आधा चुनाव जीताते हैं नारे

 बड़ा दिलचस्प है इनका इतिहास

आधा चुनाव जीताते हैं नारे

पुरानेे जमाने में नगाड़े और गाजे-बाजे का युद्ध में जो महत्व था उससे कहीं अधिक कद्र चुनावी समर में नारों की है। कई नारे इतने सधे हुए होते हैं कि जनमानस के अन्दर पैठ जातेहैं। नारे कर्मियों में जोश भरते हैं और अच्छे नारे लोगों की जुबान पर बैठ जाते हैं। हर पार्टी अपने लिये ऐसा नारा तैयार करना चाहती है जो लोगों के गले उतर जाय। पर बहुत कम पार्टियों को ऐसे लुभावने नारे नसीब होते हैं। इतिहास गवाह है कि कम संसाधनों के बावजूद तगड़े नारों के सहारे कई पार्टियां चुनावी बेतरणी पार कर लेती है।



2019 में लोकसभा चुनावों में एक बार फिर मोदी सरकार का नारा लोगों को लुभा गया था और पूरे देश में यह नारा चल पड़ा। यही नहीं वाराणसी में प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र में ''हर हर मोदी - घर घर मोदीÓÓ ने भी जादू का काम किया। वहीं ''भाजपा भगाओ देश बचाओÓÓ का नारा फुस्स हो गया। इससे यह भी पता चलता है कि लोगों को काव्यात्मक नारा पसंद है पर नकारात्मक नहीं। इसी तरह 1998 के चुनाव में ''अबकी बारी अटल बिहारीÓÓ की तर्ज पर चुनावी बिगुल बजा था।

2009 में स्लमडॉग मिलियनेयर के ऑस्करी गाने ''जय होÓÓ का पट्टा कांग्रेस को मिल गया था। सन् 2004 में ''भारत उदयÓÓ की वजह से भाजपा अस्त हो गयी थी और ''इंडिया शाइनिंगÓÓ में भाजपा का अंग्रेजी नारा लोगों के गले नहीं उतरा और शाइनिंग का कोरा नारा भाजपा की चमक को ले बैठा।

नारों को चुनावी हथियार ही नहीं बनाया गया, कई बार देश का इतिहास लिखने के काम में भी लगाया गया क्योंकि नारों में अपने वक्त का इतिहास समाया हुआ है। याद करिये 1965 में प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने देश की रक्षा के लिए जवानों और देश के लोगों का पेट भरने वाले किसानों की मान-मर्यादा बढ़ाने के लिए नारा दिया था- ''जय जवान, जय किसानÓÓ। इस नारे ने 1967 में कांग्रेस को फिर से सत्ता दिलायी।

इसी दौर में प्रमुख विपक्षी दल जनसंघ और कांग्रेस ने अपने-अपने चुनाव चिन्हों को लेकर एक-दूसरे पर खूब निशाना साधा था। जनसंघ का चुनाव चिह्न दीपक और कांग्रेस का दो बैलों की जोड़ी में दिलचस्प नोकझोंक हुई। जनसंघ जहां ''जली झोंपड़ी, भागे बैल, यह देखो दीपक का खेलÓÓ नारे से प्रहार करता था, वहीं कांग्रेस का जवाबी नारा था ''इस दीपक में तेल नहीं, सरकार चलाना खेल नहींÓÓ भारी पड़ा।

कांग्रेस के अन्दर शक्तिशाली सिंडिकेट से जब इन्दिरा गांधी घिर गयी थी और उसे कड़े संकट का मुकाबला करना पड़ा तो इन्दिरा के इस नारे ने सिंडिकेट एवं विपक्ष के मिले जुले प्रबल विरोध को एक नारे ने ध्वस्त कर दिया। यह नारा था- ''गरीबी हटाओÓÓ। श्रीमती गांधी के भाषण का अभिन्न हिस्सा था- ''मैं कहती हूं गरीबी हटाओ- वे कहते हैं इन्दिरा हटाओ। चुनना आपको है।ÓÓ इस नारे एवं अपील ने भारत की जनता पर जादुई असर किया और इन्दिरा गांधी देश की बड़ी नेता के रूप में उभरी। फिर जय प्रकाश नारायण के सान्निध्य में सारी पार्टियों ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया। 1977 में जयप्रकाश नारायण ने नारा दिया ''इंदिरा हटाओ देश बचाओ।ÓÓ आपातकाल लागू करने वाली कांग्रेस का इस नारे ने पत्ता साफ कर दिया।

बाद में कर्नाटक के चिकमगलूर से इन्दिरा जी ने उपचुनाव लड़ा। तब कांग्रेस का नारा था- ''एक शेरनी- सौ लंगूर चिकमंगलूर भई चिकमंगलूर।ÓÓ दूसरा नारा था- ''चिकमंगलूर-अब दिल्ली कितनी दूर।ÓÓ 1980 में इन्दिरा जी की नाटकीय वापसी हुई। आपातकाल के कारण हाथ से गई सत्ता वापस इन्दिरा गांधी की गोदी में आ गिरी। लेकिन श्रीमती गांधी की इस धमाकेदार वापसी के लिए कांग्रेस नेता और सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीकांत वर्मा की दो मार्मिक पंक्तियां काम कर गयी-

''जात पर न पात पर, इन्दिरा जी की बात पर

मुहर लगेगी हाथ पर।

1984 में जब इंदिरा जी की हत्या हुई तो सहानुभूति लहर पैदा करने में एक नारे ने अहम् भूमिका निभायी थी- ''जब तक सूरज चांद रहेगा- इंदिरा तेरा नाम रहेगा। और नतीजतन कांग्रेस को भारी जीत हासिल हुई।''

1998 में ''अबकी बारी-अटल बिहारीÓÓ बीजेपी को खूब भाया और इसका खूब इस्तेमाल भी हुआ।

2019 में लोकसभा चुनाव में प. बंगाल में मिली भाजपा को 18 सीटों पर जीत ने भाजपा के लिये संजीवनी का काम किया। 2021 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का नारा ''19 में हाफ 21 में टीएमसी साफÓÓ का नारा भी लोगों में जमा। पर इसी बीच ममता की ओर से बंगला में नारा ''खेला होबे का अभी तक भाजपाई तोड़ नहीं निकाल पाये। यही नहीं इसका जवाब देने की बजाय भाजपा भी ''खेला होबे'' का ही नारा लगा रही है। पुरुलिया की जनसभा में 18 मार्च को पीएम मोदी बोले- ''विकास होबे''। जाहिर है बंगाल के फुटबॉल प्रेमियों के प्रिय नारे ''खेला होबेÓÓ का तोड़ भाजपा नहीं निकाल पा रही है। यही नहीं नंदीग्राम में दीदी का पांव टूटने के बाद नारों में संशोधन किया गया, उससे तो यह नारा और भी वजनदार बन गया- ''भांगा पांवे खेला होबे''।


दीदी का यह नारा भी रंग ला सकता है- ''बांग्ला निजेर मेये के चाईÓÓ (बंगाल अपनी बेटी को चाहता है)। तृणमूल के इस नारे को भाजपाइयों ने तोडऩे-मरोडऩे की कोशिश की पर नारे में भावुकता का जबर्दस्त पुट है अत: यह नारा बंगालियों के गले उतर रहा है। देखना है बंगाल विजय का सेहरा किसके सिर मढ़ा जाता है। पर नारा अपना काम करेगा और बंगाल में ''खेला होबेÓÓ।


Comments

  1. प्रणाम मान्यवर
    मैं आपकी बात से सहमत हूँ कि नोरों का विशेष महत्व रहा है। राजनीति के क्षेत्र में प्रभावशाली नारें बड़ी सहजता से लोगों की जुबान पर चढ़ जाते हैं पर नारों की भी अपनी गरिमा रहीं हैं। जिस तरह दिन प्रतिदिन राजनीति के क्षेत्र में नैतिक पतन हो रहा है इसका असर नारों पर भी देखा जा रहा हैं। उदाहरणस्वरूप जहाँ एक ओर 'बांग्ला निजेर मेये के चाय ' नारा दिल को छू लेने वाला है वही दूसरी ओर 'खैला हबे ' यह गले से नहीं उतर रही है। कृपया राजनीति को खेल न बनाएं।

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