाई करते है
    किसी विद्वान ने कहा है
    राजनीति का रूप एक नगर वधू की तरह होता है जो रात को अ की दिन में किसी और की होती है
    और यह भोली जनता इनका खेल समझते हुए भी नासमझ बन कर देश के इतिहास के साथ घिनौना खेल खेलने के लिए खुला छोड़ देती है
    पता नहीं कब समझेगी भारत की जनता

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    1. अति सटीक विश्लेषण है। साधुवाद..!

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  5. " ये कुर्सी जो न कराए "

    मानव के दो पाँव, औ' कुर्सी हैं चौपाये
    मखमली छुअन हेतु, पूँछहीन बन जाये

    स्वार्थी राजनीति की घोषित जनसेवा खेल में आज भजनलाल जी की याद आती है जिन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए अपनी मूल पार्टी का ढोल झाल बजाते नई पार्टी में संपूर्ण विलय करा दिया था। इस प्रकार वे कल भी सरकार में थे और पूरे समर्थकों के साथ दल बदल के बाद भी पूर्ण बहुमत की सरकार ने बने रहे। केवल पार्टी का नाम बदल गया। आम जनता को क्या मिला जिसने भजन लाल जी को पहले किसी पार्टी विशेष के नाम पर चुना था। सरकार वही रही किन्तु दलीय चोला बदल गया था।

    यह हरदम होता रहा है कि व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए " आया राम गया राम " का नारा बुलंद रहे। ठगाने वाली जनता जनार्दन के भाग्य में मात्र हार ही लिखा हुआ है।

    आज राजनीति एक उस दुकानदारी की भांति है जिसमें किसी दुकानदार को घाटा लगने के बाद दुकानदारी बदलनी पड़ती है। उदाहरण के लिए जूते की दुकान में घाटा लगने पर मालिक अपनी दुकानदारी बदल लेता है और मिठाई की दुकान खोल लेता है। स्थान वही अर्थात् दुकान वही, पर अब वहां ग्राहकों को मिठाई की दुकान का साइन बोर्ड लगा हुआ मिलता है। जूते के सेल्फ हटा दिए जाते हैं और मिठाइयों की सजावट दिखने लगती है।

    अब राजनीति सिद्धांतों की नहीं बल्कि स्वार्थ सेवा की है। और यह जन सेवा के लिए नहीं बल्कि स्वयं सेवा के लिए की जा रही है। देश में चारों तरफ दृष्टि घुमा कर देखें। व्यक्ति वही है मात्र साइन बोर्ड ही तो बदला है। निर्लज्जता की चरम सीमा यह है कि कल तक जो गाली के पात्र अर्थात् गंदे दिखते थे आज अचानक नई पार्टी की सुपर रिन से धुल कर चकाचक सफेदी प्राप्त कर लेते हैं।

    तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से भाग कर आए एक रिफ्यूजी परिवार की अति वृद्ध महिला से मैंने बचपन में (ढकही बांग्ला टोन में) सुना था - "भारत के कानून में बहुत्ते शेद (छेद) है और ओई शेद से मतलबी लोग इधर उधर निकल भागता है।"
    यह सुने हुए लगभग 50 साल हो गए किंतु आज के संदर्भ में भी उनकी यह बात सही लगती है।

    वर्तमान विचारकों के समक्ष एक नई चुनौती है कि वह आज के संदर्भ में हो रहे नाटक की कलई आम जनता के सामने खोलें। ताकि, संविधान की मूल भावना एवं जनता की सेवा दोनों सुरक्षित रह सके।




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  6. प्रणाम मान्यवर
    आज के अधिकांश राजनेता स्वार्थ की राजनीति करते हैं जहाँ अपना फायदा दिखता है वही चल देते हैं। इनका न तो कोई सिद्धांत होता है और न ही ये जनता के लिए,देश के लिए कुछ करने का जज़्बा रखते हैं। ये बे पेंदी के लोटे की तरह होते हैं। सत्ता में आकर स्वार्थपूर्ति ही एकमात्र इनका लक्ष्य होता है।

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