राजस्थान का मरुधर मेला
बंगभूमि पर दौड़ा मरुभूमि का जहाज
कोलकाता में इस बार सर्दी कुछ ज्यादा ही पड़ रही है। महानगर में जब कंपकंपा देने वाली सर्दी है तो बाहर गाँवों में बंगालियों पर क्या बीती होगी, अदाज लगाया जा सकता है। बंगाल से सुदूर राजस्थान अपने अति सर्द एवं चरम गर्मी के लिये जाना जाता है। मरुधर मेला में मरुभूमि का बिन पतवार वाला जहाज अपने पर सवार अजय गंगवाल और उसके 9 वर्षीय चिन्टू को लेकर जब दौड़ा तो उन्हें लगा कि किसी ऊंची मीनार से वे ऑर्चिड गार्डेन की मरुभूमि को निहार रहे हैं। ऊँट के टहल की पट्टी परबालू बिखेर दी गयी थी ताकि राजस्थान के इस जहाज को चलने में कोई दिक्कत न हो। कोलकाता में ऊँट की सवारी वैसे ही है जैसे बंगाल में बाजरे की खेती। मरुधर मेले का हर वर्ष आयोजन कोलकाता और उसके आसपास रहने वाले राजस्थानियों को जितना आकर्षित करता है उतना ही बंगालियों को भी। अब दोनों में एक समानता भी है। बंगाल के लोग राजस्थान की उस शास्त्रीय संस्कृति एवं जीवन पद्धति से बेवाकिफ हैं तो राजस्थान प्रवासियों की नयी पीढ़ी यानि किशोर और बच्चे अपने बुजुर्गों के राजस्थान से लगभग उतने ही अनभिज्ञ हैं। वे अब यदा-कदा जयपुर-जोधपुर-बीकानेर जाते भी हैं तो सैलानियों की अदा से। अब राजस्थान से दोनों ही एक समान दूरी पर हैं। लेकिन दूर रहकर भी कई चीजें प्यारी लगती हैं इसीलिये राजस्थान में पूरे देश के पर्यटकों की संख्या में बंगाल सबसे शीर्ष परहै। जबसे सत्यजीत राय की सोनार केल्ला फिल्म बनी, उसके बाद तो बंगाल से टूरिस्ट ट्रॉफिक कई गुना बढ़ गया। जयपुर में लगभग डेढ़ सौ बंगाली परिवार घर जमाये हुए हैं, वे राजस्थानी बोलने में भी पारंगत हैं।
मरुधर का जहाज
मरुधर मेले में बंगाली राजस्थान देखने जाता है। राजस्थानी इस मेले में अपने अतीत को महसूस करने जाता है। इस बात की मुझे खुशी है कि हम दोनों अब काफी नजदीक आ गये हैं। भले ही हमारा हनीमून नहीं हो किन्तु हम एक-दूसरे से मिलकर रोमांचित तो हो जातेहैं। तब मुझे पहले की यानि 25-30 वर्ष पुरानी वे बातें याद आती हैं जो मुझे गर्व की अनुभूति होती है।
मैं जब कोलकाता आया, कुछ बड़ा हुआ, मेरे कान में जो बातें शीशे के घोल की तरह पीड़ादायक लगी वह थी कि यहां राजस्थान से मारवाड़ी सिर्फ खून चूसने आये हैं। उन्हें सिर्फ पैसा कमाना आता है। वे शोषक हैं। सेल्स टैक्स, इनकम टैक्स की चोरी, कम तौलना ज्यादा बोलना, उनकी फितरत में है। यहां से पैसा कमाकर राजस्थान में हवेलियां बना रहे हैं वगैरह-वगैरह। लेकिन धीरे-धीरे बंगाली भाइयों को सच का पता चला। कई बंगाली राजस्थान गये और देखा मारवाड़ी की हवेली तो खंडहर होती जा रही है। कोलकाता में भी पहले मारवाड़ी ट्राम के दूसरे दर्जे में ही बैठता था। बिमल मित्र ने अपने उपन्यास ''कौड़ी दिये किनलामÓÓ में इस बात को बड़ी खूबसूरती से लिखा। मारवाड़ी पैसा बचाता था, स्टेटस से अलग रहकर मोटा खाता और पहनता था। धीरे-धीरे उसने व्यापार में अपने को स्थापित किया। गद्दियों में पन्द्रह-बीस मारवाड़ी एक साथ रहते थे। बासे में खाना खाते थे। उनके पास रहने के लिए अलग कमरा भी नहीं था। मुझे याद है एक दिन शटल टैक्सी में मैं धर्मतल्ला जा रहा था। टैक्सी में एक बंगाली भद्र मानुष ने मुझे कहा कि हम बंगाली अपने परिवार का पेट नहीं पाल सकते, आप कारोबार कर दस बंगालियों का पेट पाल रहे हैं। इस तरह बंगाली मित्रों की राय हमारे बारे में बदली। आज बंगाली समझता है कि निष्ठा के साथ उद्यम मारवाड़ी ही कर सकता है। अब वह समझ गया है कि बंगाली की बुद्धि, बिहारी का श्रम और मारवाड़ी की उद्यमशीलता तीनों ने मिलकर बंगाल को समृद्ध किया। अब मोहल्लों में मारवाड़ी से दुर्गापूजा के चन्दे को लेकर वह जबर्दस्ती नहीं की जाती जो तीन-चार दशक पहले की जाती थी। हाँ मारवाड़ी चन्दा देता है, पर प्रेम से, भाईचारे से। कई पूजा कमिटियों में मारवाड़ी चेयरमैन हैं। यानि मारवाड़ी बंगालियों के साथ रम चुके हैं। हालांकि हमारा खान पान उनसे आज भी भिन्न है। मैं समझता हूँ कि मारवाडिय़ों की मुसलमानों के प्रति भी धारणा वैसे ही कालान्तर में बदलेगी जैसी बंगालियों की मारवाडिय़ों के बारे में बदली है। मारवाड़ी-बंगाली को समरस होनो ंमें दो पीढिय़ां चली गयी।
मरुधर मेले में गोलाबो का कालबेलिया नृत्य।
मरुधर मेले में रौनक और बहार राजस्थान के दिग्दर्शन की ललक अब सिर्फ राजस्थानियों में ही नहीं बंगालियों में भी है। मरुधर मेले का ऊंट पीठ पर मारवाड़ी पिता और पुत्र कोलेकर उतनी ही तेजी से दौड़ता है जितना बंगाली बाबू के पिता-पुत्र को।
मेले में बिछुड़े हुये मिलते हैं अब कोई बिछुड़ता नहीं है। यही मेले की लेटेस्ट मेलोडी है।


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