नागरिकता संशोधन बिल
एक बिन बुलाया मेहमान
यह कैसी विडम्बना है कि नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) जो संसद के दोनों सदनों में पारित किया गया है, उसके विरोध में मुस्लिम संगठनों की बजाय हिन्दु बाहुल्य संस्थायें आंदोलन कर रही हैं। युवा और छात्र संगठन सड़क पर उतर गये हैं। पूर्वोत्तर राज्यों के मूल निवासियों को डर है कि नए कानून के परिणामस्वरूप बंगलादेश के बंगाली हिन्दू पूर्वोत्तर राज्यों में बस जायेंगे। इसके पहले भी बड़ी संख्या में ''पूर्वी पाकिस्तान अब बांग्लादेश) के लोग असम, त्रिपुरा, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, अरुणाचल में आकर बसे हुए हैं। इन पूर्वोत्तर राज्यों के कई जिले ऐसे हैं जहां ऐसे आगन्तुकों की संख्या स्थानीय या मूल निवासियों से भी अधिक है। अब जब नए नागकिता कानून के तहत और लोग आयेंगे तो सभी पूर्वोत्तर राज्यों के मूल निवासी अल्पमत में हो जायेंगे। पड़ोसी देश से मुसलमानों के आने पर निषेधाज्ञा से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि बंगाली हिन्दू जो बांग्लादेश से आयेंगे उनके इन प्रान्तों में बसने से मूल निवासियों की भाषा और संस्कृति पर वे भारी पड़ सकते हैं। ऊपर से सरकारी संरक्षण प्राप्त कर उनका वर्चस्व कायम हो सकता है। पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में भाजपा की सरकार बनी है किन्तु नागरिकता बिल ने भाजपा के राजनीतिक प्रभाव को निरस्त कर दिया है। इस बात का उन्हें अंदाज नहीं था। उनके अनुमान के विपरीत पूर्वोत्तर राज्यों में क्या गांव क्या शहर आंदोलन की राह पर है। कई शहरों में कफ्र्यू लागू कर दिया गया है। हवाई सेवायें रद्द कर दी गयी हैं एवं बहुत सी ट्रेनें भी रुकी हुई हैं। यानि जनजीवन ठप्प हो गया है। जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे और भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की गुवाहाटी में होने वाली मुलाकात भी इस आंदोलन की बलि बेदी पर चढ़ गयी है।
असम में हिंसक विरोध
हमारे देश में शरणार्थियों का एक इतिहास रहा है। भारत का आध्यामिक स्वरूप इस बात की इजाजत नहीं देता कि हम बाहर से आये हुए शरणार्थी के लिये अपना दरवाजा बन्द कर दें। चीन से बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा को हमने शरण दी जबकि भारत और चीन के सम्बन्ध सामान्य से बेहतर थे। पंडित नेहरू ने पड़ोसी चीन के साथ मैत्री के हाथ बढ़ाये और हमारी मैत्री कुछ देशों को बड़ी नागवार गुजरी। दलाई लामा को चीन की नाराजगी के बावजूद शरण देकर हमने भारत की उदारता और सहिष्णुता की मिसाल कायम की। बदले में चीन ने युद्ध थोपा पर हम अपने सिद्धान्त से विचलित नहीं हुए। भारत पाकिस्तान बंटवारे का दंश भोग कर बड़ी संख्या में पाकिस्तान से हिन्दू सिंधी राजस्थान, गुजरात में आकर बसे। अपनी मेहनत के बल पर तीन चार दशकों में उन्होंने अपने को नये ढंग से स्थापित कर लिया। रेड़ी में सब्जियां रख कर बेचने वाले या स्कूलों में तस्तरियों में सजाकर लेमनचूस बेचकर वे देखते-देखते साधन सम्पन्न हो गये और आज भारत की अर्थव्यवस्था में उनकी बराबर की हिस्सेदारी है। जम्मू से पंडितों का पलायन दु:खद था पर वे दिल्ली और अन्य जगहों पर बस गये। मुसलमानों ने पाकिस्तान में हिन्दुों के खिलाफ नाइन्साफी की हो पर हिन्दुस्तान में रहने वाले मुसलमानों का भारत की आजादी के संघर्ष और बाद में भारत की विकास यात्रा में उल्लेखनीय योगदान रहा है। भारत में कई उद्योग खासकर लघु और कुटिर उद्योग के फलने फुलने में मुसलमानों के हाथ की कारीगरी का करिश्मा को नजरन्दाज नहीं किया जा सकता। बाहर से आया व्यक्ति अपने बलबूते पर जगह बनाता है बशर्ते वह स्थानीय लोगों की भाषा और संस्कृति को छिन्न-भिन्न न करे। देश के अन्दर लोगों के आवागमन पर भी यह बात लागू है। बंगाल को विकसित करने में बंगाली का दिमाग के साथ बिहारी का श्रम और राजस्थानी के उद्योग को भी श्रेय है। इस कड़ी के सभी भाग बराबर की भूमिका निभा रहे हैं।
पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में लोगों ने भारत की ओर पलायन किया। यह कोई धार्मिक उत्पीडऩ नहीं था क्योंकि दोनों देशों का एक ही मजहब था पर भाषा थोपी गयी, संस्कृति पर आघात किया गया तो उन्हें मुल्क छोडऩा पड़ा। हमने उनके आने को रोका नहीं पर उन पर हो रहे जुल्म और सितम से दुनिया को अवगत करायी बाद में लिबरेशन आर्मी के जरिये पाकिस्तान को ऐसा सबक सिखाया कि उसका भूगोल ही बदल गया। भारत आये शरणार्थियों की उनके देश में ससम्मान वापसी का श्रेय भारत को है और पाकिस्तान को ऐसी चोट दी कि उसे हमेशा के लिये सबक मिल गया। किन्तु रोहंगिया मुसलमानों को हम बर्दाश्त नहीं कर सके। उनकी आतंकवादी छवि बनाकर भारत ने अपनी ऐतिहासिक सहिष्णुता को खारिज कर दिया।
और अन्त में मुसलमानों को छोड़ अन्य कौमों पर अन्य देशों में अन्याय हुआ होगा और सरकार उन्हें हिन्दुस्तान की नागरिकता देकर यहां सम्मान देकर एक भरोसा देना चाहती है लेकिन इस सबका तरीका हमेशा ऐसा ही क्यों होता है? विस्तृत चर्चा या बातचीत के बाद क्यों नहीं आती? यह सरकार हमेशा जल्दी में क्यों रहती है? पूर्ण बहुमत में होने के बावजूद यह सरकार किसी की बात सुनना क्यों नहीं चाहती? विपक्ष को हल्ला करने का मौका देकर केवल हिन्दू-मुसलमान भावना को और ज्यादा भड़काने और भड़काए रखना ही मुख्य उद्देश्य है तो खुलकर क्यों नहीं कहती। मतलब जो आपको करना है वही सही है। किसी को कुछ बोलने का अधिकार ही नहीं है। फिर विकल्प क्या है?
सरकार ने हिन्दुओं को सहानुभूति का संदेश दिया पर पाकिस्तान के एक हिन्दू सांसद और हिन्दू विधायक ने ही इसका विरोध किया है। पाकिस्तान के हिन्दू भी इस बिल से नाराज हैं क्योंकि अपने मुल्क में उनके प्रति वैसे ही संशय बढ़ेगा जैसे हमारे देश में हम मुसलमानों को पाकिस्तान के साथ सहानुभूति रखने वाले समझने की भूल करते हैं।
इस बिल का सरकार को क्या फायदा मिलेगा, समझ में नहीं आता। पाकिस्तान से सताये हुए हिन्दू तो भारत में आते रहे हैं एवं उन्हें पहले भी नागरिकता मिलती रही है। बिल में मुसलमान शब्द से परहेज रखकर हमारी सरकार ने इस धारणा को और पक्का कर दिया कि वह मुस्लिम विरोधी है। भाजपा जब विपक्ष में थी तो वोट बैंक के लिये काम करने वाली बात गले उतरती है पर अब तो उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार है। बाहर से आये हुये लोगों में किसको नागरिकता दे और किसको नहीं दे, यह तो वह खुद तय कर सकती है। चुपचाप काम होता रहता, बिना मतलब के तीन देशों का नाम देकर और मुसलमानों को शामिल नहीं कर पूरे भारत की शांति भंग कर दी और देश में कामचलाऊ सौहाद्र्र के वातावरण को भी प्रदूषित कर दिया।

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