एक साहित्यिक पत्रिका जिसने पूरे परिवार को एकसूत्र में बांध रखा है
पांच वर्ष पूर्व मुझे ताजा टीवी के लिए एक ऐसे बड़े परिवार की खोज करनी थी जिसके सदस्यगण देश-विदेश के कई कोनों में फैले हुए हों पर त्यौहार कहीं एक जगह इकट्ठे मनाते हों। ऐसा विरल परिवार का पता लगाने में मुझे काफी वक्त लगा। खैर, मेहनत बेकार नहीं गई और मैंने ताजा टीवी के लिए एक ऐसे परिवार को खोज लिया जो दिवाली के दिन इकट्ठा होता है। रात में परिवार के चार पीढिय़ों के इक्कीस लोगों के एक साथ रात्रि भोज करते हुए दुर्लभ क्षणों को अपने टीवी चैनल के लिए हमने शूट किया था। यह परिवार चुन्नीलाल जी सोमानी का था जिनके पुत्र अलग-अलग शहरों में रहते थेे किंतु दिवाली का त्यौहार वे हर वर्ष इकट्ठे होकर एक जगह मनाया करते हैं। चुन्नीलाल जी गुजर गये पर परिवार की परम्परा अभी भी कायम है। इस घटना का मैंने जिक्र इसलिए किया कि मैं ऐसे बहुत से परिवारों को जानता हंू जिनके दो या तीन भाई एक शहर में ही रहते हैं लेकिन त्योहार पर भी एक साथ खाने का आनन्द भी नहीं उठा पाते। इसका कारण यह नहीं है कि संयुक्त परिवार बिखर गये हैं क्योंकि संयुक्त परिवारों का विभाजन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। कोई जरूरी नहीं कि भाई-भाई अलग अलग रहते हों तो उनमें प्रेम या परस्पर आदर और स्नेह का अभाव हो। बहुत से कारण है कि जिसके फलस्वरूप संयुक्त परिवार अलग-अलग इकाइयों में बंट गये। अगर शोध किया जाए तो हम देखेंगे छोटे परिवारों के अपने कई फायदे हुए एवं हर व्यक्ति की प्रतिभा का हुनर दिखाने का अवसर मिला जो कि संयुक्त परिवार में संभव नहीं था।
आज मैं किंतु एक ऐसे परिवार का जिक्र करने जा रहा हंू जिनका उद्भव राजस्थान के प्रसिद्ध शहर झुंझनू में हुआ। झुंझनु के शाह परिवार का दो सौ वर्ष का इतिहास मात्र एक अंतराल नहीं है बल्कि इस परिवार ने अपने रचनात्मक कृतियों से झुंझनू एवं कलकत्ता में अपनी अलग पहचान बनाई। राजस्थान का बनिया समाज रोजगार, व्यवसाय के लिए कलकता और दूसरे शहरों में आकर बस गया। शाह परिवार ने भी यही किया। फर्क इतना है कि अधिकांश परिवारों ने देशावर में बसने के बाद मुड़कर नहीं देखा किंतु इस शाह परिवार की स्थिति कृष्ण की तरह हुई जो वृन्दावन छोड़कर द्वारिका आ गये पर उन्हें कहना पड़ा ''उधा मो से वृन्दावन बिसरत नाहीÓÓ। और शायद इसी टीस को सार्थक एवं रचनात्मक रूप देने के लिए शाह परिवार ने कलकत्ता से वर्ष 1994 में 'कुल दीपिकाÓ नाम से एक पारिवारिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। पत्रिका में शाह परिवार के सदस्यों का भरपूर रचनात्मक योगदान अनूठा है। मुझे नहीं मालूम कि देश में ऐसी कोई दूसरी पत्रिका है जिसने एक परिवार की लेखन प्रतिभा एवं हर सदस्य के लोक संपर्क को एक सूत्र में पिरोकर अपने बीच प्रसारित किया हो। इसके संपादक प्रमोद शाह हर अंक में ''परिवार की बातें- परिवार के साथÓÓ शीर्षक एक संपादकीय लिखते हैं जिसमें अतीत का आज के साथ समन्वय स्थापित करते हैं। मूलत: पत्रिका की भाषा हिन्दी है पर इसमें कुछ कुछ विचार अंग्रेजी में भी लिखे गये हैं ताकि परिवार की युवा पीढ़ी को भी लिखने का समान अवसर मिले। इस पत्रिकार की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें गंभीर ऐतिहासिक लेख, साहित्यिक रचनाएं, कविता, $गज़ल, यात्रा संस्मरण, परिवार के सदस्यों की व्यक्तिगत उपलब्धियां, पारिवारिक शोक आदि आदि पर रुचिपूर्ण पठनीय सामग्री का समावेश होता है। इस पत्रिका की प्रकाशन अवधि निर्धारित नहीं है, बीच बीच में कुछ समय तक प्रकाशन नहीं होने के भी दृष्टांत है पर मैंने पत्रिका के कई अंक देखे हैं जिनमें प्रकाशन सामग्री स्तरीय है किन्तु इतनी गरिष्ठ भी नहीं कि परिवार का कम पढ़ा वर्ग उसे आत्मसात नहीं कर सके। यानि हर तरह के सदस्य के लिए उसके मतलब की रचनाएं हैं। कलात्मक आवरण पत्रिका की गरिमा की श्रीवृद्धि करता है। इस पत्रिका में महान दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति का लेख ''सेक्स एंड लवÓÓ को भी स्थान मिलता है तो फिराक और फिराक पर चिन्तन लेख भी पढ़ा जाता है। शाह परिवार के बीहड़ खुलेपन का इसी से अन्दाज लगाया जा सकता है।
शाह परिवार की रचनात्मक परिणति के पीछे इस परिवार में विलक्षण प्रतिभाओं का समावेश है। शाह परिवार के वरिष्ठतम सदस्य श्री घनश्याम शाह की उम्र 85 वर्ष के करीब है। एक व्यवसायी के रूप में भी वे सफल हैं किंतु मिलने पर वे कभी अपने धन्धे की चर्चा नहीं करते। झुंझनू की यादें और अन्य सम सामयिक विषयों पर उनके पास विषयों की कमी नहीं। किसी परम्परागत व्यवसाय की बजाय उन्होंने इंजीनियरिंग उद्योग, एक्सपोट्र्स में महारथ हासिल की। इसी परिवार के सदस्य रेवतीलाल शाह, मैं कह सकता हंू मारवाड़ी समाज में एक बेजोड़ शख्सियत थी। फारसी, उर्दू पर उनका समान अधिकार था। प. बंगाल उर्दू अकादमी के सदस्य थे, इस तरह की मिसाल कोई दूसरी नहीं है। हिन्दी के अलावा बांग्ला एवं फारसी के नामी ग्रामी कवि लेखकों की रेवती भाई से अन्तरंगता थी। सन् 2003 में उनका निधन हो गया। नन्दलाल शाह अन्तिम समय तक भारतीय भाषा परिषद् के सचिव थे। अखबारों में आर्थिक विषय पर उनके लेख छपते थे। रतन लाल शाह के साथ मारवाड़ी सम्मेलन में मुझे काम करने का अवसर मिला। राजस्थानी भाषा के लिए कलकत्ता महानगर में कवि कन्हैयालाल सेठिया के बाद अगर किसी ने समर्पित भाव से काम किया तो वे हैं रतन शाह। प्रमोद शाह के ही बस की बात है कि आज महानगर में उर्दू के मशहूर शायर निदा फाजली, पंडित बिरजू महराज जैसे सांस्कृतिक हस्तियों को लेकर कार्यक्रम कर सकें। सूफी मत पर उनकी पुस्तक का उर्दू जगत ने भी लोहा माना।
महेश चन्द्र शाह एक मेकानिकल एवं इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हैं लेकिन सामाजिक रुझान से ओत प्रोत। अभी मर्चेन्ट्स चेम्बर के अध्यक्ष आकाश शाह इसी चर्चित शाह परिवार के युवा सदस्य हैं। प्रमोद जी की पुत्री शैली ने अंग्रेजी पत्रिका दी सोशल जिगसा का प्रकाशन प्रारंभ किया है। अन्य कई सदस्य जिनमे महिलायें भी शामिल हैं सामाजिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं।
अंत में- हाल ही में इसी शाह परिवार पर एक ग्रंथ ''धड़कन एक विरासत कीÓÓ का विमोचन किया राज्यपाल श्री जगदीप धनखड़ जो स्वयं भी झुंझनू जिले के हैं ने इस परिवार के वैशिष्ट पर बोलते हुए कहा कि यह ग्रंथ अन्य परिवारों को भी प्रेरित करेगा। इसी ग्रंथ में दिवंगत रेवती लाल शाह का एक लेख ''जि़क्र-ए-झुंझनूÓÓ की कुछ पंक्तियां मैं उद्घृत कर रहा हंू- ''एक बार प्रख्यात बाक्सर मुहम्मद अली ने कहा था कि 'मदीनाÓ दुनिया का सबसे सुन्दर शहर है। कुछ सालों बाद यही बात जब उसने मास्को के लिए कही तो पत्रकारों के टोकने पर उसने कहा- शरारती लोगों! जिसे अपने बीवी खूबसूरत लगती है, क्या उसे अपनी मां खूबसूरत नहीं लग सकती?ÓÓ इसी तरह की ही कुछ भावना शाह पहरवार की है, झुंझनू और कलकत्ता के सम्बन्ध में।
शाह परिवार पर प्रकाशित ग्रंथ 'धड़कन एक विरासत की का राजभवन में विमोचन करते हुए राज्यपाल श्री जगदीप धनकड़।


Wonderful family ...and Wonderful article . I bow to the shah family and salute shri newar for sharing this great information through your article. ...tarun sethia
ReplyDeleteप्रणाम मान्यवर
ReplyDeleteआपके द्वारा प्राप्त जानकारी बहुत ही रोचक लगी। सचमुच हम कहीं भी रहे,अपनी पहचान,अपनी संस्कृति को नहीं भूलना चाहिए। जड़ से कट कर जिस प्रकार एक वृक्ष हरा-भरा नहीं रह सकता,फल-फूल नहीं सकता ठीक वैसे ही हम अपने कुल-खानदान से अलग होकर पूर्ण विकसित नहीं हो सकते। अपनी विरासत से जुडाव हमें अपनी मिट्टी से अलग नहीं होने दे सकता।
यह पत्रिका वास्तव में प्रेरणादायक है उन सभी के लिए जो रोज़ी रोटी की तलाश में अपनी मिट्टी को जोड़ने पर विवश हुए और
जहाँ गए वहीं के हो कर रह गए।कर्मभूमि के साथ ही साथ मातृभूमि का ॠण भी हमें चुकाना नहीं भूलना चाहिए। आज की युवा पीढ़ी के लिए शाह परिवार एक मिशाल हैं।
nice initiative
Deleteअति सुन्दर, शब्द नहीं हैं वर्णन को
ReplyDeleteमान्यवर प्रणाम,
ReplyDeleteकहां से लाते हैं ऐसे ऐसे विचार जो आज के वर्तमान व्यवसायिक प्रदूषण के समाज में दब से गए हैं। इतने अच्छे पारिवारिक सांगठनिक संतुलन एवं संस्कृति को संजोए रखने की बात आजकल कहां कौन सोच रहा है। आज एक परम सत्य और भयंकर त्रासदी यह भी है कि एक ही शहर में व्यवसाय के लिए वर्षों से रह रहे दो भाइयों को आपस में मिलने का भी समय नहीं मिल पाता है। पर्व त्योहारों पर भी आपसी मिलाप और आदान प्रदान नहीं हो पाता है। यह मात्र कृत्रिम आधुनिकनता और व्यस्तता नहीं तो और क्या है.? आखिर हम लोग और हमारा अपना अपनत्व से भरा वह भारतीय समाज कहां जा रहा है, जो इसकी पहचान रही है.? आपने ऐसे लोगों के सामने दर्पण साफ करने का प्रयास दिखाया है।
अमर तिवारी
बेहतरीन शब्द
ReplyDeleteबेहतरीन शब्द....
ReplyDeleteअति सुन्दर और मार्मिक सोच कर ही सफलता को प्राप्त करने में सक्षम हो सकते ऊं
ReplyDeleteआपकी मार्मिक सोच कर ही सफलता को चित्रण किया गया
परिवार की एकजुटता का कारण बनी पत्रिका बेहद अच्छी जानकारी।
ReplyDeleteप्रिय नेवरजी, शाह परिवार पर आपका आलेख पढ़ा । मुझे भी इस परिवार के कुछ सदस्यों से सामीप्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । चाहे वे रेवती बाबू हों, नंदलालजी हों, रतनजी या प्रमोदजी हों सभी की साहित्यिक अभिरुचि अद्भुत है ।ये बात शायद बहुत कम लोग जानते हैं की रेवती बाबू मेरे स्वर्गीय पिता के बिरला कालेज पिलानी में छात्र रहे थे। इस रिश्ते से वे मेरे गुरुभाई भी थे । वे विलक्षण प्रतिभा के धनी थे और चूँकि मेरे पिता उर्दू फ़ारसी अंग्रेज़ी और हिंदी के प्रकांड विद्वान थे इसलिए कलकत्ता में मेरे घर पर अक्सर उनकी, डा० कृष्णबिहारी मिश्र और मेरे पापा की साहित्यिक चर्चाएँ बहुत आनन्द दायक और ज्ञान से परिपूर्ण होती थीं।आज भी उन दिनो की स्मृति मुझे प्रेरणा देती है ।
ReplyDelete-राज कमल जौहरी
Very good work
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