सोमेन दा : राजनीतिक योद्धा जो अपनों के ही चक्रव्यूह में फंस गया

सोमेन दा
राजनीतिक योद्धा जो अपनों के ही चक्रव्यूह में फंस गया
सोमेन मित्र, अध्यक्ष प. बंगाल प्रदेश कांग्रेस कमिटी ने विगत 30 जुलाई को दक्षिण कोलकाता के एक निजी अस्पताल में अंतिम सांस ली। 78 वर्ष के सोमेन को आदर के साथ सोमेन दा और प्यार से ''छोर दा'' के नाम से जाना जाता था। सोमेन दा के जाने से प्रदेश कांग्रेस में एक अध्याय समाप्त हो गया और कांग्रेस का पश्चिम बंगाल में अंतिम स्तम्भ भी ढह गया। पर हमारी चिन्ता का विषय वह नहीं है। सोमेन दा के साथ राज्य में ''भद्र लोग'' की राजनीति में भागीदारी समाप्त हो गयी। सोमेन के बाद सभी दलों में भद्र लोगों का अभाव नहीं है पर सोमेन जैसा राजनीतिक योद्धा और भद्रता का संगम वाला व्यक्तित्व अब नहीं है। सोमेन 1967 के आसपास राजनीति में एक छात्र नेता के रूप में उभरे थे। उन दिनों पूर्वी कलकत्ता में सोमेन और दक्षिण कलकत्ता में सुब्रत का छात्र व युवा नेता के रूप में एक साथ अभ्युदय हुआ। कांग्रेस के अन्दर इन दोनों तरुणों की आपसी उठापटक भी खूब चलती थी लेकिन दोनों जब मिलते तो गलबैंया डालकर। इनके कारण कांग्रेस में युवाशक्ति लबालब भरी हुई थी। सोमेन का घर अम्हस्र्ट स्ट्रीट में था एवं लाल रंग के इस मकान में नीचे से ऊपर तक लोगों का जमघट रहता था। सोमेन के घर लंगर चलता था यानि उनके गांव कस्बे से लेकर कांग्रेस के कार्यकर्ता पंगत में बैठकर खाना खाते थे। किसी के लिये कोई रोकटोक नहीं थी। सोमेन की लोकप्रियता एवं जनप्रियता का अंदाज इसी से लगाइये कि युवा कांग्रेस के अध्यक्ष के चुनाव में सोमेन से ममता (आज की मुख्यमंत्री) ने टक्कर ली थी और हार गयी। इस घटना के बाद ममता का कांग्रेस से मोह भंग हुआ। ममता ने देखा सोमेन और कुछ हद तक प्रियरंजन दासमुंशी के चलते वे पार्टी में अलग-थलग पड़ जायेगी। ममता ने फिर तृणमूल कांग्रेस नयी पार्टी बनायी। राजनीतिक घटनाक्रम कुछ ऐसे तूफानी दौर से गुजरा कि ममता के तृणमूल में एक के बाद एक कांग्रेस के सिपहसालार शामिल होते गये। कांग्रेस हाईकमाण्ड ठगा सा देखता रहा। प्रदेश कांग्रेस में सोमेन के बाद जिसको भी अध्यक्ष बनाया गया, वह कांग्रेस से इस पलायन को रोक नहीं सका और देखते-देखते कांग्रेस का घर करीब-करीब खाली हो गया। फिर एक दिन ऐसा भी आया कि सन् 2008 में सोमेन को कांग्रेस छोडऩी पड़ी। उन्होंने प्रगतिशील इंदिरा कांग्रेस बनायी फिर अगले साल ही लोकसभा चुनाव के पूर्व सोमेन को अपनी इस छोटी ब्रिगेड को तृणमूल के साथ समाहित करना पड़ा। सोमेन तृणमूल में शामिल ही नहीं हुये उन्होंने डायमण्ड हार्बर से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीते। किन्तु तृणमूल  कांग्रेस में ममता ने उनको कभी उभरने नहीं दिया। सोमेन बाबू सांसद जरूर बन गये पर तृणमूल में वे ''बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना'' की तरह ही रहे। तृणमूल ने अपने को उन्होंने कई बार अपमानित महसूस किया।

मेरा सोमेन दा से बड़ा आत्मीय सम्बन्ध था। कुछ समय तक मैं उनके कारण कांग्रेस में भी सक्रिय था। सोमेन चाहते थे कि कांग्रेस में हिन्दीभाषी विशेषकर मारवाड़ी समाज की रिक्तता को मैं भरूं। लेकिन सोमेन बाबू से मैंने स्पष्ट कह दिया कि मैं अब अखबार और टीवी पर ही अपने को केन्द्रित रखूंगा। संसद भवन के परिसर में वे एक बार मुझे मिले और बोले- ''विशम्भर बाबू आपसे कभी कुछ छिपाया नहीं इसलिये बता दूं कि मैं ममता की पार्टी से ऊब चुका हूं और किसी भी वक्त दल छोड़ दूंगा।'' शायद वे लोकसभा के अपने टर्म खत्म होने का इंतजार कर रहे थे। 2014 में सोमेन दा की फिर घर वापसी हो गयी। लेकिन सोमेन दा को संगठन का दायित्व नहीं दिया गया। इसी बीच कांग्रेस में जो थोड़े लोग बच गये थे, उन्होंने भी पार्टी से किनारा कर लिया। हर हफ्ते कोई न कोई कांग्रेस छोड़ तृणमूल में चला जाता। सोमेन दा भी इसी बीच लोकसभा चुनाव लड़े और हार गये। यहां तक कि 7 बार विधानसभा चुनाव जीतने वाले सोमेन मित्रा विधानसभा का चुनाव भी नहीं जीत पाये। कांग्रेस की गिरी हुई साख का दुष्परिणाम उन्हें भुगतना पड़ा। सितम्बर 2018 में सोमेन दा को तीसरी बार अध्यक्ष बनाया गया। लेकिन तब तक कांग्रेस लगभग रसातल में पहुंच चुकी थी। सोमेन दा के पार्टी की कमान सम्हालने के बाद कांग्रेस से पलायन रुक गया।
सोमेन दा अंतिम कुछ वर्षों में शारीरिक रूप से तो दुर्बल हो ही गये थे किन्तु अन्दर से भी टूटे थे। यह मैंने कई बार उनसे मिलकर महसूस किया। इस संदर्भ में उनकी पत्नी शिखा मित्रा का सोमेन के निधन पर दिया गया वक्तत्व बहुत महत्वपूर्ण है। शिखा ने कहा कि मेरे पति पार्टी प्रदेश नेतृत्व के एक वर्ग के आचरण से दु:खी थे। सोनिया गांधी के कहने पर उन्होंने पार्टी का अध्यक्ष पद का दायित्व लिया। मैंने उन्हें राजनीति करने से मना किया था। बेटे ने भी ऐसा कहा था किन्तु वे नहीं माने। किन्तु सोमेन के कुछ करीबी लोगों ने यह भी कहा विवाह के बाद सोमेन अपनी पत्नी के दबाव में आकर अपने ही लोगों से विमुख होने लगे। सोमेन का इसी कारण स्वास्थ्य लुढ़कने लगा था और राजनीति में अपनी आत्मीयता और शौर्य दोनों के लिये माने जाने वाले ''छोर दा'' बेबस हो गये थे।
सोमेन संगठन के आदमी थे। वे कार्यकर्ताओं को पहले नाम से बुलाते थे। छोटे से छोटे कर्मी का नाम भी उनको याद था। उनके आलोचक भी उनकी सांगठनिक क्षमता का लोहा मानते थे। सच में बंगाल के राजनीतिक इतिहास का एक अध्याय उनके साथ ही समाप्त हो गया।
उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजलि। ''छोर दा'' हमेशा याद आते रहेंगे।

Comments

  1. Great RENOWN personalities
    Lost the jewel of Bengal

    Will miss ....
    Om shanti Om arham

    Jagatsingh Dugar
    Senior Moderator Citizen
    Dispur

    ReplyDelete
  2. पश्चिम बंगाल कांग्रेस के कर्मठ जुझारू नेता, सोमेन दा का निधन कांग्रेस के लिए एक बड़ी क्षति है।
    उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि सादर नमन।
    उनके राजनीतिक और व्यक्तिगत जीवन की खूबियों से परिचित कराने के लिए आपको धन्यवाद।
    जितेन्द्र धीर
    कोलकाता।

    ReplyDelete

Post a Comment