हिन्दी-बंगला की अद्भुत युगलबन्दी

हिन्दी-बंगला की 
अद्भुत युगलबन्दी
क्या आप जानते हैं

हिन्दी में एम.ए. सर्वप्रथम एक बंगाली सज्जन ने किया था एवं बंगला में सबसे पहले एम.ए करने वाले एक हिन्दी भाषी मारवाड़ी थे


आज देश के वातावरण में यह कल्पना नहीं की जा सकती कि एक बंगाली सज्जन देश में सबसे पहले हिन्दी में एम.ए. डिग्री हासिल की थी। उनका नाम था डॉ. नलिनी मोहन सान्याल। उनके पिता श्री हरिमोहन सान्याल राजपुताना लाइट रेल में नौकरी करते थे। सन् 1861 अक्टूबर में शान्तिपुर (बंगाल) में नलिनी बाबू का जन्म हुआ। उनका बचपन अलीगढ़, जयपुर, जोधपुर व आगरा में बीता था। इसी दौरान डॉ. सान्याल को उर्दू, अरबी, फारसी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त हुआ। सन् 1921 में डॉ. सान्याल को कलकत्ता विश्वविद्यालय में भारत में पहला एम.ए. होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हिन्दी में स्नातकोत्तर की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त करने के पश्चात् डा. सान्याल ने हिन्दी में पी.एच.डी. भी की। उल्लेखनीय है कि भारत में सर्वप्रथम कलकत्ता विश्वविद्यालय में ही हिन्दी में एम.ए. की शिक्षा दी जाती थी। डा. सान्याल भारतीय शिक्षा विभाग में निदेशक पद पर भी नियुक्त किये गये थे। अवकाश प्राप्त करने के पश्चात् कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अतिथि अध्यापक के रूप में कार्य करते थे। सन् 1943 में डा. सान्याल ने बिहारी भाषाओं की उत्पत्ति और उसके विकास पर शोध प्रबंध प्रस्तुत किया था जिस पर उन्हें पीएचडी की डिग्री प्राप्त हुई थी। गत पहली मार्च को डा. नलिनी मोहन सान्याल की मूर्ति की स्थापना बंगाल के शांतिपुर के कश्यपपाड़ा में की गयी। डा. सान्याल के पौत्र श्री तपब्रत सान्याल मूर्ति भी अनावरण कार्यक्रम में उपस्थित थे।



नलिनी मोहन सान्याल
की मूर्ति (शांतिपुर)


हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिये भी बंगाल से आवाज उठी थी। केशवचन्द्र सेन, रवीन्द्र नाथ टैगोर, सुभाष चन्द्र बसु, चित्तरंजन दास जैसे महापुरुषों ने परामर्श दिया था कि हिन्दी ही देश की राजभाषा हो।

बंगालियों के हिन्दी के प्रति सम्मान एवं हिन्दी के विकास की बात एक गौरवपूर्ण इतिहास है तो दूसरी तरफ यह जानकर भी सुखद आश्चर्य होगा कि इसी कलकत्ता विश्वविद्यालय में बंगला में पहला एम.ए. करने वाले हिन्दी भाषी सज्जन थे और वह भी एक मारवाड़ी। श्री भगवान दास हरलालका ने सन् 1935 में बंगला से एम.ए. किया। मारवाड़ी समाज के बारे में कहा जाता है कि वह बंगाल और देश के अन्य हिस्सों में व्यापार एवं रोजगार के लिये आया था। यह सच भी है क्योंकि राजस्थान मरुस्थल  जहां न नदी न पहाड़, न खेती की गुंजाइश न कारोबार की। इसीलिये राजस्थान का बनिया अपनी पुरखों की जगह छोड़कर बंगाल विशेषकर कलकत्ता आकर बसा। यहां विपरीत परिस्थितियों में भी काम किया, कड़ी मेहनत कर अपने को स्थापित किया। उसी का परिणाम है कि मारवाड़ी समाज के लोग प. बंगाल में ही नहीं देश के अन्य हिस्सों में भी व्यापार को नियंत्रित करते हैं। लेकिन कोई मारवाड़ी अपनी आत्मा में बंगाल की भाषा को आत्मसात करेगा यह तो क्लपनातीत है। हवा के विपरीत, लीक से हटकर भगवान दास हरलालका जी बंगला भाषा की घुट्टी पी गये। उनके दिल दिमाग में बंगला पढऩे और इसमें एम.ए. करने की बात कैसे आयी इसकी जानकारी नहीं किन्तु कुछ असाधारण प्रवृत्ति एवं जज्बा से ही उन्होंने यह रास्ता अख्तियार किया होगा। उनके पारिवारिक सूत्रों ने बताया कि उस वक्त डा. श्याम प्रसाद मुखर्जी ने उन्हें स्कूल खोलने की सलाह दी। उन्हीं के कहने पर ही भवानीपुर में भगवान दास हरलालका जी ने एक स्कूल खोली। उसका नाम था एंग्लो हिन्दी हाई स्कूल। देश को आजादी मिलने के पश्चात् उन्होंने नाम बदल कर आदर्श हिन्दी हाईस्कूल किया जो आज भी उनके पुत्र सन्तोष हरलालका चला रहे हैं। उनकी हार्दिक इच्छा बंगला मीडियम स्कूल खोलने की थी अत: उन्होंने अपने पिता के नाम पर रामरिख इन्स्टीच्यूट की स्थापना की जहां बंगाली मीडियम से शिक्षा दी जाती थी। काफी समय तक दोनों स्कूलें एक ही स्थान पर थी पर बाद में कलकत्ता विश्वविद्यालय के निर्देश पर दोनों को अलग-अलग स्थानों पर किया गया। 95 वर्ष की आयु में भगवान दास जी का स्वर्गवास सन् 2014 में हो गया। मैं उनसे एक कार्यक्रम में मिला था। अपने वक्तव्य की शुरुआत उन्होंने यह कह कर की थी कि च्ढ्ढ ड्डद्व ड्ड ९० 4द्गड्डह्म्ह्य 4शह्वठ्ठद्द द्वड्डठ्ठज् और उनकी जिन्दादिली को देखकर लोगों ने ताली बजाकर स्वागत किया। इस उम्र में भी वे पूरे फिट एवं सक्रिय थे।


भगवान दास हरलालका

हिन्दी और बंगला की यह अद्भुत जुगलबन्दी को भुलाना एक इतिहास को दुत्कारने से भी भयंकर भूल होगी। डा. नलिनी सान्याल साहब की मूर्ति हाल ही में उनके जन्म स्थान शांतिपुर में लगाकर एक बंगली की हिन्दी सेवा को पूर्ण मर्यादा देने का काम किया। किन्तु हिन्दी समाज या मारवाड़ी समाज ने भगवान दास हरलालका की स्मृति में भाषायी गौरव और भाषायी एकता के गौरव को अभी तक प्रतिष्ठित नहीं किया है। यही कारण है कि कोई हिन्दी भाषी या मारवाड़ी नहीं जानता कि बंगला भाषा से पहला एम.ए, एक हिन्दी भाषी वह भी मारवाड़ी व्यक्ति था। लोगों को इस अद्भुत युगलबन्दी पर विश्वास नहीं होगा। देर-सबेर इस अभाव की पूर्ति करना आवश्यक है वर्ना फिर यही धारणा और मजबूत होगी कि मारवाड़ी सिर्फ व्यवसाय जानता है और पैसे कमाना ही उसकी नीयति है।



Comments

  1. नवीन जानकारी उपलब्ध कराने वाला एक उत्कृष्ट आलेख । लेखक श्री बिश्वम्भर नेवर साहब को आंतरिक बधाई !

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