महिला दिवस (8 मार्च) पर विशेष
हर 68 मिनट..
भारत में घरेलू हिंसा एक बड़ी समस्या है। इसके गम्भीहर सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक दुष्परिणाम न सिर्फ महिलाओं को भोगने पड़ते हैं बल्कि पूरा परिवार भोगता है। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे (एन.एफ.एच.एस) के आंकड़ों की मानें तो 30 प्रतिशत भारतीय महिलायें अपने पति द्वारा यौन उत्पीडऩ, शारीरिक शोषण और भावनात्मक पीड़ा का शिकार होती है। गत वर्ष ''मी टूÓÓ के अन्तर्गत खुलासे हुए थे जहां कर्म स्थल पर महिलाओं के साथ यौनाचार हेतु दबाव डालने के बात सामने आई जिस पर उन्होंने वर्षों तक मुंह बंद करके रखा। एन.एएफ.एच.एस. को मुम्बई की झोपड़पट्टी और बस्ती इलाकों से पता चला कि ज्यादातर महिलायें जो घरेलू हिंसा का शिकार होती है अक्सर सारे मामले को छिपा कर रखती है एवं इस पर किसी से बात नहीं करती, मदद लेने की बात तो दूर। सरकारी स्तर पर एवं कई सामाजिक संस्थाएं काम कर रही हैं पर उन तक बात पहुंचायी नहीं जाती। कई औरतें चोट खाकर या घायल होकर अस्पताल जाती हैं पर वहां भी वे असली बात छिपा लेती हैं। औरतों के हक में कानून बने हुए हैं पर अब उनके विरुद्ध भी अभियान चलाये गये तो वर्ष 2017 जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने 498 धारा में परिवर्तन कर अब बिना चोट के सबूत दहेज उत्पीडऩ में त्वरित गिरफ्तारी नहीं हो सकती क्योंकि इस धारा का कुछ महिलाओं ने दुरुपयोग शुरू कर दिया था। इतने अधिक संख्या में कानून पारित होने बाद भी महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं। हर वर्ष दहेज, बलात्कार, शारीरिक शोषण की बढ़ती घटनायें देश को वापस उसी गर्त की तरफ धकेल रही है।
जब कोई स्त्री एक हाथ के सहारे से अपनी कामयाबी की सीढिय़ैां चढ़ रही होती हैं वहीं दूसरे हाथ से वह अपने ही परिवारीजन द्वारा की जा रही हिंसा का प्रतिरोध कर ही होती है। पुराने समय के संदर्भ में आज की महिलाओं ने बहुत उपलब्धियां अर्जित की हैं, परन्तु सत्य यह भी है कि ये रास्ता अभी बहुत लम्बा एवं संघर्ष से भरा हुआ है। महिलाएं अपने घर को दूर छोड़कर बाहर तो आती हैं, परन्तु बाहर एक अत्यधिक क्रूर, निष्ठुर तथा शोषणकारी समाज उसकी प्रतीक्षा कर रहा होता है, एवं यहां ऐसे समाज में उसे अपनी काबिलियत साबित करनी होती है जो उसे भोग की वस्तु तथा वंश-वृद्धि की मशीन से अधिक कुछ नहीं मानता।
विगत 3 मार्च को डेविट गोलियाथ के बैनर तले ''एवरी 68 मिनट्सÓÓ पर एक शॉर्ट फिल्म का प्रदर्शन जे डब्ल्यू मेरियट के बैनक्वेट में किया गया। लाल भाटिया, इमरान जकी और आदिल हुस्सैन द्वारा निर्मित इस फीचर फिल्म में एक ऐसी ही शिक्षित लड़की की कहानी है जिसने पीेचडी की डिग्री हासिल की और आगे की पढ़ाई पूरी कर कुछ करना चाहती है। ससुराल भी शिक्षित है पर पैसे की वहस से इतना गिरा हुआ कि वह उसकी महत्वाकांक्षा को ही परिवार का दुश्मन समझता है और फिर शुरू होती है उस लड़की पर शारीरिक अत्याचार एवं बेरहमी से उसकी पिटाई। लड़का कोई काम नहीं करता और उसके मां-बाप ने उसके बारे में झूठ बोलकर उसकी शादी एक शिक्षित लड़की से करवा दी। अत्याचार और उत्पीडऩ में पति, ससुर और सास तीनों मिलकर लड़की को बाप से धन लाने और फालतू की पढ़ाई छोड़ घर पर रहकर एक ''हिन्दुस्तानी पत्नीÓÓ का फर्ज निभाने की नसीहत देते हैं। इसकी नसीहत में वह लहूलुहान हो जाती है। अपने पिता को और तकलीफ न देकर वह गले में फांसी लगाकर लटक जाती है। यह किसी विशेष घटना के आधार पर फिल्म नहीं है किन्तु ऐसी घटनायें सभ्य और पढ़े-लिखे समाज में कई बार घटित हो चुकी है।
यह भी विडम्बना है कि आधे घंटे की मर्म स्पर्शी और हृदय विदारक फिल्म देखकर समाज के प्रति ग्लानि और इसको बदलने की भावना के साथ रुकसत न होकर चार सौ सम्भ्रान्त पुरुष-महिलाएं की उपस्थिति फाइव स्टार काकटेल और डीनर की आगोश में तब्दील हो जाती है।
खैर इस फिल्म को देखकर मैं बहुत उद्वेलित हुआ और बैनक्वेट के बाहर लिये जा रहे साक्षात्कार में मैंने यही कहा कि फिल्म का कथानक हमारे आसपास का है। शिक्षित और तथाकथित सम्भ्रान्त परिवारों में घरेलू हिंसा की घटनायें आदे दिन हो रही है। आंकड़ों के अनुसार हर 68 मिनट पर भारत की एक बेटी या तो मार दी जाती है या उसे अपनी ही जिन्दगी को खत्म करने की ओर धकेल दिया जाता है। हर दिन दहेज से प्रताडि़त 21 लड़कियां मौत के मुंह में चली जाती है। इस जघन्य अपराध के लिये उत्तरदायी लोगों में मात्र 35 प्रतिशत लोगों को ही सजा मिलती है, हालांकि दहेज विरोधी कानून 1961 में बना था। हमारे संस्कार और वैवाहिक सम्बन्धों की पवित्रता की रात दिन दुहाई देने वालों के पास इसके लिये कोई उत्तर नहीं है। शिक्षा से समाज में परिवर्तन हुआ है किन्तु परिवर्तन का हाथ कातिल से अभी बहुत दूर है।
मीहिला दिवस 8 मार्च 1975 से पूरी दुनिया में मनाया जा रहा है। महिलाओं की उपलब्धियां एक से बढ़कर एक है और अब ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां महिलाओं ने दस्तक न दी हो। फिर भी हर 68 मिनट पर एक महिला भारत में हिंसा की शिकार होती है।

बढ़िया संपादकीय
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