क्या है किसानों के 'अजेय' आंदोलन के पीछे?

 क्या है किसानों के 'अजेय' आंदोलन के पीछे?

भारत के मशहूर प्रेस फोटोग्राफर श्री रघु राय ने दिल्ली सीमा पर चल रहे किसान आन्दोलन के बारे में एक टिप्पणी को नजरन्दाज नहीं किया जाना चाहिये। रघु राय ने कहा कि मैंने अपने (फोटोग्राफी) जीवनकाल में इतना सरल, व्यवस्थित एवं लम्बा चलने वाला ग्रामीण आंदोलन नहीं देखा। रघु राय जी कोई राजनीतिक नेता नहीं हैं और न ही उन्होंने आज तक किसी राजनीतिक गतिविधि पर कोई टिप्पणी की है। वे विशुद्ध रूप से प्रेस छायाकार हैं। कैमरे की लेन्स में दंगाइयों, पुलिस लाठीचार्ज, मारपीट, अपराधियों की क्रूरता से लेकर राजनीतिक जुलूस की छवि को लेन्स में उतार कर समाचारपत्र के पाठकों तक पहुंचाने की कवायद में ही उनकी जिन्दगी बीत गयी। वे देश के कई ऐतिहासिक कर्मकांडों के गवाह हैं। लेकिन पहली बार एक शान्त, सुव्यवस्थित, अनपढ़ या कम पढ़े-लिखों के प्रतिवाद एवं प्रतिरोध के संस्कारित धरने से वे इतने प्रभावित दिखे कि अपनी भावनाओं को रोक नहीं सके। मैं किसान आंदोलन के मकसद, कृषि सुधार बिल, सरकार और किसान नेताओं के बीच वार्ता और इस समस्या की गुणवत्ता या किसी पहलू में नहीं जा रहा हूं। न ही इस पर कोई प्रतिक्रिया देना मेरा मकसद है। आंदोलन कहां तक जायज है और सरकार का किसानों के प्रति रवैया, इस पर भी मेरा प्रतिक्रिया देने का कोई इरादा नहीं है। मैं सिर्फ इस बात का उल्लेख कर रहा हूं कि देश की आजादी के पश्चात् 72-73 वर्षों में बहुत से आंंदोलन हुये पर यह सबसे अलग है। 40 से अधिक किसान यूनियनों का आंदोलन गत 38 दिनों से चल रहा है और इस दौरान एक भी ऐसी घटना नहीं हुई है जिससे इस पर अंगुली उठायी जा सके।

दी टेलीग्राफ, 1 जनवरी, 2021

गांधी जी के महाप्रयाण के पश्चात् गांधी के नाम पर राजधानी दिल्ली एवं देश के अन्य हिस्सों में आंदोलन हुए हैं। गांधी की मूर्ति के नीचे धरना और गांधी मूर्ति से जुलूस निकालने के ²ष्टांत आये दिन देखने को मिले हैं। कई बार लगता है कि गांधी मूर्ति की अब यही उपयोगिता रह गयी है। जन्मदिन 2 अक्टूबर या शहीद दिवस 30 जनवरी को महात्मा गांधी की प्रतिमा पर मालायें चढ़ायी जाती है, बस। गांधी की दुहाई देकर आंदोलन कितने गांधी के आदर्शों के मुताबिक होते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। महात्मा जी लाठी लेकर चलते थे उनके पीछे हुजूम चलता था और ब्रिटिश प्रशासन के दमनकारियों द्वारा उन पर लाठीचार्ज करके या आंसूगैस छोड़कर उसे तितर-बितर करने के सैकड़ों ²ष्टांत आजादी के आंदोलन के इतिहस के अभिन्न अंग हैं। गांधी के नाम पर कई आंदोलन हिंसक भी हुए हैं। आंदोलनकारियों द्वारा रास्ते से गुजरते हुए पथराव एवं मारपीट की बहुत सारी वारदातें हम आये दिन अखबारों में पढ़ते हैं। आजकल ऐसा माना जाता है कि जब तक रैली या जुलूस में उत्तेजना न हो उस पर फोकस नहीं होता। अहिंसक आंदोलन का दावा करने वाले कितनों के हाथ खून में सने रहते हैं, यह सर्वविदित है।

किसान आंदोलन इसी कोरोना काल में हुआ जहां उनका सरकारी तंत्र से ज्यादा मुकाबला सुरक्षा की चुनौतियों से था। हजारों किसानों के धरने की खूबसूरती यह है कि उनका खाना एक जगह बनता है। वे लंगर में खाते हैं। लंगन में खाने को प्रसाद कहा जाता है। कुछ किसानों की मटर छीलते हुए तस्वीर अखबारों में देखी होगी। किसान अपने परिवार के साथ आकर डटे हैं। बच्चों को स्कूल की पाठ्य-पुस्तक पढ़ते हुए देखा गया। यानि पूरा परिवार ने कैम्प लगा दिया और बच्चों की पढ़ाई का नुकसान न हो इसका भी ख्याल रखा गया। यही नहीं कई कलाकारों ने आकर आंदोलनकारी किसानों का मनोरंजन भी किया।


शुरुआती दौर में जब ट्रैक्टर लेकर अपने घरों से दिल्ली की ओर किसान चल पड़े तो इस आंदोलन को बाधित करने के लिए हाइवे एवं सड़कों पर गड्ढे खोद दिये गये ताकि ट्रैक्टर रास्ते में ही धंस जाये। फिर भी जैसे-तैसे आंदोलन स्थल तक ट्रैक्टर पर सवार होकर लोग पहुंच गये। यह छेडख़ानी भी काम नहीं आयी तो कहा गया कि इस आंदोलन में सिर्फ पंजाब या कुछ हरियाणा के ही किसान शामिल हैं। इस दुष्प्रचार को भी निरस्त कर दिया गया क्योंकि पश्चिम उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान के किसान भी काफी संख्या में जुटे थे। महाराष्ट्र से आ रहे किसानों को रास्ते में ही रोका गया। हां, पंजाब के लोगों की संख्या ज्यादा थी। अब प्रश्न उठता है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में जिन 123 व्यक्तियों को फांसी हुई थी उनमें 96 लोग सिर्फ पंजाब के थे तो क्या आजादी का संग्राम सिर्फ पंजाब का आंदोलन कहा जायेगा? पूरे आंदोलन की बागडोर कृषक नेता राकेश सिंह टिकैत के हाथ में है जो उत्तर प्रदेश के किसान नेता हैं। उनके पिता स्व. महेन्द्र सिंह टिकैत बड़े किसान नेता थे। बंगाल के हन्नान मोल्ला साहब भी सक्रिय हैं जो सीपीएम के पूर्व सांसद एवं किसान यूनियन के नेता हैं। यानि आंदोलन एवं आंदोलनकारियों की छवि बिगाडऩे का कोई प्रयास बाकी नहीं रखा गया। बात नहीं बनी तो यह भी कहा गया कि आंदोलनकारियों में खालिस्तानी घुस गये हैं जो अलगाववादी हैं एवं पंजाब को देश से अलग करने की मांग कर चुके हैं। पर यह दांव भी कारगर नहीं हुआ क्योंकि जिस आंदोलन में हजारों लोग शामिल हों उनमें दो-चार खालिस्तानी भी हो सकते हैं, गलत तत्व भी आ सकते हैं तो इसमें किसका दोष? किसान नेताओं ने यह कहकर इस दावे को भी ध्वस्त कर दिया कि कोई राष्ट्रविरोधी हैं तो उन्हें प्रशासन गिरफ्तार करे। कुछ लोगों की यह शिकायत है कि आंदोलन बामपंथियों के हाथ में चला गया है। इस तरह की बेतुकी बात किसी के गले नहीं उतरी क्योंकि बामपंथ एक विचारधारा है और अगर कुछ किसान उस विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध हैं तो क्या गलत है? यानि एक के बाद एक बहाना बनाकर इस किसान आंदोलन को ठप्प करने या तितर-बितर करने की हरसम्भव चेष्टा की गयी। प्रधानमंत्री ने यह प्रयास भी किया कि कुछ किसान जो इस आंदोलन के पक्ष में नहीं हैं उन्हें सम्बोधित कर ऐसी धारना पैदा की जाये कि आंदोलनकारी किसान विभाजित हैं एवं कई गुटों में बंट गये हैं। पर यह दांव भी नहीं चला।

मैंने प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया है कि इस स्तम्भ में मैं किसान आंदोलन के पक्ष या विपक्ष पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहा हूं। न ही मैं सरकार को उलाहना दे रहा हूं। यह अलग मामला है। मैं सिर्फ एक बात को रेखांकित करना चाहता हूं कि गांधी की आत्मा आज भी जिन्दा है। किसी को तनिक संदेह हो तो वह दिल्ली बोर्डर पर गत 38 दिनों से अनवरत दिन-रात धरने पर बैठे किसानों के शिविर का मुआयना कर ले। वहां गांधी की कोई मूर्ति या फोटो नहीं लगी है पर आंदोलनकारी किसानों के मन के किसी कोने में गांधी आज भी बसा है। आजादी के बाद देश में सैकड़ों छोटे-बड़े आंदोलन हुए किन्तु किसान आंदोलन सबसे अलग है और वहां अहिंसा की फौलादी शक्ति साफ दिखती है। यही राज है इस ग्रामीण आंदोलन के अब तक अजेय रहने का।


Comments

  1. सिख समुदाय ने देश के लिए सबसे ज्यादा कुर्बानियां दी हैं। इसीलिए उनके किसी भी आन्दोलन के पीछे गलत इरादे की कल्पना करना भी गलत है। यह एक पूर्ण सत्य है की FCI की गोदामे गेहूं चावल से लबालब भरी है और उनके गिरते हुए दामों की किसानों द्वारा चिंता वाजिब है।यह भी सत्य है की ऊँचे दाम मे गेहूं चावल खरीद मुफ्त या subsidized मूल्य पर जनता को खिलाना एक हद के बाद सरकार के लिए आर्थिक रूप से सम्नव नही है। इसीलिए दोनो पक्षों को इस गम्भीर समस्या का गम्भीरता से आपस मे बैठ कर उचित समाधान निकालना होगा।

    ReplyDelete
  2. सिख समुदाय ने देश के लिए सबसे ज्यादा कुर्बानियां दी हैं। इसीलिए उनके किसी भी आन्दोलन के पीछे गलत इरादे की कल्पना करना भी गलत है। यह एक पूर्ण सत्य है की FCI की गोदामे गेहूं चावल से लबालब भरी है और उनके गिरते हुए दामों की किसानों द्वारा चिंता वाजिब है।यह भी सत्य है की ऊँचे दाम मे गेहूं चावल खरीद मुफ्त या subsidized मूल्य पर जनता को खिलाना एक हद के बाद सरकार के लिए आर्थिक रूप से सम्नव नही है। इसीलिए दोनो पक्षों को इस गम्भीर समस्या का गम्भीरता से आपस मे बैठ कर उचित समाधान निकालना होगा।

    ReplyDelete
  3. Mai Kisi Ke Khilaaf Ya Kisi Ke Favour Me Baat Nahi Karna Chata Bus Itna Kahunga Ki Kisaan Bhaiyo Ke Saath Kuch Galat Nahi Hona Chayie. Ye Hamari Jaan Hai.

    ReplyDelete
  4. यदि सही मे ये कृषि बिल किसान विरोधी है तो सिर्फ पंजाब मे ही इसका विरोध क्यों हो रहा है?

    ReplyDelete
  5. जितेन्द्र धीर
    दिल्ली बार्डर पर 38 दिन से जिस शांतिपूर्ण ढंग से यह किसान आन्दोलन जारी है,वह बहुत लोगों के लिए आश्चर्य का विषय बना हुआ है। दरअसल यह किसान आन्दोलन अब जनांदोलन का रूप ले चुका है। लैखक, कलाकार,बुद्धीजीवियों के अलावा विभिन्न वर्गों के लोग भी इस आंदोलन से जुड़ रहे हैं। इसे केवल पंजाब और हरियाणा के किसानों का आंदोलन कह कर दरकिनार नहीं किया जा सकता।
    सरकार का कोई भी एजेंडा इसे अभी तक बाधित और बदनाम नहीं कर सका है। हालांकि ऐसी कोशिशें की गईं। सबसे बड़ी बात जो इस आंदोलन की है वह यह कि,किसी भी राजनीतिक दल की इसमें कोई भूमिका नहीं है। यह किसानों के लिए किसानों द्वारा किया जाने वाला स्वत: स्फूर्त
    आंदोलन है जो कोरोना काल में सरकार की ओर से लाए गए तीन कृषि कानूनों को वापस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा दिए जाने की मांग को लेकर है। किसान अपनी मांगों पर डटे हुए हैं। अब तक इकतालीस किसान इस आंदोलन में अपनी जान गंवा चुके हैं। यह दुखद है।
    महात्मा गांधी के शांतिपूर्ण अहिंसक आंदोलन की तर्ज़ पर चल रहा यह किसान आंदोलन वस्तुत: सामाजिक चेतना का आंदोलन बनता जा रहा है जिसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनसमर्थन हासिल है। इस सिलसिले में एक उदाहरण दिया जाना जरूरी है...........
    आंदोलन को कवर कर रहे बीबीसी के एक संवाददाता ने जब वहां उपस्थित एक युवक से पूछा कि, "क्या आपके पास जमीन है?
    युवक का उत्तर था, हमारे पास जमीन नहीं,ज़मीर है।"
    यह किसान आंदोलन कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। दलित, आदिवासी, किसान, मजदूर जनविरोधी नीतियों के खिलाफ भी जनचेतना का यह एक समवेत स्वर है जिसे कोई भी सत्ता चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल की हो, अनदेखा अनसुना नहीं कर कर सकती या कर पाएगी। मीडिया, पूंजी और निरंकुश सत्ता का गठजोड़ इस जनांदोलन को नहीं दबा पाएगा।
    समवेत स्वर है

    ReplyDelete

Post a Comment