कोरोना से बड़ा वायरस
कोरोना के संक्रमण से पूरी दुनिया जूझ रही है। महाप्रतापी अमेरिका एवं कई पश्चिमी यूरोपीय देशों की हालत खस्ता है। भारत की स्थिति तुलना में बेहतर है किन्तु कोरोना से जंग में देश का आवाम अपने आपको लावारिस महसूस कर रहा है। लॉकडाउन का अर्थ होता है, जो जहां है, वहीं रहे। यह संक्रमण से मुकाबले के लिये एक प्रभावशाली नुस्खा है। किन्तु लॉकडाउन के आदेश के परिणामस्वरूप हमारे देश का मध्यम एवं निम्न मध्यम वर्ग जिसकी संख्या करोड़ों में है, तबाही की स्थिति का सामना कर रहा है। संगठित एवं असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों ने लॉकडाउन की घोषणा होते ही अपने घरों की ओर रुख कर लिया। उन्हें रोका जाना संभव नहीं हुआ। प्रधानमंत्री जी ने 22 मार्च को जनता कफ्र्यू का ऐलान किया। अगले दिन यानि 23 मार्च को रात आठ बजे श्री मोदी ने घोषणा की कि आज रात 12 बजे से 21 दिन का लॉकडाउन का पालन करें ताकि हम इस महामारी को नियंत्रित कर सकें। यानि चार घंटे की नोटिस दी गयी। परिस्थितियों में यह अति आवश्यक था पर इस घोषणा से लाखों लोग असमंजस में पड़ गये कि वे क्या करें। उन्हें रोका नहीं गया एवं खाने-पीने व रहने की मूलभूत जरूरत की ओर ध्यान नहीं दिया गया। दिहाड़ी मजदूर कामगर लोग छत और भोजन की तलाश में अपने गांव की ओर निकल गये। उत्तर और दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में गरीब पांच-छह सौ किलोमीटर तक की पदयात्रा करने के लिए बाध्य हुए। परिणामस्वरूप लॉकडाउन का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। उन्हें रोकने की व्यवस्था नहीं हो सकी क्योंकि भोजन और छत दोनों में कोई भी साधन उन्हें मुहैया नहीं कराया गया। जब यह सवाल उठा तो कोरोना की गम्भीरता का हवाला दिया गया। 21 दिन का लॉकडाउन 14 अप्रैल को समाप्त हुआ। 10 अप्रैल को मुख्यमंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री की वीडियो कांफ्रेंसिंग में यह तय हो गया कि लॉकडाउन की अवधि को बढ़ाया जायेगा। यही नहीं कुछ मुख्यमंत्रियों ने अपने राज्य में लॉकडाउन बढ़ाने की घोषणा भी कर दी। ऐसा लगा कि प्रधानमंत्री भी अगले दिन ऐलान कर देंगे पर मोदी जी ने चार दिन बाद 14 अप्रैल को सुबह 10 बजे लॉकडाउन की अवधि 3 मई तक बढ़ाने की घोषणा की। उसका परिणाम यह हुआ कि 14 अप्रैल को लॉकडाउन की मियाद समाप्ति के भ्रम में सूरत, मुम्बई स्टेशन पर लोगों की भीड़ हो गयी। उन पर लाठियां बरसायी गयी। अगर दो दिन पहले घोषणा हो जाती तो यह असमंजस या भ्रम नहीं होता। इस बात का जवाब आज तक नहीं मिला कि लॉकडाउन के दौरान ट्रेनों की बुकिंग क्यों खोली गयी। 39 लाख टिकटें बेची गयी क्यों?
देश में आर्थिक स्थिति तो पहले से ही बदतर चली आ रही थी। कोरोना ने घाव पर नमक छिड़कने का काम किया। यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक था कि फरवरी में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री से कहा था कि कोरोना का मामला गम्भीरता से लें। कुताही नहीं बरतें। फिर एक महीने का वक्त क्यों गंवाया गया। मध्यप्रदेश में सरकार गिराने और अपनी सरकार बनाने के चलते केन्द्र हाथ पर हाथ धर कर बैठा रहा। सूरत में मजदूरों का प्रदर्शन और बांद्रा की भीड़ तो बस नमूना है। देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे लाखों लोग आज भी फंसे हुए हैं। इनके सब्र का बांध कहीं टूट गया, कहीं टूटने की कगार पर है। देश की एक बड़ी जनसंख्या को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया। वे इतने क्षुब्ध और हताश हो गये कि उन्हें कोरोना से अधिक खतरा भुखमरी से लगने लगा है।
बांद्रा स्टेशन पर श्रमिकों की भीड़, जिन्हें ट्रेन की बजाय लाठी खाकर संतोष करना पड़ा।
कोरोना संक्रमण से हमारी पहले से बिगड़ी हुई अर्थव्यवस्था विनाश के कगार पर है। डिमोनिटाइजेशन से व्यापार को लगा धक्का सम्हला नहीं था कि कोरोना ने उसकी कमर तोड़ कर रख दी। लोगों को रोजी-रोटी के लाले पडऩे लगे हैं। सरकार ने अभी तक इस स्थिति से उबरने हेतु कोई कारगर कदम नहीं उठाया है। सरकार कैसे उनकी मदद करेगी, अभी तक स्पष्ट नहीं है। मध्यम श्रेणी हताश है। वह भीख भी नहीं मांग सकती एवं लंगर में खड़े होकर खाना नहीं खा सकती। यूएनओ की संस्था युंकटाड के आंकड़ों के अनुसार भारत में गरीबों की संख्या में 10 करोड़ की वृद्धि हो जायेगी। गरीब देश में गरीबी में और इजाफा हो जायेगा। भारत की विकास दर गिरकर 1.9 फीसदी रहने की आशंका है। बार्कलेज का तो कहना है कि इस साल दिसम्बर तक भारत की विकास दर शून्य रहेगी।
पिछले महीने ज्यादातर लोग कह रहे थे कि मानवता के सामने यह दूसरे विश्व युद्ध के बाद का सबसे बड़ा खतरा है। अब सब मान रहे हैं कि यह उससे कहीं बड़ा खतरा है। सामने घनघोर अंधेरा है। कोरोना से भी बड़ा वायरस का खतरा सामने दिखाई दे रहा है। ऐसे में सरकार एवं सभी राजनीतिक दलों का दायित्व है कि वह युद्धस्तर पर उसका मुकाबला करे किन्तु पहल तो सरकार को ही करनी होगी।
ऐसी बदहाली पर किसी शायर ने लिखा है-
इस खंडहर में कुछ टूटे हुए दीये हैं
उन्हीं से काम चलाओ, बड़ा अंधेरा है।

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