राजनीति का विकल्प
सेवा भाव ही राजनीति के प्रति मोह भंग को खत्म कर एक नया विश्वास जगा सकता है
आमलोगों में राजनीति के प्रति मोह भंग हो चुका है। एक वर्ग है जो राजनीति को अवसरवाद और धन्धेबाजी का पर्याय मानता है। गांधी जी ने इस बात को समझा था। इसलिये राष्ट्रपिता ने हर क्षेत्र में कार्यकर्ता या ''एक्टीविस्टÓÓ तैयार किये। खादी के लिए चरखा कातने की मात्र सलाह ही नहीं दी बल्कि स्वयं चरखे से कपड़ा बुनते थे। खादी और स्वदेशी क लिए निष्ठावान कर्मियों को प्रेरित किया। सर्वशिक्षा अभियान, निर्मल भारत, नारी कल्याण, हरिजन उद्धार, बस्ती उन्नयन, कुटिर उद्योग आदि आदि के क्षेत्र में नौजवानों को कार्य करने हेतु प्रेरित किया। महात्मा जी का विश्वास ता कि अगर जमीन से आदमी को जोड़ा नहीं गया तो स्वतंत्रता भी बेमतलब हो जायेगी। जब मन्दिरों में हरिजनों का प्रवेश निषेध था तो स्वयं हरिजनों को लेकर देवालय गये। पोंगा पंडितों एवं धार्मिक संकीर्णता ओढ़े लोगों ने इसका विरोध किया और महात्मा पर पत्थर बरसाये गये। गांधी जी के क्रान्तिकारी प्रयास से पूजा स्थलों को कर्मकांडियों के संकुचित और कुंठित नियंत्रण से स्वतंत्र किया गया।आज भारतीय राजनीति राजसत्ता की राजनीति में सिमटती जा रही है जबकि इसका मूल स्वर समाज बदलने की राजनीति से जुड़ा रहा है। महात्मा गांधी, पं. जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डा. राम मनोहर लोहिया ने सामाजिक कार्यों या सामाजिक परिवर्तन को अपनी राजनीति का आधार बनाया। इसीलिये इन नेताओं को याद करने वाले लोग आज भी हैं और हमेशा हर युग में रहेंगे। महात्मा गांधी की आजादी की लड़ाई की संकल्पना अछूतों, नारियों एवं पिछड़ेपन से मुक्ति के साथ जुड़ी थी।
स्वतंत्रता के पश्चात् भी राष्ट्रीय आंदोलन से पैदा हुये नेता जैसे इन्दिरा गांधी, चन्द्रशेखर, जयप्रकाश नारायण, दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, पं. गोविन्द बल्लभ पन्त, डा. सम्पूर्णानन्द, हीरालाल शास्त्री आदि ने अपनी राजनीति को सामाजिक सरोकार एवं समाज परिवर्तन से जोड़ कर रखा। राजनीति में इनका प्रभाव दलगत सीमाओं से परे था।
दुर्भाग्य से 1970 के बाद भारतीय राजनीति में अपराधी, माफिया, पूंजीपतियों ने अपनी पैठ बनाई इसलिए उसके बाद के राजनीतिक कालखंड में राजनीतिक नेता कभी भी राजनीति की मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाये। फिर इसकेबाद 90 के दशक में उदारवादी बाजार व्यवस्था ने हमारी अर्थव्यवस्था को नया आधार दिया एवं आर्थिक विकास का फ्लड गेट भी खोल दिया। उसके स्वच्छन्द प्रवाह में मूलभूत भारतीय संस्कारों के खूंटे कमजोर होने लगे एवं इस प्रवाह से ऊर्जा पैदा करनेकी बजाय स्वच्छन्द एवं स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति पैदा हुई और भारतीय राजनीति बाजारवाद की बन्दी बन गई। परिणामस्वरूप राजनीतिक प्रबन्धक, वित्तीय रणनीतिकार, प्रशिक्षित टेक्नोक्रेट्स, प्रशिक्षित बैंकर्स, कानूनविदों पर जनाधार वाले नेताओं की निर्भरता बढऩे लगी। समाज की जड़ों से कटे हुये किन्तु आंकड़ों एवं मैनेजमेन्ट की राजनीति करने वालों की पौध पनपने लगी।
इसी परिप्रेक्ष्य में जब प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने स्वच्छ भारत का अभियान शुरू किया वह एक सरकारी अभियान बन गया। उसकी सफलता के लिये आंकड़ों के कसीदे पढ़े जाने लगे। एक तरफ स्वच्छता अभियान को सरकारी मशीन से बढ़ा-चढ़ा कर रखा गया, दूसरी तरफ परम्परागत एवं जातिगत रूप से सफाई करने वालों की अनदेखी होने लगी। कचरा बुनने वाले आर्थिक दुर्दशा के शिकार हुए और स्वच्छता अभियान के हीरो वे लोग बन गये जिन्हें सफेद कुर्ते में जरा सा भी दाग रास नहीं आता है। निर्मल भारत का गांधी का नारा स्वच्छ भारत के राजनीतिक कोलाहल में खो गया। खुले में शौच को भी राजनीतिक आंकड़ों से मुक्ति मिली। पर दिल्ली के पास शकूर बस्ती के हालात कुछ खास नहीं बदले।
मोदी जी ने गांधी की परिकल्पनाओं के प्रेरणा ली पर वे उसे सिर्फ सरकार की वाहवाही से ऊपर नहीं ले जा पाये। अब उन्होंने पोलीथिन मुक्त भारत के साथ परिवार नियोजन को राष्ट्रभक्ति का अभिन्न अंग बनाने का एक बड़ी फेस वैल्यू का उद्घोष किया है। ऐसी अपीलों द्वारा प्रधानमंत्री मोदी भारतनीय राजनीति को एक नया आयाम देने का प्रयास कर रहे हैं। इस तरह के सामाजिक कार्यों को समाज सेवा से प्रेरित कर सकें तो इसमें आशातीत सफलता मिल सकती है। सामाजिक सेवाभावी कार्य के इस अभियान की प्रेरणा कहीं न कहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रीति-नीति से जुड़ी है। लेकिन इन सबकी सफलता के लिए उन्हें भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के मूलाधार से सूत्र खोजने होंगे। लेकिन मोदी ने जो यह राह ली है, उस पर सभी को चिन्तन जरूर करना चाहिये। ये सभी सामाजिक कार्यक्रम एवं अभियान हमें सत्ता की राजनीति के अंधे गलियारे से निकाल कर एक ताजी हवा देता है। निष्ठुर एवं लोलुप किस्म की राजनीति का अर्थ-विस्तार इसी सामाजिक संवेदना के होने से ही संभव है।
हो सकता है कि इस प्रकार की सोच भविष्य में और भी प्रभावी होकर उभरे, या फिर यह भी हो सकता है कि ये अपील मात्र मीडिया की खबर में तब्दील होकर रह जाए। कुछ लोग इसे आर्थिक बदहाली की तरफ से ध्यान बंटाने की राजनीति भी कहते हैं। किन्तु भारतीय जनतंत्र एवं राजसत्ता की राजनीति को कहीं न कहीं सामाजिक सेवा भाव से जुडऩा ही होगा। यही सेवा भाव लोगों को राजनीति के प्रति हो रहे मोह भंग से उबार कर एक नया विश्वास जगायेगा।


बहुत सुंदर ढंग से आपने राजनीति और सेवा भाव को जोड़ कर देखा वह आनेवाले समय में कारगर साबित होगा।
ReplyDeleteThe topic on which you have written is very useful for the newcomers in the politics. It is written very beautifully. It will be more worthy if we do it in the future.
ReplyDeleteThanks,
With regards,
Tapashi Bose.