नशाखोरी को समझने के लिए 'तीसरी आंख' चाहिये


नशाखोरी को समझने के लिए 'तीसरी आंख' चाहिये

भारत सम्पूर्ण विश्व में सबसे अधिक युवा आवादी वाला देश है। इसकी 65 प्रतिशत जनसंख्या 35 वर्ष से कम उम्र की है। इसी युवा शक्ति के बलबूते पर हम 2050 तक दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने का दंभ भर रहे हैं। लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि हमारी इस सबसे बड़ी सम्पदा में नशे की सेंध लग रही है। नशाखोरी दिन पे दिन युवा पीढ़ी में अपने पैर पसार रही है और युवा नशे की गिरफ्त में आ रहे हैं। यह बड़ी चिन्ता का विषय है। पहले नशा मौजमस्ती का साधन था किंतु आज की युवा पीढ़ी के लिए आवश्यकता बन गया है। और तो और अब स्कूल, कॉलेजों एवं यूथ होस्टलों के आसपास नशे का धंधा फलफूल रहा है। कानून के अनुसार शिक्षण-संस्थाओं के आसपास शराब या नशे की दुकान का खुलना वर्जित है पर चोरी छिपे लोग अपनी दुकानदारी चला रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश की 70 से 75 प्रतिशत आबादी किसी न किसी प्रकार के नशे का सेवन करती है। सिगरेट, शराब, गुटखा की ओर युवा सबसे ज्यादा आकर्षित हो रहे हैं और तीन में से एक युवा नशे का आदी हो चुका है।





इसके अलावा शराब सेवन भी भारतीय युवाओं में तेजी से फैल रहा है जिससे महिलायें भी अछूती नहीं है। महिलाओं में इस प्रवृत्ति का आना समस्या की गंभीरता को दर्शाता है। उच्च तथा उच्च मध्यम वर्ग की महिलाओं में यह फैशन के रूप में आरंभ होता है और धीरे-धीरे आदत में शुमार होता चला जाता है।

भारत में नशा कोई नया अध्याय नहीं है। हमारे देश में नशाखोरी को समझने के लिये ''तीसरी आंखÓÓ की जरूरत है। जैसे हर चमकता पदार्थ सोना नहीं होता वैसे ही हर नशे को आंख मंूद कर बुरा भला कहना भी बहुत न्यायोचित नहीं है। मसलन बचपन में मैंने अपने पैतृक स्थान में हर बुजुर्ग को हुक्का पीते (उस वक्त 40-50 वर्ष के आदमी को बुजुर्ग कहा जाता था) और मन्दिर के पास सन्त-संन्यासियों को चिलम फूंकते देखा है। यही नहीं समाज के सम्भ्रांत लोग उनके पास उठते-बैठते थे। राजस्थान, हरियाणा, पश्चिम यूपी के श्रमिक जिनमें महिलायें भी शामल हैं, चेजागिरी (निर्माण कार्य) का काम करती हैं जिन्हें एक बंडल बीड़ी दिन में दो बार उपलब्ध करायी जाती है। नशाखोरी के माध्यम से गरीब का शोषण भी हुआ है। एक तो कम पैसे में काम होता है दूसरा बीड़ी फूंक कर जो ऊर्जा शरीर में संचारित होती है उसका लाभ ठेकेदार को मिलता है। मजदूर में इस तरह नशा प्रवृत्ति उसके जीवन का अभिन्न अंग बन गयी है, यह अलग बात है कि चालीस-पचास की उम्र के पहले ही उसका शरीर छलनी हो जाता है। आंध्र, महाराष्ट्र, तमिलनाडु में ठर्रे के नाम पर जहर पीकर सैकड़ों लोग एक साथ जान गंवा बैठते हैं। बिहार के गांव से हट्टा-कट्टा युवक कलकत्ता आकर रिक्शा चलाता है और यहां से टीबी जैसी बीमारी लेकर जीवन की संध्या में अपने घर लौटता है। नशा उसकी ''लाइफ लाईनÓÓ है। चाय की दुकान में काम करने वाला 12 साल का बच्चा चार-पांच तल्ला सीढिय़ों से चढ़कर बाबुओं को चाय पिलाता है, सुबह उठकर चूल्हा फूंकता है जिससे उसकी आंखों की रोशनी जवानी तक आधी हो जाती है। बाल श्रमिक कानूनन अपराध है पर इस अपराध की छत्रछाया में वह अपनी मां की दवा खरीदता है। जाहिर है अपने को दुरुस्त रखने के लिये वह भी चोरी-छिपे नशे की पुडिय़ा गटकता है। हम इस वस्तु स्थिति को नजरंदाज नहीं कर सकते। सिर्फ कानून की बात करके अपराध पर काबू नहीं पाया जा सकता।



अब एक दूसरी दुनिया की ओर भी नजर डालें। हमारे धर्म में नशा वर्जित नहीं है। क्या यह सच नहीं कि भगवान शिव की पूजा बिना भांग चढ़ाये नहीं हो सकती और धतुरा भी उनको भेंट किया जाता है। उज्जैन के काल भैरव मन्दिर में भगवान को मदिरा का प्रसाद चढ़ाया जाता है। पुलिस अधिकारी से लेकर डकैत तक उन्हें अपना ईष्ट मानते हैं। मेरे परिवार का बैद्यनाथधाम देवघर से सम्बन्ध रहा है। वहां श्रावण में लाखों कांवडिय़े शिवजी को जल चढ़ाने आते हैं। मैं जानता हूँ पूरे साल भर जितनी शराब और देशी ठर्रे की बिक्री होती है उसके बराबर उस एक महीने में खपत होती है। चालीस-पचास -सौ किलोमीटर तक कांवड़ उठाकर पैदल चलने का स्टेमिना उसे कहां से मिलता है? यह बताने की नहीं, समझने की आवश्यकता है।

आज के सबसे चर्चित सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मृत्य के प्रकरण पर आइये। सीबीआई की जांच के बीच एनसीबी (नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो) कूद पड़ा और फिल्मी दुनिया के कई चमकते सितारे चपेट में आ गये। इनमें भी हीरो से कहीं अधिक हिरोइनें जाल में फंसी दिखाई दे रही हैं। हालांकि उन्होंने सफाई दी है कि वे नशीली दवा नहीं लेती पर चैट करती पकड़ी गयी। रिया पहले से ही हिरासत में है। एनसीबी का मुम्बई में बड़ा दफ्तर है। क्या उससे छिपा है कि रुपहले पर्दे पर काम करने वाले या उसके पाश्र्व में फिल्मी दुनिया से जुड़े लोग नशा करते हैं? संजय दत्त सजा पा चुके हैं। सलमान खान ने नशे में गाड़ी चलाकर फुटपाथ पर सोने वाले को रौंद दिया पर अपने ड्राइवर से अपराध कबूल करवा कर खुद बच निकले। नशे से हमारे फिल्म जीवियों को मुक्त करना मुश्किल है, हालांकि असंभव नहीं। किन्तु अभी नारकोटिक्स ब्यूरो जिस ढंग से जांच कर रही है उससे सनसनी जरूर फैल रही है मानो हम फिल्म का कोई रोमांचक सीन देख रहे हों। यह मानकर चलिये नशे की प्रवृत्ति पर ब्रेक लगने वाला नहीं है। फिल्मी दुनिया की अपनी प्रतिस्पर्धा है, खेमेबाजी है जो अब खुलकर सामने आ रही है। सिर्फ कलाकार ही नहीं संवाद लेखक से लेकर गीतकार, कैमरामैन से लेकर हीरो-हिरोइन के डुप्लीकेट सभी नशा करते हैं। फिल्म की परिकल्पना से लेकर उसके रिलीज होने तक जितने भी लोग इसमें शामिल हैं उनमें शायद कोई विरला ही होगा जो नशा नहीं करता हो।

नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) की भारत सरकार ने सन् 1986 में स्थापना की थी। 34 वर्ष पुरनी संस्था के पास पूरी क्षमता है एवं यह एक सर्वोच्च समन्वय एजेंसी है। देश के तेरह महानगरों में इसके कार्यालय एवं 13 शहरों में ही इसके सब जोन हैं। इस संगठन ने भारत में नशे के व्यापक जाल को कितना समेटा है इसकी जानकारी नहीं है और न ही इस ब्यूरो की कोई रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। नशे की प्रवृत्ति सुरसा के बदन की तरह फैल रही है। इसका समाधान न तो तथाकथित नशामुक्त भारत में है क्योंकि यह सम्भव नहीं है। इस कारोबार में बड़ी मछलियां व मगरमच्छ हैं जिन्हें अब तक हाथ नहीं लगाया गया है। बीच-बीच में मादक पदार्थों के साथ अपराधी पकड़े जाते हैं किन्तु वे कानून के छिद्रों में से बाहर निकल आते हैं। यही एक ऐसा ट्रेड है जिसमें सलाखों के पीछे रहने वाला व्यक्ति असली अपराधी नहीं होता वह गुनाहों की दुनिया का ''डेली वेज अर्नरÓÓ होता है एवं आला अपराधी कोई अ²श्य डॉन है।

नशे के रेशमी जाल को खत्म करने के लिये पहले तो इसमें लिप्त लोगों की प्रवृत्तियों का गहराई से अध्ययन करना जरूरी है। हर नशा करने वाले को सम्यक ²ष्टि से नहीं देखा जाना चाहिये। हीरे का चोर और खीरे का चोर एक समान नहीं होते। वैसे ही सभी नशायाफ्ता एक तरह का जुर्म नहीं करते हैं। ''कहीं तन की हविश मन को गुनहगार बना देती हैÓÓ तो कहीं ''हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गयाÓÓ-वाली बात है। इन दोनों को गहरे पानी पैठ कर समझना होगा। कुछ छोटे अपराधियों को पकड़ कर एवं बसी बसायी फिल्मी दुनिया को उजाड़ कर हम नशे के मायाजाल की विकरालता को कम नहीं कर सकते। एक तरफ श्रमिकों की रक्षा करनी है एवं दूसरी तरफ दुनिया में दूसरे नम्बर पर आने वाली हिन्दी फिल्मों की दुनिया को भी बचाना है। अभी तो नशाखोरी की जांच पर सिर्फ गुदगुदी पैदा की जा रही है वह भी कुछ समय के लिये।


Comments

  1. Very thoughtful article. Many thanks to the contributor. Let all of us forward / circulate this in all corners of our country, if possible in all regional languages.
    amaleshdasgupta2001@yahoo.co.in

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  2. It is a perfect article! I really liked this article when reading. Media should have the third eye and it is needed, as they try to hide something and you all try to fetch the truth. To do this work a man like you is needed. Thank you for sharing your valuable thinking with me. I will be very interested to read your next article! 😀
    Thank you.
    Regards,
    Tapashi Bose.

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  3. अद्भुत,लाजवाब,संग्रहणीय आँख खोलने वाला लेख

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