बहिष्कार हल नहीं है
चीन के आर्थिक अहम् को मूर्छित करना होगा
गलवान घाटी में चीन की हरकतों के जवाब में चीनी सामानों का बहिष्कार किया जा रहा है। व्यापारिक संगठनों ने तो चीन से आयात बन्द करने के लिये अभियान छेड़ा है। चीनी वस्तुओं के बहिष्कार की बयार देश भर में बहने लगी है। बिना मास्क घर से बाहर निकलने वाला हर व्यक्ति चीन वायरस को खुले दिल से कहता फिर रहा है कि आ गले लग जा। एक धीर-गम्भीर टाइप के चिंतक ने अपनी डायरी में टीप दर्ज की है यदि चीन कोरोना की वैक्सिन बनाने में कामयाब हो गया तो क्या हम उसे भी नो...नो...मीन्स नो कह कर ठुकरा देंगे। और तो और चीनी सामानों का बहिष्कार को देश भक्ति से जोड़ दिया गया जिसके परिणामस्वरूप इस कदम की समीक्षा करने की कौन हिमाकत कर सकता है? हालांकि यह जुनून थोड़े ही समय का है, ज्यादा चलने वाला नहीं है पर एक बार तो देश भक्ति का ज्वर उमड़ गया है। इस उमड़-घुमड़ का एक बड़ा कारण यह भी है कि रंग लगे न फिटकरी और रंग चोखा। यानि ऐसी देशभक्ति बड़े ही सस्ते में मिल जाती है। चीन के दो-चार सामान लाकर बीच चौराहे पर उन्हें जलाकर अगर देश भक्ति की मूंछ में ऐंठन लायी जा सकती है तो भगत सिंह बनने की क्या जरूरत है? फांसी के फंदे पर झूलकर जिन नौजवानों ने देश के लिये प्राण दिये उनकी आत्मा क्या सोचती होगी? ब्रिटिश काल में विदेशी कपड़ों की होली जलायी गयी थी तब घर से पूरा विदेशी सामान कपड़ा आदि सब जलाया गया था।
अब जरा जमीनी सच्चाइयां समझिये। कोविड-19 के इलाज में हाइड्राक्सीक्लोरोक्वीन की दो महीने पहले, अचानक दवा की मांग उठी तो पता चला कि पूरी दुनिया में इसका सबसे बड़ा उत्पादक भारत है। भारतीय कंपनियां इसका उत्पादन तेजी से बढ़ाए, तभी पता कि इस दवा का उत्पादन करने वाली भारतीय कम्पनियां कच्चे माल के लिए चीन पर निर्भर है।
मेड इन चाइना सामान को जलाकर चीन के प्रति गुस्से का इजहार
इसी बीच वित्तमंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण ने 25 जून को वर्चुअल रैली के जरिये तमिलनाडु के बीजेपी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि विकास को बढ़ावा देने के लिये चीन से कच्चे माल के आयात पर कुछ भी गलत नहीं है। क्योंकि जो चीजें हमारे देश में नहीं है उसे बाहर से मंगाने पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन सीतारमण जी ने कहा कि आश्चर्य तो तब होता है जब गणेश जी की मूर्ति का भी चीन से आयात करते हैं। क्या भगवान की मूर्ति चीन से मंगवाना जरूरी है? फिर अचानक चीन के माल का बहिष्कार क्या लद्दाख में चीन द्वारा भारतीय सीमा में प्रवेश करने का दु:स्साहस एवं हमारे वीर सैनिकों को मारने की उपज है। चीन का भारत के साथ 1962 के बाद से खट्टा-मीठा सम्बन्ध रहा है। एक-दो बार हमारी झड़पें हो चुकी है। आज भारत की सैन्य शक्ति चीन से कम नहीं है। हम चीन की हिमाकत का जवाब दे सकते हैं। भारतीय सेना पर हमें गर्व है। लेकिन यह भी सच है कि आज चीन आर्थिक रूप से बहुत शक्तिशाली है और अमेरिका जैसे दुनिया के सबसे धनी देश से भी दो-दो हाथ कर सकता है। चीन-अमेरिका के ट्रेड वार ने दुनिया का आर्थिक संतुलन बिगाड़ रखा है।
चीन के सामानों का बहिष्कार की मुहिम चीन की अक्ल को ठिकाने लगाने में कामयाब हो सकेगी? क्या सीमा पर चीन के दु:स्साहस का यही माकूल जवाब है? और इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या बहिष्कार का यह रास्ता भारत को बड़ी आर्थिक ताकत बनाने की ओर ले जाएगा? आज की दुनिया में लड़ाइयां इस तरह नहीं लड़ी जाती। सैनिक शक्ति के साथ-साथ आर्थिक धरातल को भी फौलादी बनाना होगा। पिछले कुछ वर्षों में भारत के कई व्यापारियों ने चीन में अपने दफ्तर खोल लिये हैं एवं चीन के उत्पादों को सस्ते में खरीदकर वे उस पर ''मेड इन इंडियाÓÓ लगवा कर चौगुने दाम में भारत में बेचते हैं। अपना मुनाफा बढ़ा लिया, उन उत्पादों को भारत में बनाने वाले उत्पादक बेचारे रो रहे हैं। ऐसा कर हमने अपने आर्थिक विकास का रास्ता भी अवरुद्ध कर दिया है। देश की जनता में रोष देखकर चीनी कंपनियों के ठेके जरूर रद्द हुए हैं, जिसे सरकार की चीन विरोधी मंशा के रूप में पेश किया जा रहा है। वैसे सरकार के इस कदम से कई बड़ी परियोजनायें खटाई में पड़ सकती है या फिर उन पर खर्च बढ़ सकता है। वैसे यह पहला मौका नहीं है, जब चीन के उत्पादों का बहिष्कार पर उबाल दिखा हो। डोकलाम विवाद के समय भी हुआ था और यही तब भी हुआ था, जब मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने के प्रस्ताव पर चीन ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान का साथ दिया था। इसके बावजूद भारतीय बाजार में चीन की हिस्सेदारी बढ़ती रही।
इस संदर्भ में पहले चीन के आर्थिक विकास के क्रम की ओर ²ष्टिपात करें। माओ युग में चीन ने भी यही भूल या बेवकूफी की थी। लम्बे समय तक उसने पश्चिमी देशों के उत्पाद का बहिष्कार कर अपनी पीठ थपथपाता रहा। वह सैन्य ताकत तो बन गया था पर आर्थिक नहीं। जब उसकी अक्ल ठिकाने आयी और बहिष्कार के कथित राष्ट्रवादी अहम् से अपने को बाहर निकाला। इससे अच्छा उदाहरण जापान का है। दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराकर जापान को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जापान के अहम् और गौरव को भी भारी ठेस पहुंचायी। बाद में जब आर्थिक तरक्की का युग शुरू हुआ, तो जापान ने कभी अमेरिका के बहिष्कार की बात नहीं की, लेकिन बाजार के खेल में उसने अमेरिका को मात दे दी।
तरक्की का रास्ता बहिष्कार से नहीं गुजरता। अपने को आर्थिक ताकत बनाकर हम चीन को जवाब दें, बुद्धिमानी इसी में है। एक उदाहरण वालमार्ट का है। कई राजनीतिक दलों ने वालमार्ट भारत में न आये, इसके लिए जान लगा दी। वालमार्ट लेकिन पिछले दरवाजे भारत में आ गया। लेकिन चीन में ऐसा नहीं हुआ। वालमार्ट ने चीन में सैकड़ों स्टोर खोल दिये पर साथ ही चीन की कुछ कंपनियों ने वालमार्ट के नहले पर दहला मारकर वालमार्ट को शिकस्त दे दी। इस समय चीन के संगठित रिटेल बाजार में वालमार्ट पांच नम्बर की कम्पनी है और चीन का अलीबाबा दुनिया की रिटेल बाजार में नम्बर वन कम्पनी बन चुकी है।
भारतीय उद्यमशीलता एवं कौशल को अवसर दीजिये। आर्थिक शक्ति के रूप में भारत उभरे, तभी हम चीन का अहम् तोड़ सकते हैं। मुझे नहीं लगता चीन भारत पर हमला करेगा, क्योंकि वह इसका परिणाम जानता है। पर वह डोकलाम, गलवान घाटी पर भारत को खोंचा लगाने की कोशिश करेगा और फिर दो कदम आगे और एक कदम पीछे की पुरानी कम्युनिस्ट थ्योरी को काम पर लगाकर एक कदम आगे रहने की रणनीति बनायेगा, ताकि भारत आर्थिक रूप से भी कमजोर हो। सैन्य शक्ति से ही नहीं, आक्रामक आर्थिक शक्ति से जवाब देकर ही हम चीन की प्रसारवादी महत्वाकांक्षा को मुंहतोड़ जवाब दे सकते हैं। भारत-चीन सीमा पर अशांति का भी यही स्थायी हल है। बचपन में पढ़ी हुई एक कविता मुझे याद आ गयी-
पर्वत कहता शीश उठाकर, तुम भी ऊंचे बन जाओ
सागर कहता है लहराकर, मन में गहराई लाओ।

आर्थिक मार सैन्य युद्ध से अधिक कारगर साबित है। आपका विचार बहुत ही समसामयिक है विचारणीय है। भारत अभी भी अपनी उद्यम शीलता और कौशल विकास पर ध्यान देना शुरू कर दे नहीं तो हालात ऐसे आ सकते हैं कि आर्थिक मंदी से उबरने में वर्षों लग जाएंगे। धन्यवाद
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