अब ये देश हुआ बेगाना

 भविष्य को आकार दे रहे उभरते 100 नेताओं की टाईम पत्रिका सूची में एक भारतीय कार्यकर्ता और भारतीय मूल के पांच व्यक्तियों ने जगह पायी है। इनमें ट्विटर की शीर्ष वकील विजया गुड्डे और ब्रिटेन के वित्तमंत्री ऋषि सुनक शामिल हैं। पत्रिका में सुनके केबारे में कहा गया है कि एक साल से कुछ अधिक समय तक 40 वर्षीय सुनक ब्रिटिश सरकार में गुमनाम कनिष्ठ मंत्री रहे, लेकिन पिछले साल उन्हें ब्रिटेन का वित्तमंत्री बनाया गया। युवगोव के सर्वेक्षण के अनुसार वह ब्रिटेन के अगले प्रधानमंत्री के तौर पर सट्टेबाजों की पसंद हैं।



इस समय लगभग साढ़े तीन करोड़ भारतीय मूल के नागरिक दुनिया में दनदना रहे हैं। वे कभी गये थे वहां मजदूरी, शिक्षा और रोजगार की तलाश में लेकिन वे अब उन देशों की रीढ़ बन गये हैं। आज यदि वे साढ़े तीन करोड़ भारतीय अचानक भारत लौट आने का फैसला कर लें तो अमेरिका जैसे कई संपन्न देशों की अर्थव्यवस्था घुटनों के बल रेंगने लगेगी। अमेरिका सहित देशों में भारतीय लोग ज्ञान-विज्ञान और अनुसंथान के क्षेत्रों में सर्वोच्च स्थानों पर प्रतिष्ठि हैं।

दुनिया के 15 देशों में भारतीय मूल के नागरिक या तो वहां के सर्वोच्च पदों पर हैं या उनके बिलकुल निकट हैं। वे उन देशों के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हैं या सर्वोच्च न्यायाधीश हैं या सर्वोच्च नौकरशाह हैं या उच्च पदस्थ मंत्री आदि हैं। पांच राष्ट्रों के शासनाध्यक्ष भारतीय मूल के हैं। तीन उप-शासनाध्यक्ष, 59 केन्द्रीय मंत्री, 76 सांसद और विधायक, 10 राजदूत, 4 सर्वोच्च न्यायाधीश, 4 सर्वोच्च बैंक प्रमुख और दो महावाणिज्य दूत भारतीय मूल के हैं।

कभी-कभी भारत के आंतरिक मामलों पर उनका बोल पडऩा हमें आपत्तिजनक लग जाता है लेकिन उनके लिए यह स्वाभाविक है क्योंकि अन्तर्मन से उनकी आत्मा भारतीय है। इसलिए हमें ज्यादा बुरा नहीं मानना चाहिए। हमारी कोशिश यह होनी चाहिये थी कि भारत से प्रतिभा पलायन को रोका जाय।

यह कोई असामान्य बात नही है कि इन योग्य व्यक्तियों में से कुछ लोगों को अपने ही देश में कोई सन्तोषजनक काम नहीं मिल पाता या किसी न किसी कारण से वे अपने वातावरण से तालमेल नहीं बिठा पाते। ऐसी परिस्थितियों में ये लोग बेहतर काम की खोज के लिए अथवा अधिक भौतिक सुविधाओं के लिए दूसरे देशों में चले जाते हैं। इस निर्गमन अथवा प्रवास को हाल के वर्षों में प्रतिभा पलायन की संज्ञा दी गई है। अपने कुशल और प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्तियों की हानि से विकासशील देश सब से अधिक प्रभावित हुए हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि विकासशील देशों में वेतन और अन्य सुविधाओं के रूप में प्राप्त होने वाले लाभ कम हैं। यह हो सकता है कि प्रत्येक मामलें में इन प्रतिभा सम्पन्न लोगों के लिए वेतन में रहने वाली रकम का इतना महत्व न भी हो जितना कि अपने आपको उच्चतम पूर्ति की भावना प्रदान करने, अपनी योग्यता को बढ़ाने अथवा अपनी प्रतिभा का विकास करने के लिए उचित सुविधाओं का प्राप्त होना है। अत: एक वैज्ञानिक या चिकित्सा अथवा ज्ञान के किसी अन्य क्षेत्र का विशेषज्ञ कम वेतन और अन्य कठिनाइयों को भी सह सकता है, यदि उसकी योग्यता को अच्छी मान्यता मिले, उसके काम का ठीक मूल्यांकन हो तथा विशेषत: उसकी विशेषता वाले क्षेत्र में अनुसंधान और सुधार के अच्छे अवसर प्राप्त हों। इस प्रकार अच्छी प्रकार से साधन सम्पन्न प्रयोगशाला अथवा पुस्तकालय राष्ट्रीय प्रतिभाओं में से अधिकांश को अपनी मातृभूमि छोडऩे से रोक देंगे चाहे विदेशों में कितना अधिक वेतन क्यों न मिले। यद्यपि भौतिक सम्पदा बहुत बड़ा आकर्षण होता है परन्तु जिस आवश्यकता की पूर्ति ये लोग करना चाहते है उसका यह एक तुच्छ भाग ही है। जब कोई वैज्ञानिक अपने देश को छोड़ता है और किसी दूसरे देश को अपना लेता है तो उसकी इस कारवाई की प्रेरक वे आशाएं है जो उसके स्वप्नों को पूरा करेंगी, उसकी महत्वाकांक्षाओं के मार्ग को प्रशस्त करेगी।

भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका में बसे भारतवंशियों से स्वदेश लौटकर औद्योगिक एवं आर्थिक क्रांति में योदान की मार्मिक अपील की थी। उस वक्त भारतीय मूल के नागरिकों ने तालियों की गडग़ड़ाहट से प्रधानमंत्रीके भाषण का स्वागत किया था। लगता था कि इनमें सभी नहीं तो कुछ भारत लौटेंगे। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। यही नहीं भारत के अनेक प्रान्तों ने अपने मूल निवासियों से अपने पितृस्थान आकर उद्योग लगाने की अपील की थी। राजस्थान कॉन्कलेव में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने वर्ष 2011 में चार दिन का शानदान आयोजन जयपुर में किया था। विदेशों में बसे राजस्थानी मूल के लोगों ने शिरकत की किन्तु अभी तक कोई उल्लेखनीय प्राप्ति नहीं हुई। बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी कुछ इसी तरह प्रयास किया पर कोई बंगाली उद्योगपति नहीं लौटा।

सिर्फ उद्योग मामले में ही नहीं नौकरियों में भी भारत में पढ़-लिखकर या अपने अभिभावकों से मोटी रकम विदेशों में पढ़ाई पर खर्च करवा कर कितने बेटे और बोटियां हैं जो भारत आकर नौकरी करना चाहते हैं? इसका जवाब आप सभी जानते हैं। विदेशों में बस कर सारे दिन कोल्हू के बैल कीतरह घूमते हैं, मशक्कत करते हैं पर अपने देश में मां-बाप भाई-बहन के साथ रहने का नैसर्गिक सुख उन्हें रास नहीं आता। हमारे बच्चे लौट कर घर वापस नहीं आना चाहते। अमेरिका, ब्रिटेन, अरब देशों में उनका दोहन होता है फिर भी वे मजे में हैं।

मुझे कहीं पढ़ा हुआ एक वाकया याद आ गया। भारत के स्वतंत्र होने के कुछ समय बाद ही प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लन्दन जाकर भारतीय छात्रों से भेंट की। उनके साथ आईटीसी के तत्कालीन चेयरमैन पी एन हस्कर साहब भी थे। मशहूर फिल्म एक्टर बलराज साहनी के सुपुत्र परीक्षित भी छात्र थे। पं. नेहरू ने परीक्षित से पूछा पढाई के पश्चात् भारत लौटने आयेंगे तो। परीक्षित ने कहा कि भारत में मुझे कोई सम्भावना नजर नहीं आती अत: यहीं बसने का मन है। नेहरू जी ने परीक्षित के सामने ही हक्सर से कहा-हमलोगों ने बेकार में ही अंग्रेजों के डंडे खाये, जेल की यातना सही। परीक्षित का शर्म से सिर झुक गया और उसने तय किया कि पढ़ाई पूरी करके वह भारत लौटेगा। आज हमारे बच्चों को वापस लौटने में शर्म महसूस होती है। वे अमेरिका, ब्रिटेन में ही अपनी प्रतिभा के दोहन से मोहित हैं। भारत की ओर से भी इस पलायन को रोकने के लिए कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं हो रहा है।

Comments

  1. आदरणीय
    प्रणाम
    जब तक हमारे देश में प्रतिभा की कद्र नहीं होगी तब तक इस पलायन को रोका नहीं जा सकता। आज का युवा भावुकता के प्रवाह में नहीं बहता,वह दिल से सोचने की अपेक्षा दिमाग से सोचता है। जहाँ उसे अपने मेहनत, परिश्रम का सही मूल्य मिलता है वह वही रहना पसंद करता है। विदेशों में जा कर बसना उनका सपना होता जा रहा है । कहीं न कहीं हम देशवासी ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। हमारे देश में भाई- भतीजावाद,चापलूसो का वर्चस्व है। ईमानदारी से काम करने वालों को कोई महत्व नहीं देता। कोल्हू के बैल की तरह तो हम अपने देश में भी पीस रहे हैं ।दो वक्त की रोटी के लिए दिन- रात जी तोड़ मेहनत करते हैं।
    प्रतिभा का पलायन वास्तव में एक गंभीर चिंतन का विषय है।

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  2. उनमें तो बुराई है ही जो देश की कमियाँ निकाल कर देश को नीचा दिखाते है लेकिन उससे भी ज्यादा बुराई उनमें है जो इन बातों में रस लेते हैं, बुराई करने वालों को और बढ़ावा देते हैं जिससे आज की पीढ़ी में देश के निम्नता की भावना बढ़ती जा रही है और आज सभी विदेश जाकर वहीं बसना चाह रहे हैं।हम भारतवर्ष में रहकर कभी कहीं और की बुराई नहीं सुन पाते क्योंकि उसे बुरा बताने वाला कोई होता ही नहीं है.....हम नागरिकों को भी यह गुण अपनाना होगा तभी देश को पनपाया जा सकेगा और इसकी शुरुआत हर घर से होनी चाहिए।

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  3. हम सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते। अपने अंदर कमी निकालना और उन्हें सुधारने का प्रयास करना रस लेना नहीं कहा जा सकता। मगर अच्छाइयों को नजरअंदाज कर सिर्फ कमी का बखान करना जरूर रस लेना कहला सकता है। देश हमारा हैं हमें इसके सौंदर्य बोध और शक्ति बोध को क्षति नहीं पहुँचाना है पर अपनी कमी पर भी ध्यान देना है।

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