चीन का कुछ जाना कुछ अजाना चेहरा


चीन का कुछ जाना कुछ अजाना चेहरा

भारत और चीन के बीच गलवान घाटी के पास हुई मुठभेड़ चीन के नये रूप को बेनकाब करती है। भारत का राजनीतिक इतिहास गवाह है कि अतीत में तिब्बत पर चीन के आधिपत्य को भारत ने स्वीकार किया, और इसके लिये भारत में उस वक्त कई विरोधी दल के नेताओं ने प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की कड़ी आलोचना की। यही नहीं बांडुंग सम्मेलन में प्रथम बार भारत ने ही चीन को विश्व के राजनीतिक पटल पर स्थान दिलाया। यह सिर्फ इसलिये नहीं था कि भारत और चीन दोनों विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से हैं बल्कि भारत की यह ईच्छा रही है कि भारत इंडोनेशिया, घाना, मिस्र, पूर्वी यूरोपीय देश एवं चीन दुनिया में शांति को सु²ढ़ करे। उस वक्त भारत-चीन के बीच हुये पंचशील समझौता एक लैंडमार्क बना जिसने विश्व को शांति की गारंटी दी।
वर्ष 1985 में बीजिंग में लेखक चीन के उप प्रधानमंत्री मि. थाओ यी लिन के साथ।  (फाईल फोटो)




भारत चीन के बीच मैकमोहन लाईन को लेकर कुछ विवाद हुआ किन्तु दोनों पड़ोसी देशों ने धैर्य बनाकर रखा और ऐसा कभी महसूस नहीं होने दिया कि ये दोनों मित्र देश कभी युद्ध का सोच भी सकते हैं। चीन एक साम्यवादी देश है और कट्टरता वहां की समाज व्यवस्था का अभिन्न अंग है। इसी कट्टरता के चलते चीन और सोवियत संघ कम्युनिस्ट होते हुए भी दोनों के रास्ते अलग-अलग थे। 1962 में अरुणाचल के पास भारत-चीन सैनिकों में हुई झड़प और चीन का भारतीय सीमा में प्रवेश नागवार गुजरा। भारत ने चीन को कई बार चेतावनी तो दी पर वह इस मित्र राष्ट्र से दो-दो हाथ करने के मूड में नहीं था। इसका एक कारण यह भी है कि तब तक देश को आजाद हुए मात्र 15 वर्ष हुए थे और भारत अपनी चौमुखी प्रगति के लिये दो पंचवर्षीय योजनाओं पर अमल कर चुका था। भारत युद्ध की विभीषिका को समझता था एवं नहीं चाहता था कि उसका विकासोन्मुखी मार्ग अवरुद्ध हो।

इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण वाकया का उल्लेख करना चाहता हूँ। पं. नेहरू की चीन यात्रा के दौरान वे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सुप्रीमो माओ त्से तुंग से मिले थे। माओ से हुई मुलाकात में नेहरू जी ने विश्व शांति एवं दुनिया में सद्भाव आदि की चर्चा की। माओ ने बड़ी आत्मीयता से नेहरू जी को दो टूक कहा कि वे विश्व शांति सद्भाव आदि के पचड़े में न पड़ें और अपने देश की दशा को सुधारें। माओ ने नेहरू जी को गुर समझाया कि देश की ताकत बढ़ाइये, विश्व शांति की फिक्र छोडिय़े। भारत लौटने पर नेहरू जी ने माओ से मुलाकात की चर्चा भारत के राष्ट्रकवि और अपने अभिन्न मित्र श्री रामधारी सिंह ''दिनकर' जी से की। दिनकर जी ने इस बात का जिक्र अपनी प्रसिद्ध  पुस्तक ''संस्कृति के चार अध्याय" में किया है। कहने का अर्थ है कि चीन के साम्यवादी चरित्र में सैनिक रूप से अपने देश को मजबूत करने एवं दुनिया की परवाह नहीं करने की तासीर थी। 1962 में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण इसी तासीर की ही इतिश्री थी। जाहिर है विश्व बंधुत्व के स्वप्न लोक में विचरण करने वाले प्रधानमंत्री नेहरू जी को चीन ने सबक सिखाने एवं इसी बहाने दुनिया को यह पैगाम देने की कोशिश भी की कि चीन अपने मित्र की भी परवाह नहीं करता। नि:संदेह आज चीन दुनिया की ताकत बन गया है और अमेरिका को भी उसकी बढ़ती हुई ताकत से चिन्ता है।

चीन के लोगों में भी अपने को श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति चीनी शासन व्यवस्था की ही देन है। वर्ष 1985 में जब अपने चीन प्रवास के दौरान शंघाई में था तो मुझे इसकी बानगी देखने को मिली। भारत से हम आठ पत्रकार चीन यात्रा पर थे और शंघाई विश्वविद्यालय के कुछ छात्र-छात्राओं से बातचीत कर रहे थे। चीन के एक छात्र ने हमलोगों से एक विकट सवाल किया जिसकी हमें उनसे कतई उम्मीद नहीं थी। सवाल था कि क्या हम ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते हैं? साथी पत्रकारों ने अपने-अपने ढंग से जवाब दिया। उनका जवाब सुनकर चीनी छात्र उपहास भी करते थे। अन्त में मैं और हमारे दल के नेता श्री विश्वबन्धु गुप्ता (तत्कालीन संसद सदस्य) दो का जवाब सुनना था। गुप्ता जी इस सवाल-जवाब से असहजता महसूस कर रहे थे। टर्न आने पर मैंने कहा कि ईश्वर में विश्वास एवं धर्म जैसे विषय को हम भारतीय, निहायत निजी मामला मानते हैं जिसकी चर्चा हम विदेश में तो कतई नहीं करते। मेरे इस जवाब से बातचीत का समापन हो गया और विश्वबन्धु जी ने भी बड़ी राहत महसूस की।

चीन को अपनी सैनिक ताकत का दंभ है। ताइवान (फारमोसा) चीन के पूर्वी हिस्से में एक छोटा सा टापू है, जिसे चीन अपना एक प्रदेश भर मानता है। इसकी जनसंख्या लगभग ढाई करोड़ मात्र है। लेकिन ताइवान अपने को स्वतंत्र देश घोषित किये हुए है। इसके संस्थापक नेता च्यांग-काई शेक से भारत का गहरा सम्बन्ध रहा है, लेकिन चीन से दोस्ती के कारण भारत ने आज तक उसको स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता नहीं दी है। चीन भले ही अपने को दुनिया का बाहुबली समझता हो पर ताइवान को छूने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। इसी से जाहिर है कि चीन कितना तीस मार खाँ है। लेकिन वही चीन भारत को आँख दिखाता रहता है।  सिक्किम को शामिल करके भारत दिखा चुका है कि वह चीन की परवाह नहीं करता। ये इन्दिरा गांधी के कुशल नेतृत्व का प्रतिफल था।

आज नेपाल को भी हमसे अलग-थलग करने की उसकी कोशिश भारत को चिढ़ाने की है। चीन दिखाना चाहता है कि नेपाल जैसे देश जिसे भारत अपना भाई मानता है, उसे भी वह पट्टी पढ़ा कर भारत के विरुद्ध उसका इस्तेमाल कर सकता है।
चीन के साथ लगी तीन हजार किलोमीटर से भी लम्बी सीमा को सुरक्षित रखने के लिये भारत को कोई कुताही नहीं बरतनी चाहिये पर साथ ही वह दुनिया के गुट निपरेक्ष देशों को मजबूत बनाने का भी प्रयास करे, जो पं. नेहरू की परिकल्पना थी। अब चीन कभी युद्ध नहीं करेगा, और न ही भारत ऐसा करना चाहेगा पर कूटनीतिक आक्रामकता अपनाते हुए भारत चीन को अलग-थलग कर सकता है।

Comments