धर्म के घालमेल से राजनीति आम आदमी के हाथ से फिसल रही है

 धर्म के घालमेल से राजनीति आम आदमी के हाथ से फिसल रही है

आज राजनीति में धर्म के नाम पर जिस तरह से लोगों को लामबंद किया जा रहा है उसे देखकर प्रतीत होता है कि व्यवहारिक तौर पर धर्मनिरपेक्षता है ही नहीं। आज धर्म का राजनीति में प्रयोग सिर्फ स्वहित एवं स्वार्थ के लिए ही किया जा रहा है। धर्म के नाम पर राजनीति में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया जा रहा है। अल्पसंख्यक समुदायों के लिए तुष्टिकरण की राजनीति अपने चरम सीमा पर पहुंच चुकी है। मेरे मुताबिक राजनीति अपने आप में धर्म होनी चाहिए।

जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) के अन्तर्गत चुनाव के दौरान जाति, धर्म, पंथ और भाषा के आधार पर वोट मांगना भ्रष्ट आचरण है। महात्मा गांधी ने भी दशक 1930 में धर्मनिरपेक्ष कानून और धर्मनिपरेक्ष राज्य की बात कही थी। जैसा कि पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी किताब दी डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखा है कि भारत तब तक आगे नहीं बढ़ सकता है, जब तक हम धार्मिक क्रिया-कलापों, पूजा-पाठ व धार्मिक समूहों को महत्व देना बंद न करें परन्तु क्या यह प्रभाव सिर्फ चंद लोगोंपर ही हुआ? भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में लोकतंत्र को सही रूप से क्रियान्वित करने के लिए राजनीति में धर्म की दखलंदाजी नहीं होनी चाहिए।



सुप्रीम कोर्ट ने 21 साल बाद एक बार फिर भारतीय राजनीति के चुनावी मुद्दों की आचार-संहिता तय करते हुए ऐतिहासिक फैसला दिया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह फैसला दिशा-निर्देश की तरह काम करेगा या फिर व्यवहार में इसे कानूनी तौर पर लागू किया जा सकेगा? अदालत ने कहा है कि चुनाव में कोई भी उम्मीदवार, उसका एजेंट या उम्मीदवार की तरफ से कोई और व्यक्ति मतदाता के धर्म, जाति, नस्ल और भाषा का हवाला देकर वोट मांग सकता है किसी को वोट देने से रोका नहीं जा सकता है। यह देश को चुनावी राजनीति की संकीर्ण, गलियों से निकल कर एकता और धर्मनिरपेक्षता में संवैधानिक राजमार्ग पर लाने वाला कदम है।



धर्म की अंगुली पकड़ राजनीति करने वालों ने राजनीति को दूषित ही नहीं किया, बल्कि चुनाव के एजेन्डा को ही बदल दिया। चुनाव का मकसद सरकार के कार्यों की समीक्षा करते हुए उसके कार्य को जारी रखने या उसे बदलने पर फैसला करना होता है। वोट की ताकत ही है कि आप सरकार बदल सकते हैं। लेकिन राजनीतिक पार्टियां मुद्दों की बात नहीं कर, वोटरों की धार्मिक एवं जातीय भावनाओं को भड़काती हैं ताकि प्रार्थी या पार्टी के कार्यकलाप उजागर न हो। एक तो आम बात है कि चुनाव क्षेत्र में जिस धर्म के मानने वाले या जिस जाति के लोग बहुलता में होते हैं वहां पार्टी उन्हीं को प्रार्थी बनाती है। मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में मुसलमान, पिछड़ी जाति बाहुल्य क्षेत्र में अनुसूचित जाति के लोगों को उम्मीदवार बनाया जाता है। वोटरों को जाति धर्म के नाम पर लुभाया जाता है एवं पार्टियां अपना उल्लू सीधा कर लेती हैं। आजकल एक नयी जाति पैदा हुई है वोट कटुआ के नाम से। यानि विपक्ष के वोटों को कौन काट सकता है, उनको उम्मीदवार बनाया जाता है। चुनाव दंगल में तीन-चार प्रमुख उम्मीदवार होते हैं, बाकी सारे विपक्ष का वोट निरस्त करने के ध्येय से खड़े किये जाते हैं। हिन्दूवादी एक दल ने हैदराबाद के ओवैसी साहब को इसलिए बढ़ावा दिया कि वे मुस्लिम वोटों को काट सकें। हैदराबाद में उनकी पार्टी का आधार है पर अन्य प्रदेशों में ''कटवाÓÓ के रूप में यह पार्टी काम कर रही है। बिहार में भाजपा-जदयू की सरकार को पुनस्र्थापित करने में ओवैसी की अहम् भूमिका थी। अपने इस साम्प्रदायिक असर के चलते ओवैसी ने गुजरात के निकाय चुनाव में भी सेंधमारी कर दी। प. बंगाल विधानसभा चुनाव में ओवैसी ने अपनी सतरंज बिछाने की बहुत चेष्टा की, कई बार बंगाल आये किन्तु वे इतने अधिक ''एक्सपोज" हो चुके हैं कि भाजपा उनका बंगाल चुनाव में इस्तेमाल नहीं कर सकी।

हमारी चुनावी राजनीति में भी कुम्भ मेले में अखाड़ों की तरह लोक धूलि रमाने लगे। मोदी जी की राम भक्ति, वैष्णव देवी की गुफा में ध्यान मग्न होकर बैठना हो या राहुल गांधी का अचानक शिव भक्त वाला रूप या प्रियंका गांधी का गंगा संगम स्नान हैरान करने वाले हैं। चुनावी विशेषज्ञ सोचते हैं कि यह बहरुपियापन वोट दिलाता है पर इतिहास साक्षी है इस तरह की नौटंकी राजनीतिक व्यक्तित्व को धूमिल करती है। मोदी जी ने वैष्णो देवी की गुफा में ध्यान लगाकर या राम मंदिर शिलान्यास में हवन-पूजा कराके धार्मिक भावना का तुष्टीकरण किया होगा पर मोदी जी की यह छवि कभी न कभी उनको सबक सिखा सकती है। बंगाल के चुनाव में नंदीग्राम में ममता ने एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर जाकर पूजा की, चंडीपाठ किया एवं उनके प्रतिद्वंद्वी शुभेन्दु अधिकारी ने भी नंदीग्राम का शायद ही कोई मन्दिर छोड़ा हो जहां पूजा-अर्चना नहीं की। पर उनका यह धर्मात्मा रूप चुनाव में कितना सहायक होगा कहा नहीं जा सकता। कभी-कभी कुछ नेता इतर धर्म का भी सम्मान कर अपनी भावमूर्ति उजागर करने का प्रयास करते हैं। यह दांव कभी उल्टा भी पड़ता है। सीपीएम के प्रवीण सांसद मो. सलीम एक जुझारू एवं निष्कलंक नेता हैं। किन्तु अपनी भावभूर्ति को व्यापक बनाने के चक्कर में एक बार उत्तर कोलकताता से चुनाव हार गये थे। सलीम साहब आलू पोस्ता में मतदाताओं का अभिवादन कर रहे थे कि एक मन्दिर के सामने से गुजरे। किसी शुभेच्छु ने उन्हें राय दी कि जरा मन्दिर भी हो लीजिए एवं चरणामृत ले लीजिये। सलीम साहब ने ज्यों ही अंजलि भरके चरणामृत का आचमन किया किसी नो फोटो खींच ली। दूसरे दिन एक प्रमुख उर्दू अखबार में उनकी चरणामृत ग्रहण करते हुए फोटो प्रमुखता से प्रकाशित कर दी। बस क्या था, मुसलमानों में वे खलनायक बन गये और चुनाव उनके हाथ से फिसल गया।

जब से धर्म का तड़का लगा है, राजनीति अब आमलोगों की नहीं रही। आम आदमी की रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि अहम् मुद्दे तेल लेने चले गये और उनकी जगह सोशल मीडिया में एक नारा वायरल हो रहा है कि पेट्रोल चाहे 200 रुपये कर दो पर काशी, मथुरा में भी राम मन्दिर का शिलान्यास करवा दो मोदी जी।

प. बंगाल चुनाव में सौभाग्य से इस बार हिन्दू-मुसलमान नहीं हो रहा है। नन्दीग्राम के कारण किसानों की समस्या पर फोकस हो रहा है। सीपीएम सरकार भी सिंगूर में किसानों की भूमि को सस्ते में अधिग्रहण कर उसे टाटा को गाड़ी कारखाना बनाने के लिये देने का मुद्दा रंग लाया और चौंतीस साल पुरानी बामपंथी सरकार को विदा होना पड़ा।

पर इस बार राज्य विधानसभा चुनाव में बामपंथियों का सिद्दिकी के साथ चुनाव समझौता इसलिए गले नहीं उतरता क्योंकि इंडियन सेक्यूलर फ्रंट नाम से भले ही सेक्यूलर हो पर वह धर्म आधारित पार्टी है जिसके नेता फुरफुरा शरीफ मजार का पीरजादा है। इसलिए बहुत बड़ी जनसभा करने के बावजूद कांग्रेस-बामपंथी एवं आईएसएफ का गठजोड़ का दूरगामी असर अच्छा नहीं होगा।

भारत कृषि प्रधान एवं धर्म प्रधान देश है किन्तु राजनीति का धर्म से घालमेल को लोग पसन्द नहीं करते हैं।

Comments

  1. यदि 1947 में गांधी ने सचमुच अपना वादा निभाया होता कि उनकी लाश पर भारत के टुकड़े की तो आज धर्म की राजनीति नहीं होती..

    ReplyDelete

Post a Comment