बंगाल और हिन्दीभाषीजन्मभूमि महान है पर कर्मभूमि वन्दनीय है
बंगालमें हिन्दीभाषियों का इतिहास लगभग बंगाली जाति जितना ही पुराना है। बंगाली जाति का इतिहास तीन सौ साल पुराना बतायाजाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि बंगाली समाज का उद्भव उत्तर प्रदेश से हुआ था अत: यूपी में उपाध्याय हैं तो बंगाली भी मुखोपाध्याय, चट्टोपाध्याय, गंगोपाध्याय, बंद्योपाध्याय हैं। खैर इतिहास में शोध से ही पता लग सकता है कि हिन्दीभाषियों का बंगाल में आगमन कब हुआ था। इन दिनों बंगाल में हिन्दीभाषियों की भूमिका को लेकर भी कई बार सवाल उठते हैं क्योंकि इस राज्य में हिन्दी समाज अल्पसंख्यक होते हुए भी उसकी भूमिका हमेशा बड़ी अहम् रही है। वैसे तो उत्तर भारत के हर प्रदेश से लोग आकर बंगाल विशेषकर कलकत्ता में रच-बस गये लेकिन सुदूर राजस्थान से वहां का बनिया या व्यापारी बंगाल में अपना तम्बू दो सौ वर्ष पहले गाड़ चुका था। तम्बू मैं इसलिये कहता हूं कि ''परदेश" में जगह बनाने के पहले लोग तम्बुओं में रहते हैं। मारवाड़ी का अपना घर नहीं था, वह आकर किसी परिजन की गद्दी (व्यापारिक स्थान) में रहता था और ढ़ाबे या बासे में खाकर अपने कामकाज में जुट जाता था। आज के कई करोड़पति या अरबों-खरबों के मालिकों ने अपना जीवन इसी तरह शुरू किया था। अधिकांश छात्र सुबह की कॉलेज में पढ़ते थे और दिन में कहीं नौकरी अथवा व्यवसाय। आज उनमें कई बड़े उद्योगपति हैं। लेकिन यह सत्य है कि वे रोजगार के लिये आये थे, ज्ञान अर्जित करने के लिये नहीं। उस वक्त उनका बंगाल की संस्कृति या साहित्य से कोई सरोकार नहीं था। हावड़ा स्टेशन से निकलकर हावड़ा पुल पार कर उन्हें जहां जगह मिली वहीं तम्बू गाड़ दिया। जी हां, उसी को बड़ाबाजार कहते हैं। जब आर्थिक रूप से वे कुछ सक्षम हुये तब जाकर राजस्थान से अपना परिवार लाकर रहने लगे। फिर धीरे-धीरे बड़ाबाजार से अलग यहां-वहां घर लेकर बस गये। अब तो कलकत्ता का ऐसा कोई इलाका नहीं है जहां कोई मारवाड़ी परिवार न रहता हो। सम्पन्नता आने के बाद बंगाल की संस्कृति और साहित्य से इस समाज का सरोकार हुआ। और इस क्षेत्र में भी इस समाज ने बड़ी उपलब्धि हासिल की। आपको जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में सन् 1930 में बंगला भाषा में पहला एम.ए. पास करने वाला एक बंगाली नहीं, मारवाड़ी था जिसका नाम था भगवान दास हरलालका। और यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि हिन्दी में पहला एम.ए. करने वाले सज्जन एक बंगाली थे जिनका नाम था नलिनी मोहन सान्याल। हिन्दी-बंगला की यह जुगलबन्दी अविश्वसनीय किन्तु सत्य है।
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| हिन्दी का पहला अखबार जो कलकत्ता से प्रकाशित हुआ |
मारवाड़ी इसलिये घर छोड़कर आया क्योंकि राजस्थान में रोजगार के साधन नहीं थे। न ही खेती के लायक उपजाऊ जमीन थी न ही नदी या पहाड़ा। राजस्थान का आदमी सिर्फ कलकत्ता ही नहीं, दार्जिलिंग के पहाड़ों में गये जहां पाट (कच्चा जूट) की खेती होती है, उन स्थानों में भी मारवाडिय़ों ने अपना डेरा बनाया। इसलिये बंगाल में कहीं भी जायें आपको राजस्थानी समाज की बस्ती जरूर मिलेगी।
हिन्दीभाषी का मतलब सिर्फ मारवाड़ी नहीं। बिहार, उत्तर प्रदेश के लोग भी बंगाल में आये। इनमें बड़ी संख्या में छोटे दुकानदार, शिक्षक, दरवान एवं नौकरी करने वाले वेतनभोगी कर्मचारी थे। बड़ी संख्या में बिहार के लोग आये क्योंकि जूट मिल एवं अन्य कारखानों में श्रमिकों की आवश्यकता की पूर्ति बिहार के लोगों ने की। यूपी से शिक्षक एवं दुकानदारों की संख्या अधिक है। कुछ ने छोटे-छोटे उद्योग भी शुरू किये।
बंगाली समाज ने हिन्दीभाषियों के साथ सह अस्तित्व बनाकर रखा क्योंकि वे बुद्धिजीवी थे, पढ़े-लिखे, कला-कौशल में निपुण थे, साहित्य सृजन करने वाले थे और इन क्षेत्रों में हिन्दीभाषियों ने कभी उनका मार्ग अवरुद्ध नहीं किया। उद्योग, व्यापार, दुकानदारी में हिन्दीभाषियों के समर्पण की बंगाल ने दाद दी तो हिन्दीभाषी ने भी बंगाली के कला, साहित्य, संस्कृति के भंडार पर कभी बुरी नजर नहीं डाली। दोनों समाज का सह अस्तित्व का ही परिणाम है कि बंगालमें हिन्दीभाषियों ने अपना स्थान बनाया और बंगाली समाज ने उनकी उद्यमशीलता, निष्ठा एवं श्रम की कद्र की। कई बार छोटे-मोटे फसाद हुये, एक-दो बार हिन्दीभाषियों के साथ संघर्ष की नौबत आयी। 1967 में संयुक्त मोर्चा की सरकार के समय श्रमिकों द्वारा मालिकों का घेराव से उत्तेजना हुई। कुछ उद्यमियों को बंगाल छोड़कर जाना पड़ा। श्रमिकों एवं उनके संगठनों के भी होश ठिकाने आ गये और जो लोग उद्योग-व्यापार करने बाहर गये थे, लौट कर वापस आ गये क्योंकि जो बात बंगाल में थी, वह कहीं और नहीं मिली।
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| भगवान दास हरलालका | (बंगला भाषा में पहला एम.ए.) |
हिन्दीभाषियों में ऐसे बहुत से परिवार हैं जो पीढिय़ों से यहां रहते हैं। किसी की चौथी तो किसी की पांचवीं पीढ़ी। वे बंगला फर्राटे से बोलते हैं। हिन्दी का पहला अखबार सन् 1826 को कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। नाम था ''उदन्त मार्तण्ड"। अब हिन्दी अखबार, पत्र-पत्रिकाओं की असल संख्या पता लगाना मुश्किल है। हिन्दी के साहित्यिक मंच भी बड़ी संख्या में सेवारत है। हिन्दी का ऐसा कोई सर्वभारतीय साहित्य साधक नहीं है जिसका कलकत्ता से आत्मीय समबन्ध नहीं रहा हो। कविवर निराला जी का जन्म बंगाल के महिशादल में हुआ। महान् छायवादी कवि जयशंकर प्रसाद की पुस्तैनी दुकान कलकत्ता में ही थी। इसी तरह हिन्दी के कई मंच कलकत्ता एवं बंगाल में हैं।
हिन्दीभाषियों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व लेकिन कम होता जा रहा है। इस पर हिन्दीभाषी नौजवानों को सोचना चाहिये। आज से पचास-साठ वर्ष पहले बंगाली बन्धुओं की धारणा थी कि मारवाड़ी या बिहारी यहां सिर्फ धंधा या रोजगार करने आते हैं लेकिन अब इस धारणा का भी अवसान हो गया। बंगाली समाज के बहुत सारे लोग देश के अन्य प्रान्तों में बस गये हैं, वे अब बंगाल लौटना नहीं चाहते। हम हिन्दी वाले अब बंगाल को अपना सर्वस्व दे चुके हैं। हमारे लिये यह ''सेकेण्ड" नहीं ''फस्र्ट" होम है। मैं जब कभी राजस्थान में अपने पितृ स्थान पर जाता हूँ, वहां के लोग मुझसे कलकत्ता से आया एक मेहमान की तरह ही व्यवहार करते हैं।
जन्मभूमि नि:सन्देह महान् होती है किन्तु कर्मस्थली या कर्मभूमि पूज्य है, वन्दनीय है वह हमारी मां की तरह है जो हमें अपनी गोद में पालती है।


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