भारत में चिकित्सा सेवायें राम भरोसे
कोरोना वायरस रहस्यमय है। इससे भी अधिक रहस्यपूर्ण वित्तमंत्री का आर्थिक पैकेज। पांच दिन व्यापी पैकेज घोषणा के अंतिम दिन कई विषयों के साथ मैडम मिनिस्टर ने जन स्वास्थ्य का भी उल्लेख किया। कृषि से लेकर कोयला सभी विषयों से सम्बन्धित सुधार पर कई बार पहले भी चर्चा हुई है। किन्तु जन स्वास्थ्य जैसे अहम् विषय पर क्या सुधार की परिकल्पना है, इस पर उन्होंने कुछ नहीं बोला। सरकार कितना खर्च करेगी, कोई स्पष्ट बात नहीं की गयी। चिकित्सा उपकरण व स्वास्थ्य कर्मियों के इलाज पर अब तक कितना व्यय हुआ उसका हिसाब तो दिया पर स्वास्थ्य परियोजना एवं जन स्वास्थ्य पर जो आज सबसे ज्वलन्त मुद्दा है, पर उनका मुंह प्राय: बंद ही रहा। कोविड-19 ने देश की स्वास्थ्य परिसेवाओं की नाकामी को उजागर किया है।
आज भारत के अस्पतालों के तीन बेड में दो निजी अस्पतालों में हैं। प्रति दस वेन्टिलेटर में आठ निजी अस्पतालों में उपलब्ध हैं। इसके बावजूद कोविड संक्रमित रोगियों में अधिकांश का इलाज सरकारी अस्पतालों में ही किया गया, निजी अस्पतालों में इनके रोगी नगण्य थे। हमें शुक्र करना चाहिये कि तमाम अशिक्षा, कुछ तबकों की हेठी और वायरस फैलाने की जिद्द में की गयी मूर्खता भरी हरकतों के बावजूद डॉक्टरों, नर्सों और बड़ी संख्या में चिकित्साकर्मियों ने मास्क और पीपीई जैसे तमाम साधनों के अभाव के बावजूद इस महामारी से लडऩे का संकल्प दिखाया। इसका अंदाजा लगाया जा सकता है कि ग्लोबल हेल्थ सिक्योरिटी इंडेक्स, 2019 की गंभीर संक्रामक रोगों और महामारी से लडऩे संबंधी रैंकिंग में दुनिया के 57वें नम्बर पर आने वाले देश भारत में कोरोना संक्रमितों और इससे हुई मौतों का आंकड़ा आखिर कितना होगा। यह अनगिनत पुलिसकर्मियों और मदद करने को उठे लाखों हाथों और ताली-थाली बजाने पर दीप प्रज्ज्वलित करने वाली जनता का जज्बा ही है जिसने एक लाइलाज महामारी को भारत में भयानक त्रासदी में बदलने से रोक रखा है। निश्चय ही हमें इस जज्बे को सलाम करना चाहिए पर क्या यह एक बड़ा मौका भारत की स्वास्थ्य सेवायों की वर्तमान स्थिति का आकलन करने का नहीं है? विशेषकर जब इस वर्ष विश्व स्वास्थ्य संगठन (ङ्ख॥ह्र) के मुखिया पद पर भारत का प्रतिनिधि बैठेगा। ऐसा न हो कि ''दीया तले अंधेराÓÓ की कहावत हम पर चरितार्थ हो जाये और हम हंसी के पात्र बन कर रह जायें। भगवान न करें अगर कोई बड़ी त्रासदी हो जाये तो हमारा चिकित्सा तंत्र आम मरीजों का भयानक आर्थिक दोहन ही करता नजर आयेगा और उसे मरीजों के मरने-जीने से ज्यादा फिक्र अपनी कमाई की होगी।
आप विश्वास नहीं करेंगे पर यह सच है कि भारत में पांच करोड़ से अधिक भारतीयों के पास हाथ धोने की ठीक व्यवस्था नहीं है जिसके कारण उनके कोरोना वायरस से संक्रमित होने और उनके द्वारा दूसरे संक्रमण फैलाने का जोखिम बहुत अधिक है। असल में, कोरोना वायरस का मौजूदा प्रकरण हमारे चिकित्सा तंत्र की सेहत को जांचने का एक अहम आधार बन गया है। इसने भारत की चिकित्सा व्यवस्था की वे सारी खामियां एक झटके में उजागर कर दी है जिन पर खुद डॉक्टर, अस्पताल और यहां तक कि सरकारें भी तमाम उदाहरण सामने आने के बाद भी निगाह डालने से बचने का प्रयास करती रही है। नजरें चुराने की इसी अदा का नतीजा है कि जब कोरोना संक्रमण रोकने की बात आई तो सरकार को पहला उपाय ''जनता कफ्र्यूÓÓ थाली और ताली बचाने के रूप में नजर आया। हम यह नहीं कह सकते कि सरकार को चिकित्सा संबंधी कमजोरियों का अहसास नहीं है। इन्हीं खामियों को मद्देनजर सकार ने अपनी ओर से इलाज के प्रबंध करने से पहले जनता कफ्र्यू का आयोजन करते हुए इसकी संभावना टटोल लेना चाहा कि मास्क, सैनिटाइजर, वेंटिलेटर, दवाओं और मरीजों के टेस्ट व आईसीयू के नाकाफी इन्तजामों के लिए क्या यह अपनी चौतरफा आलोचनाओं से कुछ राहत पा सकती है या नहीं। जन स्वास्थ्य क्षेत्र में स्वास्थ्य तंत्र की चुनौतियों को लेकर हर स्तर पर इच्छाशक्ति का अभाव ही दिखता रहा है।
हम भले ही इस सूचना पर इतरा लें कि कोरोना के हमले ने अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, जर्मनी, जापान जैसे विकसित देशों की हालत पतली कर दी है। जिस बीमारी के सामने महाशक्ति देश हांफ गये हैं हमारे आबादी बाहुल्य देश में उस स्तर का संकट पैदा नहीं हुआ। कोरोना से निपटने में एक विकसित देश और भारत जैसे विकासशील देश के हेल्थ इँफ्रास्ट्रक्चर में अंतर साबित करने वाला एक आंकड़ा हाल में इससे जुड़ी जांच के संबंध में सामने आया है। 8 अप्रैल 2020 को प्रकाशित समाचार के अनुसार अमेरिका में 16 लाख लोगों की कोरोना वायरस संबंधी जांच की जा चुकी थी। जबकि भारत में अमेरिका से कई गुना ज्यादा आबादी है और कम्युनिटी स्प्रेडिंग का खतरा यहां भी काफी ज्यादा है, लेकिन जांच में हमारा देश काफी पीछे है। आईसीएमआर के मुताबिक भारत में कोरोना वायरस संक्रमण का पता लगाने के लिये तब तक 1,21,271 लोगों की ही जांच हो सकी थी।
हमारी सरकार ने कुल जीडीपी का मात्र 1.3 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च का प्रावधान बजट में किया है। देश की 135 करोड़ की आबादी को देखते हुए यह रकम ऊंट के मुँह में जीरा भी नहीं है। भारत में कुल 26 हजार सरकारी अस्पताल है इनमें नर्सों एवं दाइयों की संख्या लगभग 20.5 लाख और मरीजों के लिए शैय्याओं की संख्या लगभग 7.13 लाख है। एक लाख की आबादी के लिए महज दो अस्पताल उपलब्ध हैं। सरकारी अस्पतालों में जरूरी दवाओं और चिकित्सकों की भारी कमी है जिसके चलते डॉक्टरों और नर्सों पर भारी दबाव रहता है।
देश के स्वतंत्रता संग्राम में हुए संघर्ष एवं करोड़ों की त्याग तपस्या का मकसद था कि हम एक ऐसे समाज का गठन करें जहां चिकित्सा के अभाव में कोई दम न तोड़ दे। पर यह सपना अभी तक अधूरा है और वर्तमान व्यवस्था को देखते हुए लगता नहीं है कि निकट भविष्य में इसके पूरा होने की उम्मीद है। अभी तक देश में मलेरिया का उन्मूलन भी नहीं कर पायें हैं जबकि अफ्रीकी देशों से ये विदा ले चुका है।

सच में आपने भारत की चिकित्सा संबंधी समस्याओं की सही जानकारी दी। शिक्षा स्वास्थ्य आदि पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। अब भी समय है, भारत को मूलभूत सुविधाएं देने में देर न हो तभी सरकार की खैरियत भी है।धन्यवाद
ReplyDeleteEvery thing was nicely discussed. You are absolutely right in the mentioned things in the article. Really the condition of our country is not at all good. But I believe that some time we shall overcome from this difficult situation. So we should wait for a new day to come. I loved this article. I will be waiting for your next article.Best wishes for your next article.
ReplyDeleteRegards,
Tapashi Bose