शिक्षा की भिक्षा नहीं मिलती
हाय गरीबी लाचारी
देश की स्वतंत्रता के पूर्व हर मां का सपना था कि आजाद भारत में मेरा बेटा पढ़ लिखकर नवाब बनेगा। दु:ख, दारिद्र दूर होंगे। आजादी मिली और 73 वषो में शिक्षा के क्षेत्र में बड़े परिवर्तन हुए हैं। स्कूल, कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों का जाल बिछा दिया गया है। शहर में अनपढ़ व्यक्ति तो नगण्य है, गांवों में भी पढ़े लिखे लोगों की संख्या में असाधारण वृद्धि हुई है। पर शिक्षा के मामले में हम इ?स पर? भी दुनिया में बहुत पीछे हैं। शिक्षालयों एवं शिक्षार्थियों की संख्या के आंकड़ो में उछाल के बावजूद हमारी शिक्षा व्यवस्था के चलते हमारे देश को आज भी पिछड़े देशों में गिना जाता है। इसका एक बड़ा कारण देशभर में शिक्षा में एकरूपता नहीं है। शिक्षा अब बिकाऊ माल की तरह आपकी क्रय शक्ति पर निर्भर करता है। देश में 68 प्रतिशत लोगों की संख्या या तो निम्र मध्यम श्रेणी की है या फिर वे 'बीपीएलÓ यानि ''बिलो पोवर्टी लाइनÓÓ में आते हैं। आज भी देश में दो करोड़ से अधिक बच्चे हैं जो स्कूल का मुंह नहीं देख पाते। वे मजबूरी में खेतों में बंधुआ मजदूरों की तरह काम करते हैं या फिर छोटे-बड़े शहरों में चाय या परचून की दुकान में नजर आते हैं। संविधान में 14 वर्ष से नीचे के बच्चों से मजदूरी कराना कानूनी जुर्म है पर हम रात दिन इस जुर्म को फलते-फूलते देखते हैं। इन बच्चों की भी मजबूरी है कि उन्हें अपने अपंग मां-बाप के लिए या बीमार मां-बाप की दवा-चिकित्सा के लिए काम करना पड़ता है। स्कूलों में तीसरी चौथी कक्षा के बाद ड्रोप आउट में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है। स्कूल की बजाय उनको अपने घरों की ओर रुख करना पड़ता है।
भारत में बच्चों की दो तस्वीरें
अब तो बच्चे स्कूल जाते हैं उनकी तरफ एक नजर डालें। अधिकांश माता-पिता उनकी फीस जुगाड़ नहीं कर पाते। गत दस पंद्रह वर्षों में स्कूल फीस सुरसा के बदन की तरह बढ़ी है। ऐसी स्कूलें जो शिक्षा के नाम पर अभिशाप हैं, में भी हजार बारह सौ रुपये महीने की फीस है। हमारे यहां गरीब मां-बाप के बच्चे भी अधिक होते हैं। पाठ्य-पुस्तकों में एक बच्चे पर कम से कम ढाई से तीन हजार रुपये का खर्च पड़ता है। इसमें स्टेशनरी शामिल नहीं है। सड़क छाप स्कूलों में भी फीस नामी स्कूलों जितनी है। अच्छी स्कूलों में जब एडमीशन नहीं मिलता तो मजबूरन उन्हें ऐसी फटीचर स्कूलों में दाखिला लेना पड़ता है। एक तो शिक्षा महंगी है उसके ऊपर बोर्ड की परीक्षायें पास कराने के लिए छात्रों को ट्यूटोरियल का सहारा लेना पड़ता है। यानि पढ़ाते-लिखाते मां बाप की तो जान निकल जाती है र्आैर छात्रों का सारा उत्साह टूट जाता है। ऐसी निराशाजनक स्थिति से हमारी शिक्षा व्यवस्था गुजर रही है।
5-7 प्रतिशत छात्र-छात्राओं को जो सम्पन्न परिवारों में पैदा होते हैं शिक्षा नसीब होती है। फिर बड़े परिवारों में बच्चों को विदेश में पढ़ाने का उपक्रम चल पड़ा तो इनमें कुछ छात्र एवं छात्रायें तो वहीं बस जाते हैं। देश वापस लौटते ही नहीं।
इस तरह की शिक्षा व्यवस्था को लेकर भारत कभी विश्व-गुरु बनेगा, या 5 ट्रिलयन डालर की इकोनोमी बनेगा, कल्पना ही नहीं की जा सकती। हमारा टैलेन्ट विदेशों में जाकर मोटा पैकेज लेकर अपने खून पसीने से वहां के मल्टी नेशनल कार्पोरेशन प्रतिष्ठानों की सेवा में लगा हुआ है। भारत में 95-99 प्रतिशत माक्र्स पाने वाली छात्रा अब देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी नहीं वह पेप्सी की चेयरपर्सन इन्दिरा नुई बनना चाहती है। वह वीरांगना बनने की बजाए चन्दा कोचर बनना चाहती है जो करोड़ों रुपयों का वारा-न्यारा कर सकती है।
ऐसा नहीं कि हमारे देश में पोटेन्सियलटी नहीं है। प्रचुर संभावनायें हैं। देश की तकदीर बदली जा सकती है पर इसके लिए व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा। देश के युवा प्रस्तुत है किन्तु हमारा नेतृत्व इस परिवर्तन के लिए प्रस्तुत नहीं है।


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