दिल्ली से दिल्ली तक का सफर
दिल्ली सिर्फ भारत की राजधानी ही नहीं एक लम्बा इतिहास है। इसने कई बादशाहों को धूल चटायी है। बनी है, संवरी है, लूटी गई है, उजड़ी है, फिर बसी है। दिल्ली हमेशा सुर्खियों में रही है। चाहे मुगलों की दिल्ली हो या अंग्रेजों की या कांग्रेसियों की या फिर आज की अरविन्द केजरीवाल की दिल्ली। फिर भी दिल्ली के बारे में यह माना गया है कि दिल्ली किसी की नहीं हुई। दिल्ली का कोई नहीं हुआ। इसलिये पहली बार अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि मैं दिल्ली का बेटा हूं। बहुत समय से लोग किसी के मुंह से यह सुनने के लिए तरस रहे थे। इसके पहले चौधरी ब्रह्मप्रकाश जो दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री थे से लेकर शीला दीक्षित या इसके पहले सुषमा स्वराज ने कभी नहीं अपने को दिल्ली की बेटी या बेटा कहा। दिल्ली पर किसी जाति, वर्ग या सम्प्रदाय का कभी अधिकार नहीं रहा। न ही किसी ने अब तक दिल्ली से अपना भावनात्मक संबंध बनाने की चेष्टा की है।
बहादुर शाह जफर को खुशफहमी हुई कि उसने दिल्ली को बनाया। जबकि यह ऐतिहासिक तथ्य भी है कि मुगल साम्राज्य के इस अंतिम बादशाह ने दिल्ली का निर्माण करवाया था। 1857 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विद्रोह के बाद इसी मुगल बादशाह बहादुर शाह को रंगून (वर्तमान यांगून) निर्वासित कर दिया गया था तथा उनके परिजनों की हत्या कर दी गई। बहादुर शाह को बर्मा की जेल में स्थानान्तरित कर दिया गया ताकि वे दिल्ली के प्रति अपने मोह से विमुख हो जायें। रंगून (यंगून) की जेल में भी वे दिल्ली के लिए तरसते रहे और जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने यह इच्छा प्रकट की कि मरने के बाद उन्हें दिल्ली में कहीं दफना दिया जाय। अंग्रेजी हुकूमत कैसे गंवारा करती कि एक देश भक्त और दिल्ली की दिवानगी जिसके सर पर सवार हो उसको दिल्ली में सुपुर्दे खाक किया जाय। बहादुर शाह की कब्र दिल्ली का समाधि स्थल बन जाता और अंग्रेज विरोध का कभी केन्द्र बन सकता था, इस आशंका से बहादुर शाह को उनकी अंतिम इच्छा से भी मरहूम कर दिया गया। महान शायर बहादुर शाह जफर का वह शेर दिल्ली प्रेमियों को हमेशा याद दिलाता रहेगा कि बहादुर शाह दिल्ली में खाक-ए-सुपुर्द का सपना लेकर ही मर गये। उनका स्मारक और समाधि स्थल रंगून में ही बना दिया गया। जिसने दिल्ली बनायी उसको दिल्ली प्यार का सिला ऐसे मिला।
बहादुर शाह जफर ने वह शेर इसी पीड़ा को लेकर लिखा था-
कितना है बद-नसीब 'जफर दफ्न के लिए
दो गज जमीं भी न मिली कू-ए-यार में।
जैसे ही दिल्ली के प्रशासन पर ब्रिटिश ताज का कब्जा हुआ इसके भौतिक स्वरूप ने पारंपरिक औपनिवेशिक नगर का रूप ले लिया। धीरे-धीरे दिल्ली का आधुनिकीकरण होने लगा। 1867 में कलकत्ता से दिल्ली के लिए पहली नियमित रेल चली. नई राजधानी दिल्ली का शुभारंभ जनवरी 1931 में हुआ।
दिल्ली ही एक ऐसा शहर है जहां नये और पुराने का स्पष्ट तौर पर विभाजन किया गया। भारत के तत्कालीन वायसराय बेरन चाल्र्स हार्डिंग चाहते थे कि पुरानी और नई दिल्ली का संयोजन एक हो। किन्तु लुटियंस अपने संकीर्ण शहरी सौंदर्यीकरण पर जमे हुए थे। उनका पूर्वाग्रह पुरानी दिल्ली के लिए घातक सिद्ध हुआ जिसने 1941 और 1951 के बीच आए लगभग एक लाख शरणार्थियों को निवास प्रदान करना था। लुटियंस ने दिल्ली को शरणस्थली बना दिया जिससे नई दिल्ली का सौंदर्यीकरण पर कोई आंच न आये। परिणामस्वरूप नई दिल्ली के निवासी 68 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर में रहते हैं वहीं पुरानी दिल्ली 336 से 400 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर के बोझ से दबी जा रही थी। यह विसंगति और किसी शहर में देखने को नहीं मिलती। लुटियंस की दिल्ली को सदैव परम पावन क्षेत्र समझा गया। दिल्ली को राज्य का दर्जा दे दिया गया है किन्तु इसी विषमता के दबाव की वजह से यही एक मात्र राज्य है जिसकी पुलिस एवं नियुक्तियां राज्य सरकार के अधीन नहीं है। दिल्ली के उमड़ते सैलाब को यमुना के पूर्वी तट पर बसाया गया है जहां धीरे-धीरे एक अलग ही दिल्ली आकार ले रही है।
दिल्ली का एक हिस्सा जो लुटियंस का हिस्सा है, नई दिल्ली के नाम से जाना जाता है। इसे इस बात का अहंकार है कि वह सरकार बनाता है और उसे चलाता है। दूसरा हिस्सा दिल्ली में बसी ब्यूरोक्रेसी है जिसमें वर्तमान और निवर्तमान अफसरों का आवास है। तीसरा हिस्सा पंजाबियों और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आकर बसे जाटों का है जो सीधी सपाट बात करता है। चौथा हिस्सा बिहार से आये प्रवासी मजदूरों का है। दिल्ली में सरकार को बनाने और रोकने में तीसरे और चौथे हिस्से की अब सबसे बड़ी भूमिका हो गई है।
मात्र 8 साल पहले बनी ''आम आदमी पार्टी यानि ''आप का दिल्ली फतह और इस किले पर मजबूती से पकड़ बनाये रखना, विचारणीय विषय है। यह राजनीतिक विश्लेषकों का काम है कि वह इस बात का शोध करे कि भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के बीच जिस पार्टी का उद्भव हुआ वह भ्रष्टाचार के आरोपों में आकंठ डूबी पार्टी कांग्रेस को उखाड़ फेंकने की भीष्म प्रतीज्ञा करने वाली भाजपा दोनों को अंगूठा दिखाकर दिल्ली पर काबिज हो गयी। पर दिल्ली का इतिहास कहता है कि दिल्ली किसी की नहीं हुई। मुगल बादशाहों की भी नहीं, दिल्ली बनाने वाले बहादुर शाह जफर को तो दो गज जगह भी नसीब नहीं हुई। दिल्ली में उडऩ पुलों का जाल बिछाने वाली शीला दीक्षित और सौम्य और साफ सुथरी छवि वाली सुषमा स्वराज - किसी की नहीं। मुफ्त बिजली, पानी मुहैया कराने वाले देश के राजनीतिक इतिहास में आठवें अजूबा अरविन्द केजरीवाल की भी कब तक रहेगी, इतिहास ही बतायेगा।


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