बिहार चुनाव का 'मैन ऑफ द मैच' तेजस्वी यादव

 अभी तो पिक्चर शुरू हुई है

बिहार चुनाव का 'मैन ऑफ द मैच' 

तेजस्वी यादव

बिहार का चुनाव अन्य राज्यों के चुनाव से कई मायनों में काफी भिन्न था। बिहार पहला राज्य है जहां भारतीय जनता पार्टी ने एक क्षेत्रीय दल जद यू (जनता तल युनाईटेड) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। यही नहीं बिहार ही है जहां एक दल ने एनडीए से बिना बाहर निकले एनडीए की ही किसी एक पार्टी के विरुद्ध बिगुल फूंका। रामबिलास पासवान (अब स्वर्गीय) की बनायी हुई लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के नेता चिराग ने नारा दिया भाजपा से बैर नहीं, पर नीतीश की खैर नहीं। इसका मतलब यह हुआ कि भाजपा ने लगातार चौथी बार बनने वाले मुख्यमंत्री को अभिमन्यू की तरह चक्रव्यूह में फंसाकर मारने का बड़े सुनियोजित ढंग से प्लान बनाया था। लोकसभा चुनाव के तीन महीने बाद ही भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने इस बात को मान लिया था कि विधानसभा चुनाव में नीतीश का चेहरा और नेतृत्व होगा तब सीटों के समझौते को चुनाव की घोषणा के बाद क्यों फाईनल किया गया? जिस लोजपा से तालमेल करने का जिम्मा भाजपा के ऊपर था वह ऐन मौके पर केवल नीतीश कुमार के विरोध में उम्मीदवार उतारने का फैसला क्यों करती है? आखिर भाजपा ने कभी उन्हें एनडीए से निकालने की घोषणा क्यों नहीं की? इसी तरह चुनाव के बीच आयकर विभाग जो अब अमूमन हर चुनाव के दौरान भाजपा विरोधी दलों से जुड़े लोगों पर अपनी छापेमारी से उपस्थिति दर्ज कराता है, उसने जदयू से संबंधित लोगों पर छापेमारी क्यों की? आखिर कारण क्या था कि भाजपा के अधिकांश सांसद नीतीश दल के उम्मीदवारों के लिए प्रचार करने से कतरा रहे थे? भाजपा और जदयू के बीच तालमेल का निरंतर अभाव पहले चरण से आखिर के फेज तक दिख रहा था। इसलिए नीतीश कुमार चुनाव में तीन सहयोगी- भाजपा, हम और वीआईपी के साथ उतरे वहीं भाजपा के साथ चिराग पासवान और अप्रत्यक्ष रूप से उपेन्द्र कुशवाहा का गठबंधन भी दिखा।



दरअसल भाजपा ने नीतीश कुमार को रणनीति के तहत मात्र एक चेहरा बनाकर रखने का पूरा मास्टर प्लान बनाया था। चुनाव में लालू यादव के पुत्र तेजस्वी से उसे कड़ी चुनौती मिलेगी, यह कल्पना से परे था। शासक दल ने सोचा कि लालू यादव के जंगल राज का खौफ ही तेजस्वी को धराशायी करने के लिए काफी है। कांग्रेस, कम्युनिस्टों के खंडहर हुए किले में सेंध लगाने के लिए ओवैशी की ''मिमÓÓ पार्टी काफी थी क्योंकि मुस्लिम वोट बैंक की डकैती करने के बाद उनके पास कुछ बचेगा ही नहीं। भाजपा का मास्टर प्लान इस मामले में सफल भी रहा। मुस्लिम वोटों से कांग्रेस, लेफ्ट, राजद एवं कुछ हद तक जदयू को मरहूम कर भाजपा ने बिहार को आसानी से फतह करने का सरंजाम तैयार कर लिया था।

इस मास्टर प्लान के बावजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बिहार चुनाव में कैसे विफल रहे इसका एक उदाहरण इस आंकड़े में मिल जायेगा - साल 2010 में एनडीए बिना नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के चुनावी प्रबंधन के 206 सीटें जीतने में सफल हुआ था जबकि लालू यादव और रामविलास पासनान एक साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे, लेकिन इस बार न लालू सामने थे ना ही पासवान और नीतीश, नरेन्द्र मोदी का मुकाबला नौसिखिये तेजस्वी यादव से था। तब वह 125 उम्मीदवारों को विधायक बनाने में सफल हुए और तेजस्वी ने अपने बूते पर 110 विधायकों को जीत दिलायी। इसलिए 2020 का चुनाव हर कोई इसलिए याद करेगा कि कैसे नीतीश कुमार को निपटाने के चक्कर में भाजपा ने खासकर पीएम नरेन्द्र मोदी ने तेजस्वी और चिराग पासवान को बिहार की राजनीति में नहीं चाहते हुए स्थापित कर दिया।

तेजस्वी यादव बिहार चुनाव पर शुरू से आखिर तक छाये रहे। उनकी चुनाव सभाओं में भारी भीड़ इस बात का प्रमाण थी कि बिहार के लोगों को इस नौजवान से काफी अपेक्षायें हैं। 31 वर्ष के नवयुवक तेजस्वी के मुकाबले 6 बार रहे मुख्यमंत्री और स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रैलियों की झड़ी लगा दी। यह भी अकाट्य सत्य है कि इस बार बिहार के मुद्दे तेजस्वी ने तय किये। 10 लाख नवयुवकों को सरकार बनने के साथ-साथ नौकरी देने का वादा ने पूरे चुनाव का रुख तैयार कर दिया। शुरू में तो जदयू व भाजपा ने इसका मजाक उड़ाया परन्तु भाजपा ने घोषणा पत्र में तेजस्वी के दस लाख के मुकाबले 19 लाख लोगों को रोजगार के अवसर देने का वादा किया या करना पड़ा। बिहार चुनाव में भाजपा के पेटेन्ट मुद्दों को जगह नहीं मिली। राम नाम का जाप नहीं किया गया न ही हिन्दू, मुसलमान की बात कर वोटरों को बांटने का प्रयास किया गया। चीन और पाकिस्तान का खौफ भी नहीं चला। इसका मुख्य श्रेय राजद नेता तेजस्वी यादव को ही जाता है।

इस नवयुवक को दो मोर्चे पर लडऩा पड़ा, एक तो भाजपा-नीतीश गठजोड़ और दूसरा लालू यादव के जंगलराज का भूत जिसकी याद दिलाकर मोदी एवं अन्य नेताओं ने तेजस्वी की भ्रूण हत्या करने में अपनी तरफ से कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। बिहार चुनाव में बीस सीटों पर गड़बड़ी के आरोप हैं। प्रत्याशियों को सर्टिफिकेट देने में अनावश्यक विलम्ब किया गया। एनडीए को मात्र 125 सीटों में संतोष करना पड़ा और उसके खिलाफ 118 उम्मीदवार जीते तो इसका कारण यही है कि नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार की संयुक्त चुनावी सभा और अपील के बावजूद तेजस्वी यादव ने अपने चुनावी अभियान के बल पर चुनाव की फिजा बदल दी थी।

बिहार चुनाव का समर शेष नहीं हुआ है। इसका दूसरा किन्तु अहम् हिस्सा बाकी है। अभी तो पिक्चर शुरू हुई है। भाजपा के अन्दरूनी जोड़ घटाव तेज हो रहे हैं, पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी क्या भूमिका निभायेंगे देखना है। यही नहीं नीतीश भाजपा की चाल समझ ही गये हैं। भाजपा उनको दबाकर रखे एवं बाद में बाहर का रास्ता दिखाये, उसके लिए भी उनको अपनी रणनीति बनानी होगी। इस घटनाक्रम के बाद जदयू कहीं भाजपा के लिए दूसरी शिवसेना साबित न हो जाये। वह नया ऑपरेशन बिना तेजस्वी के सफल नहीं होगा। बहरहाल तेजस्वी के रूप में बिहार की युवा कुंडलिनी जागृत हुई है अब देखना है वह क्या गुल खिलाती है। तेजस्वी की सबसे बड़ी पूंजी उसकी उम्र है एवं उसका सारा जीवन कामयाबी की सीढ़ी चढऩे के लिए बाकी पड़ा है।


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