मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है
पर सच्चाई कुछ और है
बचपन से हम महात्माओं के श्रीमुख से सुनते आये हैं कि मानव सेवा ही ईश्वर की सेवा है। लेकिन सच्चाई का इस उक्ति के साथ कोई तालमेल नहीं है। यही कह सकता हूं कि काश ऐसा होता तो देश की तस्वीर ही बदल जाती। कुछ बिरले ही हैं जो इस भावना के अनुरूप कार्य करते हैं किन्तु अधिकांश लोग ऐसा कहते हैं पर अपनी जीवन शैली में इसे नहीं उतारते हैं। धार्मिक सभा हो या सामाजिक अनुष्ठान इस बात को दोहराया जाताहै और ऐसा कहना लोगों पर असर भी डालता है पर मानव सेवा को धर्म के विकल्प के रूप में लोगों ने स्वीकार नहीं किया है। आम तौर पर मानव सेवा को ईश्वर की सेवा का पर्याय की बात करने वाले भी इसे जीवन में अंगीकार नहीं करते। सेवा एक स्वैच्छिक कार्य है किन्तु ईश्वर की सेवा या भगवान की आराधना के पीछे बहुत से कारण है जिनमें एक वजह भय भी है। भगवान से प्रीति भय से भी होती है - कहा भी जाता है भय बिन होय न प्रीति। व्यक्ति भी ईश्वरीय कर्मकांड करता है ताकि उसका कोई अनिष्ट न हो। शिक्षा के प्रसार ने इस भय को कुछ कम किया है पर भयमुक्त स्थिति से आज भी हम कोसों दूर हैं। सिर्फ गांवों में ही नहीं शहरों में भी अधिकांश मध्यम श्रेणी इस भय से सहमी रहती है। कई धार्मिक कर्मकांड सिर्फ इसलिये अनुष्ठित किये जाते हैं ताकि मानवीय आशंकाओं से मुक्त हो सके। एक लोकप्रिय फिल्म ''पीकेÓÓ में इस बात को बड़ी बेबाकी एवं बारीकी से दिखाया गया है। धर्मान्धता एवं इन कर्मकांडों के विरुद्ध लोगों के मानस को झकझोरता हुआ फिल्म का हीरो एक बार तो ठहरे हुए पानी में हलचल पैदा कर देता है एवं धर्म के नाम पर ढोंग और फरेब को बेनकाब भी करता है किन्तु इसी बीच एक पाखंडी महात्मा के मुंह से फिल्म का निदेशक यह सच्चाई भी कहला देता है - रुक जाओ सभी (धर्मपरायण) वापस लौटेंगे क्योंकि ये भगवान से प्रेम नहीं करते हैं सिर्फ डरते हैं। यही सच है। एक बार इन ढकोसलों से हमें विरक्ति होती है। परिवर्तन का तूफान शान्त होते ही हमें धार्मिक स्वयम्भुओं द्वारा स्वर्ग और नर्क की मान्यताओं को हमारे अद्र्धसुप्त दिल-दिमाग पर सदियों से बैठाये जीवन की कथित सच्चाईयों से रूबरू करा देती है। अभी कुछ दिन पूर्व ही श्रावण मास में लोगों ने भगवान शिव का अभिषेक किया। दूध-दही की धारा शिवलिंग पर बहाई गयी। अभिषेक से जीवन को तारने और नैसर्गिक सुख के उपदेश हमारे मन में इतने जड़ जमाये हुए है कि उस वक्त हमें मानव सेवा ही ईश्वर सेवा का मंत्र याद ही नहीं रहता। दूध से शिवजी को नहलाने के समय क्या धर्म परायण जनता जनार्दन यह सोचती है कि शिवालय के बाहर ही ऐसे बच्चे खड़े हैं जो दूध की बूंद को तरसते हैं। बच्चे के विकास के लिए न्यूनतम आवश्यकता दूध की होती है पर उन्हें दूध देखने को भी नहीं मिलता। ऐसे में आप अगर कह दें कि दूध को क्यों व्यर्थ नाली में बहाते हो, किसी गरीब बच्चे को दे दे तो हमारी धार्मिक भावना को करारी चोट लग जाती है। आप पर धर्मविरोधी या नास्तिक होने का आरोप लगाया जा सकता है।
मंदिर के जीर्णोद्धार के नाम पर आप चंदे की रसीद लेकर जायें, खाली हाथ नहीं लौटेंगे। लोग आपकी झोली भर देंगे। पर एक अनाथ या गरीब बच्चे की पढ़ाई के खर्च की बात करिये और फिर देखिये मानव सेवा ही भगवान की सेवा है - का यथार्थ आपके सामने आ जायेगा।
मैं कुछ वर्ष पहले तक विक्टोरिया सुबह टहलने जाया करता था। मुख्य द्वार पर रोजाना एक सज्जन अपनी बीएमडब्ल्यू गाड़ी से उतरते थे और उनकी कार की प्रतीक्षा में इधर-उधर छितराये कई बच्चे इकट्ठा हो जाते। गाड़ी वाले सज्जन का उन गरीब बच्चों का भिखारी रूप देखकर मन प्रफुल्लित हो जाता। फिर उनको कुछ ब्रेड, कुछ बिस्कुट और कभी-कभी कुछ नगद देकर वे अपने सुबह की रोजाना प्रक्रिया पूरी कर लेते और फिर विक्टोरिया के अन्दर टहलने चले जाते। लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर उन्हें सिर्फ एक बच्चे की पढ़ाई का खर्च वहन करने को कह दिया जाता तो इतने सारे बच्चों के खाली हाथ को भरने का सुख वे कभी नहीं छोड़ेंगे। यह एक कटु सत्य है कि हम कथित मानव सेवा के नाम पर उनको भिखारी ही रखना चाहते हैं। बाद में पता चला कि उन्होंने एक मन्दिर में भगवान के स्वर्ण आभूषण बनवा कर दिये हैं जिस पर पचास लाख रुपये का खर्च आया है। ऐसे ²श्य आप रोज देखते होंगे कि भगवान के मन्दिर जाने के रास्ते में बड़ी संख्या में भिखारियों एवं कोढिय़ों को दान देते-देते कई धर्मात्मा मन्दिर में प्रवेश करते हैं। पर मानव सेवा के किसी कार्य में उनकी भूमिका नहीं रहती है।
बड़े राजनीतिक नेताओं ने भी इस मामले में आदर्श नहीं रखा है। दिवंगत जयललिता ने केरल के मंदिर में दो हाथियों का दान दिया, किसी राजनेता ने तिरुपति के मन्दिर में भगवान की आंखों में कई करोड़ रुपयों के हीरे जड़े और कुछ दिन पहले ही प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता दीदी ने दीघा पर पुरी के जगन्नाथ मंदिर की तर्ज पर मंदिर बनाने की घोषणा की। हमारे यहां ही नहीं हर धर्म में मानव सेवा की बात कही जाती है उस पर बड़े-बड़े भाषण भी दिये जाते हैं पर गरीबी सुरसा के बदन की तरह फैलती जा रही है। इस्लाम में भी जकात की अवधारणा है यानि अपनी आमदनी का एक हिस्सा गरीबों पर या गरीबों की भलाई पर खर्च किया जाये। किन्तु बड़ी शानदार मस्जिदें तो बनी पर कितने गरीबों को छत मिली, कितने बच्चों को न्यूनतम पोषण मिला? उनमेंं गरीबी तो पहले से अधिक बढ़ी है। इस पर महान शायर निदा फाजली का एक तिलमिला देने वाला शेर है-
बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान।
मानव सेवा की प्रेरणा अगर धर्म से ही मिलती तो अभी तक गरीबी का उन्मूलन हो जाता, उतना न भी होता तो कम से कम हर गरीब को जीने का एक न्यूनतम साधन तो मुहैया हो जाता। अब तो हमारी वित्तमंत्री ने मंदी को निरस्त करने के लिे जो कदम उठाये हैं उनमें एक यह भी है कि कार्पोरेट क्षेत्र की सामाजिक जिम्मेवारी के अन्तर्गत 2 प्रतिशत जन कल्याण कार्यों में खर्च की बाध्यता को अपराध की श्रेणी से मुक्त कर दिया गया है। यानि इसमें भी हेराफेरी ने सेंध तो लगा ही दी है।

धार्मिक ढ़कोसला करनें वाले तथाकथित दानवीरों की पोल खोल दी। राजनेताओं को भी नहीं बख्शा।
ReplyDeleteसही कहा है कि धर्म से यदि मानव सेवा की प्रेरणा मिलती तो अब तक ग़रीबी का उन्मूलन हो जाता। धार्मिक ढ़कोसला करनें वाले तथाकथित दानवीरों की पोल खोल दी है, राजनेताओं को भी नहीं बख्शा। इसी तरह कलम चलाते रहिए। बधाई इस संपादकीय के लिए।
ReplyDeleteबुरा जो देखन मैं चला,
ReplyDeleteबुरा ना मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना,
मुझसे बुरा ना कोय।
Like everytime this time also you have written the reality. I agree with you in this matter. You have taught me that if I can give 1% also of my earning to the welfare of human then it is not working it is not religion I think it is an actual human's work. God is in humans if humans are not there then god is also not there. Lastly congratulations for your marvelous, beautiful editorial.
ReplyDeleteThanks,
From
Tapashi Bose.