बंगाल ने दिखाया रास्ता
दरिद्र नारायण भी पहुंचे लोकतंत्र के मंदिर में
1952 में हुए स्वतंत्र भारत के प्रथम चुनाव में संसद में स्वतंत्रता सेनानियों की भरमार थी। संसद भवन में गांधी टोपियां एवं घुटने तक धोती वाले राजनीतिक नेताओं का बाहुल्य था। वे थ्री ह्वीलर ऑटो में आते थे या फिर संसद सदस्यों के लिये बनी बसों में।
अब समय एकदम बदल गया। संसद अथवा विधानसभाओं में चुनकर या मनोनीत सदस्य अगर सब नहीं तो अधिकांश के पास अपनी गाडिय़ां होती है वे आलीशान फ्लैट या मकान में रहते हैं एवम् उनके कपड़ों व चालचलन से ही उनकी रहीसी झलकती है। कुछ जन प्रतिनिधि हैं जो सरकार से मिलने वाले भत्ते पर गुजारा करते हैं पर ऐसे व्यक्ति विरले ही होते हैं। प्राय: जनप्रतिनिधि एक बार भी जीत कर गये तो उनकी काया कंचन की हो जाती है।
आम आदमी की सोच है कि चुनाव जीतने के लिये लाखों-करोड़ों खर्च करने वाले पांच साल में खर्च से दसगुनी रकम वसूल कर लेते हैं। यह धारणा बहुत हद तक सही भी है। आप दिल्ली जायें संसद भवन के बाहर भीतर ²ष्टिपात करें तो आपको उनकी असलियत समझने में समय नहीं लगेगा। इस तरह के माहौल में नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह कुछ अविश्वसनीय किन्तु सत्य उदाहरण भी हैं जो इस बार प. बंगाल के चुनाव में देखने को मिले।
रिक्शा में सवार होकर विधानसभा जाते तृणमूल विधायक मनोरंजन व्यापारी
बंगाल विधानसभा चुनाव जीतने वाले उम्मीदवारों में जहां हाई-प्रोफाइल लोगों की कमी नही है, वहीं उनके बीच इस बार हुगली जिले के बालागढ़ विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित होकर एक रिक्शा चालक भी विधानसभा पहुंच गया है। तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर रिक्शा चालक मनोरंजन व्यापारी ने भाजपा उम्मीदवार सुभाष चंद्र हलदार को हराकार जीत दर्ज की है। बंगाल के हाई-वोल्टेज चुनाव में एक आम आदमी की जीत से इन दिनों बालागढ विधानसभा क्षेत्र चर्चा में है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस बार दलित समुदाय के नेता व साहित्यकर मनोरंजन व्यापारी को यहां से उम्मीदवार बनाया था। इस गरीब रिक्शा चालक ने भाजपा उम्मीदवार को 5, 784 वोटों से हराकर यहां से विधानसभा का रूख किया हैं। गरीबी के कारण होटलों में बर्तन साफ करके बड़े हुए मनोरंजन व्यापारी का कहना है कि वे लोकतंत्र के मंदिर में जाकर गरीब एव असहाय लोगों की आवाज बनना चाहते हैं। रिक्शा चलाने के साथ-साथ यह दलित नेता अच्छे लेखक भी हैं। मशहूर साहित्यकर महाश्वेता देवी से प्रेरित होकर उन्होंने कई किताबे लिखी हैं। नक्सल आंदोलन के समय मनोरंजन जेल भी गए थे। उनका कहना है कि बचपन में गरीबी इतनी थी कि भूख से बहन को उन्होंने अपनी आंखो सामने मरते देखा है। वे तृणमूल कांग्रेस में इसलिए शामिल हुए क्योंकि इस दौर में गले में गमछा लगाकर रिक्शा चलाने वालों को समाज में और कोई नहीं पूछता हैं। गले में जहा टाई लगाने वालों की भरमार है, वहा गमछा वाले की सुध कौन लेगा। तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने उन्हें सम्मान दिया और इस सीट से चुनाव लडऩे को कहा था। वे बालागढ में पत्नी व बेटे के साथ रहते हैं। उनका कहना है कि हौसले बुलंद हो तो कोई भी लडाई जीती जा सकती हैं। गरीब और असहाय लोगों की समस्याओं को सरकार के समक्ष रखना उनकी पहली प्राथमिकता होगी।
ऐसे दरिद्रनारायण को जनप्रतिनिधि बनाकर प. बंगाल की 17वीं विधानसभा में भेजने के स्तुत्य कार्य में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस का एकाधिकार नहीं है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की जीत की चर्चा हर कोई कर रहा है पर इस सब के बीच बीजेपी की एक महिला उम्मीदवार की जीत भी लोगों के बीच सुर्खियां बंटोर रही है। बांकुड़ा क्षेत्र में सालतोरा विधानसभा सीट से बीजेपी उम्मीदवार चंदना बाउरी ने टीएमसी उम्मीदवार संतोष मंडल को हरा दिया है। चंदना की जीत की चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि वे एक दिहाड़ी मजदूर की पत्नी हैं। नामांकन के दौरान चंदना बाउरी चुनाव आयोग को जो शपथपत्र दिया है उसके मुताबिक उनके खुद के बैंक खाते में सिर्फ 6335 रुपए हैं। वे झोपड़ी में रहती हैं और एक गरीब मजदूर की पत्नी हैं। चंदना अनुसूचित जाति से आती हैं। नामांकन के दौरान चंदना ने अपनी जो संपत्ति घोषित की है उसके मुताबिक, उनके पास तीन गाय, तीन बकरी, एक झोपड़ी और बैंक में जमा नकद मिलाकर कुल 31,985 रुपये की संपत्ति है। हैरानी की बात है कि चंदना के घर में शौचालय भी नहीं है। चंदना पार्टी के लिए इतनी समर्पित है कि वो गंगाजलघाटी ब्लॉक के केलई गांव से रोज सुबह कमल के प्रिंट वाली भगवा रंग की साड़ी पहनकर चुनाव प्रचार के लिए निकलती थी। मिली जानकारी के मुताबिक, चंदना अपने पति से ज्यादा पढ़ी-लिखी हैं। उनके पति सिर्फ आठवीं पास हैं जबकि चंदना खुद 12वीं पास हैं। बांकुड़ा जिले की सल्तोरा विधानसभा सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है।
चंदना बाउरी चुनाव के दौरान मतदाताओं से मिलती हुई।
बंगाल के इन दो नवनिर्वाचित विधायकों ने यह भी साबित कर दिया कि दरिद्रनारायण को लोकतंत्र के मंदिर तक पहुंचाने में किसी पार्टी की मोनोपली नहीं है। यह सही है कि गरीब या साधारण व्यक्ति के संसद या विधानसभा पहुंचने से कोई देश की तकदीर नहीं बदलेगी किन्तु रिक्शाचालक मनोरंजन व्यापारी और दिहाड़ी मजदूर की पत्नी चंदना जैसे लोग अगर हमारे प्रतिनिधि बनकर देश की संवैधानिक प्रतिनिधि संस्थाओं में जायें तो गरीब और उत्पीडि़त लोगों की आवाज बुलन्द होगी। कोई तो उन लोगों की आवाज उठायेगा जिनके लिये हमने देश की आजादी की जंग लड़ी थी, कुर्बानियां दी थी।

प्रेरणादायी लेख /संमापदकिए.
ReplyDeleteBhai namastey aaj aapkay laikh ko padhnay kay baad yaqeen ho gaya ki koi political party kuch bhi kahay janta jaag rahi hai aur yeh baat desh kay hit ki hai
ReplyDeleteAapnay bahut accha likha hai DARIDR NARAYAN
Baat to bilkul sahi hai.Per aise bahut se example bhare pare hai jab jeb bharne lagte hai log pichli jindagi bhool jate hai Samaj ko thenga dikhakar ye sochte hai. Apna kaam banata Bhar me jai Janata.
ReplyDeleteदोनों उम्मीदवार को कोटि कोटि प्रणाम
ReplyDeleteगरीबी क्या होती है इने मालूम है।
जनता ने अपना काम कर दिया, अपना बिस्वास उनपर रख कर सांसद के अंदर के बैठा दिया, अब ये देखना है की क्या इनके दिल मे मानव सेवा है, या दौलत सेवा ।
ReplyDeleteक्युकी अक्सर लोग धन के चकाचोंध भरी दुनिया के आगे अपनी इन्सानियत चमक खो कर भौतिक चमक बनाने में लीन हो जाते हैं ।
Will they be allowed to stay like this and will they be thinking about people like them? It's a big Question!
ReplyDeleteWill they be allowed to stay like this and will they be thinking about people like them? It's a big Question!
ReplyDeleteप्रेरणादायक आलेख
ReplyDeleteIn a democratic country if the peoples desires to elect their representative without expecting or taking any favours from anyone then the day is not far the sanctity of the entire system will change
ReplyDeleteसच्चा लेख
ReplyDeleteअच्छा लेख
मनोरंजन जी अच्छे लेखक हैं।