जय जवान! जय किसान!
सरकार और विपक्ष दोनों के लिये सबक है किसान आंदोलन
1965 में स्वर्गीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने नारा दिया था-''जय जवान जय किसानÓÓ। उन्होंने यह माना कि देश के दो मजबूत स्तम्भ हैं। जवान देश की सीमाओं की रक्षा करता है ताकि हम अमन-चमन से रह सकें और दूसरा स्तम्भ है किसान जो अन्नदाता है - हमारा पेट भरता है। जवान जान की बाजी लगाकर राष्ट्र की रक्षा करता है तो किसान खुले आसमान के नीचे हर विपरीत परिस्थिति झेलता हुआ हमारा पेट भरने के लिये अन्न उपजाता है। हमारे जवान हर पल मृत्यु के सामने खड़े रहते हैं, पता नहीं मौतें कहां से आ टपके। किसान का जीवन हर समय विपदा में रहता है। बरसात अधिक हो, कम या न हो, सूखा पड़े, अकाल पड़े, हर समय उसको जोखिम से गुजरना पड़ता है। भारतीय किसान के बारे में कहा जाता है कि वह कर्ज में पैदा होता है, कर्ज में ही पलता है और अपनी संतति के लिये कर्ज छोड़ कर दुनिया से विदा हो जाता है। किसान और जवान के बीच एक और समानता है कि जब कर्ज न चुकाने पर वह असहाय अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता है। आत्महत्या के बाद किसान के लिये देश भर में बहस होती है, चिंता जतायी जाती है और फिर वही घाट के दो पाट। जवान के घर उसका इन्तजार रहता है उसके मां-बाप, पत्नी सब उसका बाट जोहते हैं और कई बार तो उसके स्थान पर उसका पार्थिव शरीर घर पहुंचता है। यह अलग बात है कि शहीद होने पर उस पर सरकार और निजी संस्थायें फूल और धन की वर्षा करते हैं। दोनों के लिये हमारे देश में व्यापक भावनात्मकता उमड़ती-घुमड़ती है पर जीते जी वे हमेशा जीवन के संकट में रहते हैं।
किसान आन्दोलन ने गत 10 दिनों से केन्द्रीय सरकार को झकझोर कर रखा है। संसद के विगत अधिवेशन में केन्द्रीय सरकार ने कृषि सुधारों को लेकर तीन विधेयक पास कराया। आम तौर पर सुधार के लिए पहले मांग की जाती है। लेकिन इन सुधारों हेतु कभी कोई दबाव नहीं बनाया गया, न ही कोई मांग रखी गयी। सरकार ने पहले लोकसभा में उसे बहुमत के आधार पर पास कराया लेकिन राज्यसभा में शासक दल का बहुमत नहीं था पर वहां भी जैसे-तैसे बिना वोटिंग कराये उसे पास कराया गया, जिसकी विपक्ष ने आलोचना भी की। कृषकों को भय है कि इन बिलों से उनका भविष्य चौपट हो जायेगा और मंडियों में न्यूनतम मूल्यों के समर्थन के आधार पर माल बेचने की बजाय कार्पोरेट दिग्गजों की दया पर उन्हें रहना होगा और बाद में जाकर कार्पोरेट की इच्छानुसार उन्हें अपनी उपज बेचनी होगी। करीब 37 किसान संगठनों ने आंदोलन शुरू किया और पिछले 10 दिनों में सरकार के साथ पांच बार लम्बी बातचीत के बाद भी हल नहीं निकला। किसानों की अब मांग है कि संसद का विशेष अधिवेशन बुलाकर बिलों को वापस लिया जाय। जाहिर है सरकार इस शर्त को नहीं मान सकती। अब किसान आंदोलन सरकार के गले की हड्डी बन गया है। केन्द्र सरकार के 6 वर्ष से अधिक के कार्यकाल में इस तरह का संकट का सामना उन्हें पहली बार करना पड़ रहा है। किसान अपनी मांग पर अड़े हुए हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कोई बात बनती नजर नहीं आ रही है। किसान आंदोलन समाप्त नहीं हुआ तो स्थिति गम्भीर हो जायेगी क्योंकि किसानों की मांग को देशभर में समर्थन प्राप्त है। किसान आंदोलन की यह प्रमुख बात है कि इसका नेतृत्व किसी राजनीतिक दल या नेता के हाथ में नहीं है। किसान आंदोलन के आगे-पीछे किसान ही हैं। किसी पार्टी का झंडा नहीं है। विपक्ष इस आंदोलन को अपना समर्थन दे रहा है और यह भी जाहिर कि विपक्षी दल सरकार के विरुद्ध इस आंदोलन का राजनीतिक लाभ भी लेंगे। दूसरी अहम बात यह है भी कि शासक एनडीए का एक महत्वपूर्ण घटक अकाली दल के एक केन्द्रीय मंत्री ने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देकर इसका विरोध किया। साथ ही अकाली दल ने अपने आपको एनडीए से अलग कर लिया। राजस्थान में भी एनडीए के घटक ने यही चेतावनी दी है। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और भारतीय राजनीति में एक सम्माननीय नाम प्रकाश सिंह बादल ने पद्मभूषण सम्मान वापस कर दिया। कुछ और लोग भी पद्म सम्मान वापस करने का मन बना रहे हैं। सरकार ने सोचा नहीं था कि किसान आंदोलन सम्हाले नहीं सम्हलेगा। अभी तक धार्मिक विभाजन, जातीय भेद और देश की सुरक्षा के नाम पर पाकिस्तान, चीन का भय दिखाकर आंदोलन को दबाने एवं इसके खिलाफ जनमत बनाने की कवायद की जाती थी। पर किसान आंदोलन अभी तक ऐसी चाल का शिकार नहीं हुआ है। किसानों ने सरकार की तरफ से आया भोजन भी लौटा दिया और गुरुद्वारे के लंगर से आया स्वीकार किया। यह सही है कि यह किसान आंदोलन मुख्यत: दो राज्यों के किसानों का है - पंजाब और हरियाणा। राजस्थान, पूर्व उत्तर प्रदेश से भी थोड़ी मात्रा में किसानों ने इसमें भाग लिया है। अब समझ लीजिये कि दो राज्यों के किसानों ने केन्द्र की नाक में दम कर दिया है अगर यह आंदोलन फैल गया तो सरकार एकदम असहाय हो जायेगी। किसान आंदोलन ने विपक्ष को एक रास्ता भी दिखाया है। सरकार के लिये सबक भी है कि वह देश की जनता से जुड़े हुये मुद्दों पर काम करे न कि धार्मिक भावनाओं को उभार कर लोगों को गुमराह करने की चेष्टा। कोविड-19 संक्रमण के चलते जो लॉकडाऊन हुआ उसमें भी दो-तीन राज्यों के लाखों मजदूर बेहाल हुये। लेकिन बिहार के चुनाव में नीतीश को बलि का बकरा बनाकर सत्तारुढ़ दल ने बिहार की सत्ता ले ली पर वहां जो राजनीतिक घटनाक्रम हुये हैं, उससे सरकार कभी भी संकट में पड़ सकती है।
बहरहाल कृषक आंदोलन देश की सत्ताधारी पार्टी के लिये तो सबक है ही विपक्ष के लिये भी एक चेतावनी है। अब देखना है कौन कितना सीख लेता है। पर इस आंदोलन को अब तक मिली सफलता और केन्द्रीय सरकार की हुई किरकिरी यह बताती है कि जनता के मुद्दों से ध्यान बंटाने और गैर जरूरी एजेंडा को फोकस करना अब नहीं चलेगा।

Hum kisan ka sath hai
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