प.बंगाल विधानसभा चुनाव का परिदृश्य
पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा होने ही वाली है। सम्भवत: अप्रैल के तीसरे हफ्ते में 6 या 7 चरणों में चुनाव होंगे। चुनाव के पहले दल बदल का सिलसिला जोरों पर चला और तृणमूल के कई विधायक एवं कुछ मंत्री पार्टी छोड़कर चले गये। अभी चुनाव को लेकर जितनी गहमागहमी हो रही है, आने वाले दिनों में यह सरगर्मी और बढ़ेगी एवं चुनाव का शोर-शराबा चलता रहेगा। प. बंगाल विधानसभा की 294 सीटों पर चुनाव होगा, जिसमें मुख्य रूप से सत्ताधारी पार्टी तृणमूल के मुकाबले कांग्रेस-बाममोर्चा का गठबंधन के अलावा भारतीय जनता पार्टी चुनाव मैदान में रहेगी। कुछ छोटी पार्टियां किसी बड़े दल के साथ गठबंधन का हिस्सा बनने के लिए भाग दौड़ में लगी हुई है।
प. बंगाल चुनाव के पूर्व कई स्थानों पर हंगामा हुआ जैसा कि चुनाव के मौके पर अतीत में भी होता रहा है। इसमें कोई नयी बात नहीं है। फिर भी प. बंगाल राजनीतिक रूप से उत्तर भारत के अन्य प्रान्तों की तुलना में अधिक परिपक्व है। हां इस बार दल बदल की जो घटनायें हुई वैसा पहले कभी नहीं हुआ। हालांकि अगर राजनीतिक इतिहास की ओर ²ष्टिपात करें तो बंगाल में बड़े दल विभक्त हुए हैं। कम्युनिस्ट पार्टी टूट कर सीपीआई और सीपीएम बनी। पहले उनमें काफी संघर्ष हुआ लेकिन अभी सीपीआई, सीपीएम दोनों अलग पार्टियां होते हुए भी बाममोर्चा में शुरू से एक साथ है। इसके पश्चात् कांग्रेस से निकल कर कभी बंगला कांग्रेस पार्टी बनी जिसमें अजय मुखर्जी, सुशील धाड़ा जैसे तपे तपाये और साफ सुथरी छवि वाले नेता थे। बाद में यह क्षेत्रीय पार्टी अस्तित्वहीन हो गयी और अब तो वह इतिहास के पन्नों में सिमट गयी। प. बंगाल में क्षेत्रीय पार्टियों का भविष्य कभी उज्ज्वल नहीं रहा। यहां बंगाली प्रान्तीयतावाद की वकालत करती हुई पार्टी बंगाल नेशनल वॉलीन्टियर्स पार्टी यानि क्चहृङ्कक्क बनी पर कुछ समय में ही पार्टी का अस्तित्व समाप्त हो गया। बंगला कांग्रेस सत्ताधारी दल होते हुए भी अधिक समय तक नहीं चल सका और अब उसका नामो निशां भी बाकी नहीं है। उसी तरह जब तृणमूल कांग्रेस सृजन की घोषणा कांग्रेस से निकल कर ममता बनर्जी ने किया तो हमें लगा कि यह नयी पार्टी भी कुछ समय में विलीन हो जायेगी। इस पार्टी में शामिल हुए कई नेता भी ऐसा मानते थे। पर तृणमूल कांग्रेस समय के साथ-साथ वृहद होती गयी और अब तो अपने मूल संगठन कांग्रेस का भी उसके सामने नगण्य स्वरूप रह गया है। कांग्रेस का लगभग पूरा युवा-कुनबा तृणमूल में चला गया और कांग्रेस सिकुड़ती जा रही है। कुछ वर्ष पहले कांग्रेस में एक बार फिर भगदड़ मची और कांग्रेसकर्मी नेताओं ने तृणमूल का दामन थाम लिया। तृणमूल की नेत्री ममता बनर्जी ने कई मुद्दों पर लड़ाई लड़ी और उसे सफलता भी मिली। सिंगूर में किसानों की जमीन वापसी एवं नंदीग्राम में भी किसानों की लड़ाई के साथ-साथ केन्द्रीय सरकार से भी उसकी जबर्दस्त भिड़ंत हुई। सीपीएम के 34 वर्षों के शासन को उखाड़ फेंकने के बाद वह रुकी नहीं, दूसरे चरण में 2014 में केन्द्र में बनी भाजपा की सरकार के विरुद्ध ममता ने मोर्चा खोला।
ममता बनर्जी ने तृणमूल के संगठन को अखिल भारतीय बनाने की भी चेष्टा की किन्तु इसमें उसे सफलता नहीं मिली लेकिन एक क्षेत्रीय दल के रूप में तृणमूल काफी मजबूत हुई। कांग्रेस से तो बड़ी संख्या में राजनीतिक कर्मी तृणमूल के खेमे में आ गये, बल्कि सीपीएम, फारवर्ड ब्लॉक जैसे बामपंथी दलों के लोगों ने भी तृणमूल का रुख किया। अब इसी वर्ष 2021 में होने वाले विधानसभा चुनाव में तृणमूल के मुकाबले भारतीय जनता पार्टी का मुख्य संगर्ष होता दिखाई पड़ रहा है। लेकिन तृणमूल के लिए बुरी खबर है कि उसके कई विधायकों एवं मंत्रियों ने पार्टी छोड़ दी और भाजपा का झंडा थाम लिया। चुनाव में ी जो मुख्य लड़ाई है वह मोदी के हिंदुत्व बनाम ममता बनर्जी के बंगालियाना मिजाज के बीच है। मोदी-शाह जहां बंगाल में मुसलमानों के तुष्टिकरण का आरोप ममता पर जड़ रहे हैं एवं भाषणों में यह अभियोग लगाया है कि ममता की तुष्टिकरण नीति के कारण प. बंगाल बंगलादेश बनता जा रहा है। दूसरी तरफ ममता का यह अभियोग है कि मोदी-शाह बंगाल के बाहर से आकर यहां अपना वर्चस्व बनाने में लगे हैं, ये बाहरी लोग हैं जो बंगाल की संस्कृति और संस्कार से वाकिफ नहीं हैं। हाल ही में विक्टोरिया मेमोरियल में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की 125वीं जयन्ती पर मनाये जा रहे पराक्रम दिवस पर जब मुख्यमंत्री माइक पर बोलने ही वाली थी कि भीड़ में से कुछ लोगों ने ''जय श्री रामÓÓ का नारा लगाया तो ममता उखड़ गयी एवं बिना भाषण दिये ''जय हिंद, जय बंगालÓÓ बोलकर बैठ गयी। ममता ने कहा कि मेहमान के रूप में मुझे बुलाकर मेरा अपमान किया गया जो प्रधानमंत्री को शोभा नहीं देता। अगले दिन बंगाल के सभी बंगला अखबारों ने ममता को अपमानित करने वाली बात को सुर्खियों में छापा। प्रेस ने बंगाल के चुने हुए मुख्यमंत्री के अपमान वाली बात को प्रमुखता से छापा। बंगाल के प्राय: सभी बुद्धिजीवी, कलाकार, लेखक आदि ने इसकी निन्दा की।
इस परिप्रेक्ष्य में राज्य का चुनाव हिन्दुत्व बनाम बंगालियाना गौरव के बीच होगा, ऐसा लग रहा है। राज्य के अधिकांश हिन्दीभाषी भाजपा के हिमायती हैं पर ममता की बंगाली भावमूर्ति का मुकाबला मोदी-शाह का हिंदुत्व कहां तक कर पायेगा, देखना है। प. बंगाल में रथयात्रा का दौर भाजपा ने पुन: शुरू किया है। विकास एवं बेहतर प्रशासन के मुद्दों का गौण होना दुर्भाग्यपूर्ण है।
इसी परिप्रेक्ष्य में बंगाल के चुनाव में भावनात्मक मुद्दों की भिड़न्त है। हालांकि राज्य के चुनाव में हिंसा की बड़ी गुंजाइश नजर नहीं आती पर छोटे-मोटे संघर्ष को रोकना मुश्किल है। हिन्दीभाषियों को बड़ी संख्या में मताधिकार का प्रयोग करना चाहिये। चाहे जिसे भी समर्थन दें पर मतदान में भागीदार बनें, तटस्थ नहीं रहें। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता की यह पंक्ति ध्यान में रखें-
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।
मान्यवर प्रणाम
ReplyDeleteवर्तमान राजनेताओं में ठहराव की कमी है,अपने पार्टी के प्रति निष्ठा का अभाव है। नेता,मंत्री उसूलो पर चलने की अपेक्षा अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं। जहाँ अपना फायदा होता नज़र आ रहा है वही शामिल हो रहे हैं।
ऐसे में हम 'आम जनता ' को सजग होने की नितांत आवश्यकता है ,हमें अपने मताधिकार के महत्व को समझते हुए इसका उचित उपयोग करना होगा। नेताओं की चिकनी-चुपड़ी बातों,चुनावी वादों से प्रभावित हुए बिना अपनी बुद्धि, विवेक के आधार पर,अपनी समझ के आधार पर अपना मतदान देना होगा।