ढेरों खूबियां हैं फिल्मी दुनिया में पर हैं कुछ संगीन खामियां भी
हिन्दी सिनेमा की शुरुआत 1913 में बनी मूक फिल्म ''राजा हरीशचन्द्रÓÓ से हुई थी। शुरुआती दौर में धार्मिक फिल्में ही बनी। फिर ऐतिहासिक सिनेमा का दौर आया। आजादी के संघर्ष के दौरान देशभक्ति पर फिल्में नहीं बनायी गयी क्योंकि ऐसा करना खतरे से खाली नहीं था। पर स्वतंत्रता के उपरान्त देशभक्ति के साथ-साथ सामाजिक विसंगतियों पर कुठाराघात करती हुई फिल्में बनी जिसने जनमानस को उद्वेलित किया। इनमें - बिराज बहू, दो आंखें बारह हाथ, दहेज, जागृति, अछूत कन्या, बंदनी जैसी फिल्में थी। यहां तक कि रोमांटिक फिल्में या विशुद्ध मनोरंजन के लिये जो बनीं उसमें भी कोई संदेश रहता था। इससे नौजवान बहुत प्रभावित भी हुआ और देशभर में एक अलख जगा दी हिन्दी फिल्मों ने। ''कटी पतंगÓÓ एक रोमांटिक फिल्म थी जिसमें सुपर स्टार राजेश खन्ना एक दलित युवती (आशा पारेख) से प्यार करते हैं। ढेर सारी फिल्में बनीं जिसमें हीरो किसी बेजातीय, पिछड़ी जाति या गरीब लड़की से प्रेम करता है और अपने प्रेम के लिये जीवन उत्सर्ग कर देता है। इन फिल्मों ने समाज की रूढिय़ां तोडऩे में बड़ी भूमिका अदा की। नौजवान की सोच को बदला। एक तरफ सरकार और सामाजिक संगठनों ने शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया तो दूसरी तरफ सामाजिक कुरीतियोंं पर चोट करती फिल्में बनीं एवं इन दोनों के संयुक्त प्रयास से भारत में नवजागरण का अध्याय शुरू हुआ। युवक एवं युवतियां अपने को फिल्मों में झांक कर देखते थे। फिल्मों ने आम आदमी के जीवन पर उसकी आदतों, पहनावे, खानपान, जीवन शैली सब पर असर डाला। लेकिन समय बदलता गया और फिल्में भी। ''बाकी जो बचा था, महंगाई मार गयीÓÓ गाना इसलिये हर व्यक्ति की जबान पर आ गया क्योंकि पूरा देश महंगाई से संतप्त था। फिल्मों ने महंगाई से त्रस्त लोगों की भावना को शब्द दिया। इसी तरह ''दिल के अरमां आंसुओं में बह गयेÓÓ गीत ने युवाओं की निराशा को शब्द दिया।
आज की फिल्मों की तकनीक में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ है। एक गाने की शूटिंग पांच देशों की लोकेशन पर होती है। एक फिल्मी गाने में नायक और नायिका सात तरह के लिवास में मिल जायेंगे। दुनिया की सैर के लिए फिल्मों से अच्छा कोई माध्यम नहीं हो सकता। पहले कश्मीर तक फिल्मों की सीमा थी अब स्विट्जरलैंड की बर्फीलीवादियों के बिना कोई फिल्म पूरी नहीं होती। इसके साथ ही पर्यटन, उद्योग बन गया और आज कई बड़ी कम्पनियां ट्रेवल एंड टूरिज्म में लगी हुई हैं। साथ ही बायोपिक फिल्में-गांधी, आंधी, सुपर-30, दंगल, मैरीकॉम, गुरु, शकुन्तला देवी ने देश के खेल, राजनीति एवं विज्ञानजगत के लोगों से दर्शकों का नये ढंग से परिचय कराया। मिशन मंगल भारत की वैज्ञानिक छलांग और नौजवानों से जुड़ी आकांक्षाओं की हिट फिल्म बनी। भारत की आत्मा की सही मायने में प्रतिनिधित्व करने वाली फिल्म मदर इंडिया सुपरहिट हुई। गीत, संगीत की ²ष्टि से हिन्दी फिल्मों की श्रेष्ठता जग जाहिर है। लता मंगेशकर न सिर्फ भारत की आवाज हैं बल्कि उनके समकक्ष विश्व में कोई गायक नहीं। हिन्दी फिल्मों ने भारतीय समाज पर जबर्दस्त छाप छोड़ी एवं फिल्मों में कैरियर का फ्लड गेट खोल दिया।
मनोरंजन के साथ जीवन को इन्द्रधनुषी रंगों में नहलाने वाली फिल्मों के लिए भारत ने विश्व में फिल्म उत्पादन में दूसरा स्थान प्राप्त कर लिया है। हालांकि अभी तक इसे उद्योग का औपचारिक दर्जा नहीं दिया गया है किन्तु यह 20 हजार करोड़ का उद्योग बन चुका है जिसमें लगभग तीन लाख लोग किसी न किसी रूप में कार्यरत हैं। यही ऐसा उद्योग है जिसमें देश के लेखकों, साहित्यकारों, गीतकारों, संवाद लेखकों, रचना जगत से जुड़े लोगों, कलाकारों के हुनर का मोल किया है, वर्ना रचनाकारों को भुखमरी का शिकार होना पड़ता या वे फार्चून की दुकान खोलकर बैठते।
फिल्मी दुनिया जिसे अब हम बॉलीवुड के नाम से पुकारते हैं दूर से चमकती हुई दुनिया दिखाई देती है लेकिन इसकी एक काली सच्चाई भी है। उभरते हुए फिल्म एक्टर सुशान्त सिंह राजपूत की रहस्यमय मृत्यु ने पूरी फिल्म इंडस्ट्री को झोकझोर दिया। पहले तो इंडस्ट्री में चल रहे सिंडीकेट एवं खेमेबाजी को सुशान्त की मौत का जिम्मेदार ठहराया गया किन्तु बाद में ड्रग एवं नशीले पदार्थों के कीचड़ से पूरी फिल्म इंडस्ट्री को पोत दिया गया। सुशान्त की मौत कैसे हुई इसके लिए कौन जिम्मेदार है, इसकी जांच देश की सर्वोच्च एजेन्सी सीबीआई कर रही है किन्तु इसी बीच कुछ इलेक्टॉनिक मीडिया ने समानान्तर मीडिया ट्रॉयल शुरू कर दिया। इन टीवी चैनलों का उद्देश्य कोई सुशांत को न्याय दिलाना नहीं है, बस मामले को सनसनीखेज बनाकर अपनी टीआरपी बढ़ाने का है। राजनीतिक दल भी मीडिया ट्रॉयल में कूद पड़े ताकि आने वाले बिहार चुनाव में फायदा हो। सुशांत की प्रेमिका रिया चक्रवर्ती को खलनायिका एवं सुशांत को शहीद बनाकर पेश पेश करने की चेष्टा की गयी। एक्ट्रेस कंगना रनौत इसमें कूद पड़ी और सुशान्त के लिए खड़ी होकर उसने बॉलीवुड में यौन शोषण, ड्रग के गटर में रेंगते कुछ चमकदार कीड़ों की बात को उजागर कर पूरी फिल्म विरादरी को उसके चक्रव्यूह में फंसा दिया। तभी संसद में राज्यसभा की सदस्या, समाजवादी पार्टी की नेता एवं महानायक अमिताभ बच्चन की पत्नी जया बच्चन ने संसद में खड़े होकर बिना किसी का नाम लिये कहा कि कुछ लोग ''जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं।ÓÓ उनके वक्तव्य ने पूरी फिल्मी दुनिया में सुनामी पैदा कर दी। कुछ फिल्मी हस्तियों ने कंगना के पक्ष में तो कइयों ने जया बच्चन के पक्ष में वक्तव्य की झड़ी लगा दी। इससे देश का आम आदमी ठगा सा महसूस करने लगा। फिल्मी दुनिया के बारे में उसका स्वप्न भंग हो गया। पहली बार हुआ है कि जिन नायक-नायिकाओं को भगवान की तरह पूजा जाता था, आज उन्हीं को लोग ट्रोल कर रहे हैं। बॉलीवुड को सारी अन्दरुनी बातें, फिल्मी दुनिया का काला सच सामने आ रहा है। जया बच्चन के विरुद्ध समाजवादी पार्टी से भाजपा में गयी जया प्रदा ने अपना काफी समय का जमा हुआ गुब्बार निकाला। अब मामला फिल्मी दुनिया के परिधि से बाहर निकलकर राजनीतिक अखाड़े में आ गया।
शिवसेना के मुखपत्र सामना में जया बच्चन को सच बोलने और बेबाकी से अपनी बात रखने के लिए संपादकीय मेंं प्रशंसा की गयी तो कंगना रनौत को भाजपा के प्रवक्ता सांसद सम्बित पात्रा ने ''आज तकÓÓ की डिबेट में कहा ''झांसी वाली रानी नहीं वह तो मां दुर्गा है।ÓÓ
कंगना रनौत को दुर्गा की बजाय अगर हम एक एक्ट्रेस ही समझें तो उसका कहीं अधिक सम्मान होगा। जया बच्चन तो खैर, एक वरिष्ठ कलाकार एवं सांसद हैं जिनकी समालोचना हो सकती है किन्तु उनके अवदान को नकारा नहीं जा सकता। फिल्मी दुनिया में नेपोटिज्म, सिंडिकेट एवं ड्रग्स का चलना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है किन्तु क्या इससे फिल्म इंडस्ट्री की व्यापक और गौरवशाली भूमिका को कम आंका जायेगा? जया बच्चन का दर्द है कि कुछ लोगों के चलते पूरी फिल्मी दुनिया को बदनाम न किया जाये और कंगना रनौत की व्यथा है कि बिना किसी बड़ी पृष्ठभूमि के फिल्मी दुनिया में आने वाली लड़की को उपेक्षा एवं यौन शोषण का शिकार होना पड़ता है। पर कोई यह कहे कि बड़े नाम वाले घरों से आने वाले लोगों ने ही मुकाम हासिल किया है तो यह गलत होगा क्योंकि राजकपूर के बड़े बेटे रणधीर कपूर नायक नहीं बन पाये, राजेन्द्र कुमार, धर्मेन्द्र के बेटे और हेमामालिनी, डिम्पल, श्रीदेवी की बेटियों के अलावा महानयक अमिताभ के सुपुत्र अभिषेक अभी तक अपना स्थान नहीं बना पाये और बिना बड़े परिवार से आये कपिल शर्मा अपने टीवी शो को जरिये दर्शकों में छा गये हैं। फिल्म इंडस्ट्री में नामधारी परिवारों के युवा को ही पुश मिलता है, यह अभियोग अद्र्धसत्य है। साथ ही फिल्मी दुनिया में नशाखोरी कोई नयी बात नहीं है। पंजाब के युवाओं को ड्रग्स ने तबाह कर दिया, मुंबई फिल्म नगरी के लिये हम दुआ करते हैं।

संपादकीय की एक-एक पंक्ति
ReplyDeleteभांति-भांति की कुंठाओं एवं पूर्वाग्रहों से ग्रसित फिल्मी दुनिया के काल्पनिक-लोक पर छाए हुए लोगों के मुंह पर तमाचा है।
घीसू माधव और बुधिया जैसे पात्रों के सृजक इस फिल्मी दुनिया से ऐसे ही नहीं भागे थे।
प्रेमचंद समझौता करने वाले कलमकार नहीं थे, इसलिए बोरिया बिस्तर लपेट कर चल दिए।
अब परतें खुल रही हैं।
पता चल रहा है कि 2 मिनट का रोल पाने के लिए कितने समझौते करने पड़ते हैं।
थाली में पहले से ही "चलनी जैसी छेदों" को हाथ से कितना ढंका जा सकता है..?
--- अमर तिवारी पटना (बिहार)
आदरणीय नेवर जी, नमस्कार। आपने बहुत ही अच्छा संपादकीय लिखा है। फिल्मी दुनिया की खूबियों और खामियों दोनों को बखूबी उभारा है। फिल्म उद्योग के ऐतिहासिक सफर को भी आपने संक्षेप में बखूबी समेटा है। बस एक तथ्यात्मक गलती की ओर.संकेत करना चाहती हूँ, "कटी पत़ग" की आशा पारेख दलित नहीं थी। वह अपने प्रेमी से विवाह करने के लिए अपनी शादी के मंडप से भाग गई थी और प्रेमी की असलियत सामने आने पर अपनी दिवंगत विधवा सहेली की ससुराल में उसी की भूमिका निभाती हुई विधवा के छद्मवेश में रह रही थी। उसके बेटे को भी पालती है और ससुर की देखभाल करती है। राजेश खन्ना उसी विधवा से प्रेम करता है। खैर..हमारे समाज में घर से भागी हुई लड़कियों को प्रायः समाज दोबारा स्वीकार नहीं करता। और इस मायने में आप उसे दलित कहना चाहें तो कह ही सकते हें। दलित नायिका से स्वर्ण पुरुष के प्रेम को अशोक कुमार और देविका रानी अभिनीत "अछूत कन्या" (1936) में दर्शाया गया है। सुनील दत्त और नूतन अभिनीत "सुजाता" में इस विषय को बेहद खूबसूरती से फिल्माया गया है।
ReplyDeleteआदरणीय नेवर जी, नमस्कार। आपने बहुत ही अच्छा संपादकीय लिखा है। फिल्मी दुनिया की खूबियों और खामियों दोनों को बखूबी उभारा है। फिल्म उद्योग के ऐतिहासिक सफर को भी आपने संक्षेप में बखूबी समेटा है। बस एक तथ्यात्मक गलती की ओर.संकेत करना चाहती हूँ, "कटी पत़ग" की आशा पारेख दलित नहीं थी। वह अपने प्रेमी से विवाह करने के लिए अपनी शादी के मंडप से भाग गई थी और प्रेमी की असलियत सामने आने पर अपनी दिवंगत विधवा सहेली की ससुराल में उसी की भूमिका निभाती हुई विधवा के छद्मवेश में रह रही थी। उसके बेटे को भी पालती है और ससुर की देखभाल करती है। राजेश खन्ना उसी विधवा से प्रेम करता है। खैर..हमारे समाज में घर से भागी हुई लड़कियों को प्रायः समाज दोबारा स्वीकार नहीं करता। और इस मायने में आप उसे दलित कहना चाहें तो कह ही सकते हें। दलित नायिका से स्वर्ण पुरुष के प्रेम को अशोक कुमार और देविका रानी अभिनीत "अछूत कन्या" (1936) में दर्शाया गया है। सुनील दत्त और नूतन अभिनीत "सुजाता" में इस विषय को बेहद खूबसूरती से फिल्माया गया है।
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