जिन्हें मारवाड़ी समाज पर नाज है, वे कहां हैं?
आजकल चुनाव के मौसम में बाहरी एवं लोकल शब्दों को बार-बार दोहराया जाता है। इस पर काफी गहमागहमी भी हुई है, चुनाव में बाहरी और भीतरी शब्दों को लेकर चुनाव प्रचार में भी जमकर बहस हुई। प. बंगाल या कोलकाता जैसे शहर में इन शब्दों या जुमलों की खास अहमियत है क्योंकि इस राज्य में और विशेषकर कोलकाता शहर में पूरे उत्तरी भारत के लोग बड़ी संख्या में आकर बस गये हैं। यहां आने का कारण भी एक ही है। रोजगार की लाश। कोई अपनी दुकानदारी या व्यापार को स्थापित करने आया तो कोई नौकरी की तलाश में यहां आकर बस गया। बिहार में तो एक प्रचलित कहावत है- ''लगा दुल्हनिया का धक्का - बलम कलकत्ता।ÓÓ यानि शादी के बाद घर-संसार की फिक्र में बिहार से लोग कलकत्ता कामकाज के जुगाड़ में आ जाते हैं। वैसे यह कहावत उत्तर भारत के कई प्रान्तों के लोगों पर लागू होती है। मैं राजस्थान प्रवासी हूं और इस बात का गवाह हूं कि राजस्थान का ऐसा कोई गांव नहीं है जिसके लोग कोलकाता या उसके आसपास रोजगार के लिये नहीं आये हों। पहले नयी नवेली दुल्हन के हाथ की मेहंदी भी नहीं सूखती थी कि राजस्थानी युवक काम करने की ईच्छा से ''देशावरÓÓ यानि कलकत्ता गाड़ी पकड़ कर आ जाता था। 1970 तक राजस्थान से पलायन का सिलसिला चलता रहा। लेकिन उसके बाद यह सिलसिला लगभग रुक गया। उसका मुख्य कारण 1970 के पश्चात् प. बंगाल में औद्योगिक विकास की गति धीमी पड़ गयी और दूसरी तरफ राजस्थान में रोजगार के नये अवसर मिलने लगे। अब राजस्थान से कोई नवयुवक बंगाल या कहीं अन्यत्र रोजी रोटी की तलाश में नहीं जाता बल्कि अब तो गंगा उल्टी बहने लगी है। बहुत से लोग बंगाल से जाकर राजस्थान में कारोबार कर रहे हैं।
कोलकाता में राजस्थानी समाज मूलत: व्यापार के लिये ही आया था। यही नहीं व्यापार को इस समाज ने प्राथमिकता दी लेकिन पचास-साठ वर्ष के संघर्ष के पश्चात् इस समाज ने अपने आपको स्थापित कर लिया। और अब सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में भी राजस्थान प्रवासी सक्रिय हो उठे। दरअसल संस्कृति और साहित्य वहां की मिट्टी में रचा बसा है। त्यौहारों को जितने मस्ती और आनन्द से यह समाज राजस्थान में मनाता था, उससे कम गरिमा एवं प्रफुल्लता यहां नहीं आने दी। अब होली के बाद गणगौर का त्यौहार राजस्थानी उसी तन्मयता के साथ यहां भी मनायेगा। यह महिलाओं का त्यौहार है जिसमें पुरुषों की भागीदारी भी बढ़ चढ़कर होती है।
लेकिन राजस्थान प्रवासी अपनी शानदार परम्पराओं से अब धीरे-धीरे हट रहे हैं। स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, धर्मशाला व जनकल्याण के संस्थान नये तो नहीं खोले जा रहे अपितु जिन पर राजस्थानी या मारवाड़ी समाज गर्व करता रहा है, उनमें कई बन्द हो गये हैं और कई बंद होने की कगार पर हैं। यही नहीं मारवाड़ी समाज का यह उच्च विचार अब प्राय: लोप हो गया कि कोई भी छात्र-छात्रा धनाभाव में पढ़ नहीं पाये, इसके लिए समाज की संस्थायें छात्रवृत्ति देती थी और समाज के लोगों ने अपने ट्रस्ट से मदद की थी। साथ ही इस समाज ने कभी राजस्थानी-बिहारी-बंगाली का कोई भेदभाव नहीं किया। अत्यन्त धार्मिक एवं परम्परावादी होने के बावजूद कभी गरीब की मदद में हिन्दू, मुसलमान में फर्क नहीं किया। कुछ समय से एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें मुसलमानों के किसी जलसे में एक मुसलमान ने तकरीर करतेहुए कहा कि सहायता करना या गरीबों की मदद करने का उदाहरण देखना है तो मारवाड़ी समाज के कार्यों में देखें जो सर्दी की रात में गाडिय़ों से जाकर फुटपाथ पर सोये हुए असहाय लोगों को अपने हाथ से कम्बल ओढ़ाता है।
पूरे कलकत्ता शहर में सैकड़ों प्याऊ थी। प्याऊ में एक आदमी को रोजगार भी मिलता था। दोपहर की तपती गर्मी में रागहीर अपनी प्यास बुझाता था ौर तृप्त होकर प्याऊ के ऊपर लगे साईनबोर्ड को इस तरह देखता मानों भगवान के दर्शन कर रहा हो। एक दिन अचानक सारे प्याऊ बन्द हो गये। अब कुछ व्यापारिक प्रतिष्ठानों द्वारा प्रायोजित ठंडे पानी की व्यवस्था कुछ स्थानों पर है पर पहले की तुलना में नगण्य है। श्रमिक इलाकों में आज भी पीने के पानी की उपयुक्त व्यवस्था नहीं है। हावड़ा, खिदिरपुर आदि क्षेत्रों में कल-कारखाने हैं, पोस्ता में ठेले, मुटिया बड़ी संख्या में कार्यरत हैं लेकिन उनके लिए पीने के पानी की व्यवस्था अनुपात में बहुत कम है। इन सब क्षेत्रों में देशी-विदेशी दारू धड़ल्ले से बिकती है किन्तु पानी की प्याऊ नहीं है। यही नहीं कई जगह स्कूलों में बच्चों के लिये पेयजल की उचित व्यवस्था नहीं है और उन्हें स्कूल भवन के इतर पानी के लिये जाना पड़ता है। इसी संदर्भ में एक बच्चा दुर्घटना का उस वक्त शिकार हो गया जब पीने के पानी हेतु वह सड़क पार कर रहा था।
एक वक्त था जब देश के किसी हिस्से में बाढ़, सूखा या अकाल पड़ जाये तो कलकत्ता में सहायता के लिये जनसैलाब उमड़ पड़ता था। मारवाड़ी समाज इसमें अग्रणी था। अब तो कई वर्ष हो गये ऐसा ²श्य देखे हालांकि कोई न कोई आपदा हर साल आती है। तीन वर्ष पहले केरल, फिर उत्तराखंड, बिहार, प. बंगाल में भयंकर बाढ़ आयी पर एक दो संस्था को छोड़ किसी ने सुध नहीं ली। यही नहीं इसी साल जनवरी में उत्तर कोलकाता की एक बस्ती में भयंकर आग लगने से सैकड़ों घर जलकर राख हो गये। जो मिली सरकारी मदद मिली, संस्थाओं में एक संस्था को छोड़कर कोई आगे नहीं आयी। शिक्षा के क्षेत्र में तो लगता है समाज को सांप सूंघ गया है। मोन्टेसरी एवं इंगलिश मीडियम की स्कूल समाज के लोगों ने खुले हाथ खोली है क्योंकि शिक्षा अब एक अच्छा खासा व्यापार हो गया है पर मध्यम और निम्न मध्यम श्रेणी के बच्चों के लिए एक भी स्कूल नहीं खुला। अब पढ़ाई का कोई स्तर नहीं है लेकिन उनकी फीस सुनकर ही कई अभिभावकों के होश उड़ जाते हैं।
विगत 30 मार्च को राजस्थान दिवस था। इस बार कोविड के कारण कोई बड़े कार्यक्रम नहीं हुए पर इस दिन राजस्थानी समाज को अपने अतीत और वर्तमान के बारे में चिन्तन करना चाहिये था। वैसे इस तरह के गम्भीर मामलों के लिए किसी भी दिन विचार हो सकता है और हर दिन राजस्थान दिवस के रूप में मनाया जा सकता है।

पहले सेवाकार्य व्यक्तिगत तौर पर अधिक होता था परंतु अब सामाजिक संस्थाओं के रद्वारा यह दायित्व निभाया जा रहा है। सेवा के पैमाने का स्वरूप भी बदला है। आज मारवाड़ी समाज की संस्थाओं द्वारा रक्तदान, नेत्रदान, के साथ ही कृत्रिम अंग प्रत्यारोपण का कार्य बृहद रूप से किया जा रहा है। अनेक सामाजिक संस्थाओं द्वारा रुग्नवाहिनी एवं शववाहिनी का सफल संचालन किया जा रहा है। कोरोना महाकाल में मारवाड़ी समाज ने प्लाजमा दान का भी महतीं कार्य कर अनेक लोगों की जान बचाई है।
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